राधास्वामी सम्वत् 204
के भंडारे के पावन अवसर पर यह
प्रेम प्रचारक-विशेषांक
उनके चरण कमलों में अत्यंत श्रद्धा व दीनता के साथ
सादर समर्पित है।
जब किसी को गहरा शौक़ और प्रेम संत सतगुरु और उनके सतसंग में बचन और महिमा सुन कर आ गया, तब उसकी आसक्ति अपनी देह और कुटुम्ब परिवार और धन माल और भोग बिलास वग़ैरह में एक दम ढीली हो कर, चरनों में कुल मालिक राधास्वामी दयाल के आ जावेगी और जिस क़दर अभ्यास करके रस अंतर में मिलता जावेगा, दिन दिन बढ़ती जावेगी और फिर वही शख़्स सतगुरु की आज्ञा और मालिक की मौज के अनुसार सहज में बर्तने लगेगा और उसके मन और इन्द्रियों के बिकार और पिछली टेक और पक्ष और करम और भरम बहुत जल्द दूर हो जावेंगे और अभ्यास में भी उसको मन और माया के बिघन बहुत कम सतावेंगे और पिछले अगले करम भी उसके सहज में दया और प्रेम के बल से कट जावेंगे।
(प्रेमपत्र, भाग 3, ब. 25, पैरा 6 का अंश)
परम गुरु हुज़ूर महाराज के बचन
19- उत्तम जीव यानी प्रेमी सुरतों से संत सतगुरु फ़रमाते हैं कि उनको कुल मालिक राधास्वामी दयाल के चरनों में गहरी प्रीत और प्रतीत करनी चाहिये यानी जिस क़दर कि उनकी प्रीत संसार और कुटुम्ब परिवार और धन माल वग़ैरह में है, उससे कुछ ज़्यादा मालिक के चरनों में होना चाहिये, तब रास्ता सुखाला और तेज़ चलेगा यानी जो मालिक की प्रीत का पल्ला ब-निस्बत दुनिया की प्रीत के पल्ले के कुछ भारी होगा, तब कोई विघ्न मन और माया और काल वग़ैरह का उनके अभ्यास में ख़लल नहीं डालेगा और अभ्यास भी सहज बनेगा। इसी को गुरुमुखता कहते हैं और गुरुमुख को कोई रोक और अटका नहीं सकता।
24- जो जीव कि कुल मालिक राधास्वामी दयाल की भक्ति और सरन में आये, वे मालिक के अपनाये हुए और महा प्यारे हैं और दूसरे दरजे के जीवों पर भी ब्रह्म का ख़ास प्यार है और बाक़ी जीवों पर आम तौर की दया है। इसी के मुवाफ़िक़ रामायन में भी बचन है-
भक्ति विहीन बिरंच किन होई। सब जीवन सम प्रिय मम सोई।।
भक्तिवंत जो नीचहु प्रानी। प्राण से अधिक सो प्रिय मम बानी।।
25- ख़ुलासा इस बचन का यह है कि मालिक को भक्ति और दीनता प्यारी है। जो कोई उनके चरनों में सच्ची प्रीत और दीनता लावेगा, वहीं संत सतगुरु से मिल कर निजधाम में बासा पावेगा और संत सतगुरु उसको मौज से आप ही मिल जावेंगे और सबब ऐसी मौज का यह है कि कुल मालिक आप प्रेम का अथाह भंडार है और जीव जो उसकी अंस है, वह भी प्रेम स्वरूप है और जिस धार के वसीले से कि उनका सूत मालिक के चरनों में लगा हुआ है, वह भी चैतन्य और प्रेम की धार है। फिर जो कोई प्रेम अंग लेकर चलेगा वही मालिक के सन्मुख पहुँचेगा। बिना प्रेम के उस रास्ते में गुज़र नहीं हो सकता है।
(प्रेमपत्र, भाग 5, बचन 35)
No comments:
Post a Comment