स्मरण रहे, चूंकि यह संसार प्रेम से शून्य है, प्रेम से रिक्त है, जब भी किसी व्यक्ति के जीवन में प्रेम का बिरवा लगता है, चारों तरफ से उसे तोड़ने और नष्ट करने वाले लोग आ जाते हैं। चारों तरफ से! अपने भी पराए हो जाते हैं। मित्र भी दुश्मन हो जाते हैं। कोई यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि तुम्हारे भीतर और प्रेम का पौधा लग जाए। क्यों? क्योंकि तुम्हारा प्रेम का पौधा उनके लिए आत्मग्लानि का कारण हो जाता है। उनके अहंकार को चोट लगती है, उनके अभिमान को भारी घाव पहुंचते हैं। तुम पाने लगे और मुझे नहीं मिला? अभी मैं नहीं पहुंचा और तुम पहुंचने लगे? यह वे बरदाश्त नहीं कर सकते। वे सब तुम पर टूट पड़ेंगे। वे तुम्हारे पौधे को नष्ट करने का हर उपाय करेंगे। तर्क देंगे, खंडन करेंगे, तुम्हें विक्षिप्त कहेंगे, पागल कहेंगे। तुम्हारे मार्ग में हजार तरह की अड़चनें, बाधाएं खड़ी करेंगे। तुम्हारे गुलाब के पौधे पर हजार पत्थरों की वर्षा होगी। सजग होना! जितनी बड़ी संपदा हो उतना ही आदमी को सजग होना चाहिए। कहीं बात बनते-बनते बिगड़ न जाए! बनते-बनते बिगड़ जाती है। बिगड़ना इतना आसान है और बिगाड़ने वाले इतने लोग हैं।
सारा वातावरण प्रेम के विपरीत है; प्रेम का विरोधी है, दुश्मन है, शत्रु है। सारा वातावरण घृणा, वैमनस्य,र् ईष्या से भरा है। प्रेम की यहां जगह कहां? सबके घरों में घास-पात की खेती हो रही है। तुम्हारे घर में गुलाब के फूल खिलेंगे, पास-पड़ोस के लोग बरदाश्त नहीं करेंगे। तुमने अपने को समझा क्या है? गुलाब के फूल बो रहे हो। पहले तो हंसेंगे, पागल कहेंगे और अगर तुम अपनी जिद में लगे ही रहे, अपने संकल्प में भरपूर डूबे ही रहे,. . .नासमझ कहेंगे, दीवाना कहेंगे, हंसेंगे, उपेक्षा करेंगे। लेकिन तुम माने ही नहीं और अपनी खेती में लगे ही रहे और तुमने गुलाबों की खेती करके दिखा ही दी तो जिन्होंने तुम्हें पागल कहा था, विक्षिप्त कहा था, हंसे थे, उपेक्षा की थी वे सब टूट पड़ेंगे। तुम्हारे खेत को नष्ट कर देना चाहेंगे। क्योंकि तुम्हारा खेत इस बात का प्रमाण है कि वे भी जो हो सकते थे, नहीं हुए हैं। और यह कोई भी बरदाश्त नहीं करता कि मैं हार गया हूं कि मैं असफल हूं कि मेरा जीवन एक दुर्घटना है।
फिर उनकी भीड़ है, तुम अकेले हो। वे बहुत हैं, उनकी संख्या है, उनकी सत्ता है, उनकी शक्ति है। बहुत संभलना। बहुत होशपूर्वक चलना। इसीलिए बुद्धों ने संघ बनाए ताकि तुम अकेले न रह जाओ, कुछ संगी-साथी हों। कम-से-कम कुछ ही सही! थोड़ा संग-साथ रहेगा, थोड़ी हिम्मत रहेगी, थोड़ा बल रहेगा। एक-दूसरे को हिम्मत देने का अवसर रहेगा, बिल्कुल अकेले न पड़ जाओगे।
धृग तन धृग मन धृग जनम, धृग जीवन जगमांहि
दूलन प्रीति लगाय जिन्ह, ओर निबाहीं नाहिं
द्वारे तक सावन तो बरसा. है रोज-रोज,
आंगन का बिरवा पर प्यासा ही सूख गया।
देहरी की मांग भरी,
चूनर को रंग मिला।
अनगाए गीतों को,
सांसों का संग मिला।
चढ़ते से यौवन की उमर बढ़ी रोज-रोज,
चाहों का बचपन पर राहों में छूट गया।
द्वारें तक सावन तो बरसा है रोज-रोज,
आंगन का बिरवा पर प्यासा ही सूख गया।
उपवन की सेज सजी,
सोंधी सी रात हुई।
अंगूरी स्वप्न जगे,
पागल बरसात हुई।
हरियाई शाखों में फूल खिले रोज-रोज,
अंकुर सा सपना पर अनब्याहा टूट गया।
द्वारे तक सावन तो बरसा है रोज-रोज,
आंगन का बिरवा पर प्यासा ही सूख गया।
जितनी अंगारों सी,
अंतर की भूख जली।
उतनी पहचान गयी,
द्वार द्वार गली गली।
भिक्षुक-सी ज्वाला को भीख मिली रोज-रोज,
भिक्षा का पात्र किन्तु रीता ही फूट गया।
द्वारे तक सावन तो बरसा है रोज-रोज,
आंगन का बिरवा पर प्यासा ही सूख गया।
परमात्मा रोज बरस रहा है तुम्हारे प्रेम के बिरवे के लिए, मगर तुम कुछ ऐसे बेहोश हो कि सावन रोज-रोज बरसता है फिर भी तुम्हारे आंगन के बिरवे को जल नहीं मिल पाता।
द्वारे तक सावन तो बरसा है रोज रोज,
आंगन का बिरवा पर प्यासा ही सूख गया।
परमात्मा प्रतिपल बरस रहा है, बरसता ही रहा है। उसकी तरफ से कंजूसी नहीं है, कृपणता नहीं है। उसकी तरफ से रत्ती भर बाधा नहीं है, व्यवधान नहीं है। मगर तुमने कुछ जीवन की ऐसी शैली बना ली है कि उसमें घृणा तो पनप जाती है, वैमनस्य तो पक जाता है,र् ईष्या के, द्वेष के कांटे तो खूब खिल जाते हैं, प्रेम के फूल नहीं खिल पाते। भय और लोभ को छोड़ो तो उसका सावन, उसकी बूंदाबूंदी तुम्हारे बिरवे तक पहुंचने लगे।
ओशो
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