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प्रस्तुति - उषा रानी / राजेंद्र प्रसाद सिन्हा
एक संत रोज अपने शिष्यों को गीता पढ़ाते थे सभी शिष्य इससे खुश थे लेकिन एक शिष्य चिंतित दिखा संत ने उससे इसका कारण पूछा शिष्य ने कहा शिष्य ने कहा गुरुदेव मुझे आप जो कुछ पढ़ाते हैं वह समझ में नहीं आता मैं इसी वजह से चिंतित और दुखी हूं गुरु ने कहा कोयला ढोने वाली टोकरी में जल भरकर ले आओ शिष्य चकित हुआ आखिर टोकरी में कैसे जल भरेगा?
लेकिन गुरु जी ने यह आदेश दिया था इसलिए वह टोकरी में नदी का जल भरने दौड़ पड़ा लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ जल टोकरी से छन कर गिर पड़ा उसने टोकरी में जल भरकर कई बार गुरुजी तक दौड़ लगाई लेकिन टोकरी में जल टिकता ही नहीं था तब वह अपने गुरुदेव के पास गया और बोला गुरुदेव टोकरी में पानी ले आना संभव नहीं कोई फायदा नहीं गुरुजी बोले फायदा है टोकरी में देखो शिष्य ने देखा बार-बार पानी में कोयले की टोकरी डुबोने से स्वच्छ हो गई है उसका कालापन धूल गया है गुरु ने कहा ठीक जैसे कोयले की टोकरी स्वच्छ हो गई है और तुम्हें पता भी नहीं चला उसी तरह सत्संग बार-बार सुनने से ही गुरू की कृपा शुरू हो जाती है भले ही अभी तुम्हारी समझ में नहीं आ रहा है लेकिन तुम सत्संग का लाभ अपने जीवन में जरूर महसूस करोगे और हमेशा गुरु की रहमत तुम पर बनी रहेगी!
इस प्रकार गुरु जी ने अपने शिष्य को कितने ही सरल तरीके से समझा दिया सब शिष्य को समझ में आया कि जब हम कर्म करते हैं तो फल अवश्य मिलता है आज नहीं तो कल मिलता है!
जितना गहरा अधिक हो कुआं उतना मीठा जल मिलता है!
जीवन के हर कठिन प्रशन का जीवन से ही हल मिलता है!
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