Tuesday, November 2, 2010

समझे सरकार

समझे सरकार
(लेखिका पाकिस्तान की वरिष्ठ पत्रकार हैं)  साभार : चौथी दुनिया
सियालकोट में हुई नरसंहार की घटना अपने नागरिकों को सुरक्षा उपलब्ध कराने में पाकिस्तान सरकार की असफलता का सबसे बड़ा उदाहरण है. भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार डालने के वीभत्स दृश्य हमारे टेलीविज़न स्क्रीन से भले दूर हो गए हैं, लेकिन दु:स्वप्न का सिलसिला अभी रुका नहीं है. मामले का मुख्य आरोपी और स्थानीय पुलिस स्टेशन के एसएचओ का अभी तक कोई सुराग़ नहीं मिल पाया है. हैरत की बात तो यह है कि जिस मीडियाकर्मी ने इस घटना को दुनिया के सामने लाया, उसकी कुछ अज्ञात लोगों ने जमकर पिटाई कर दी और उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. भीड़ के इस दुष्कृत्य के बाद निजी टेलीविज़न चैनल के रिपोर्टर हाफिज़ इमरान पर हुआ यह हमला सरकार एवं क़ानून-व्यवस्था बनाए रखने की ज़िम्मेदारी संभाल रहे अधिकारियों के नकारा रवैये और उनकी अक्षमता के बारे में बताता है. इमरान के साथ जो कुछ भी हुआ, वह और भी शर्मनाक है क्योंकि उसने संबंधित अधिकारियों को पहले ही इस बाबत बता दिया था. ख़बर प्रसारित होने के बाद से उसे हत्या की धमकियां मिल रही थी और उसने गुजरावाला एवं सियालकोट के पुलिस अधिकारियों से सुरक्षा की मांग की थी. गृह मंत्री रहमान मलिक ने भी इमरान सहित सियालकोट के सभी पत्रकारों को सुरक्षा उपलब्ध कराने का आदेश दिया था. लाहौर हाई कोर्ट ने पंजाब पुलिस को नोटिस जारी कर इमरान और उसके साथ गए कैमरामैन को सुरक्षा देने का निर्देश दिया था. सरकार ने आश्वासन तो ख़ूब दिया, लेकिन सच्चाई यही है कि सरकारी तंत्र इमरान की सुरक्षा में नाकामयाब रहा. यह बहुत बड़ी विफलता है. सरकार के इस बयान में थोड़ी-बहुत सच्चाई ज़रूर है कि आत्मघाती हमलों का शिकार बन रहे हज़ारों की भीड़ वाले धार्मिक प्रदर्शनों को पूरी तरह चाक-चौबंद सुरक्षा उपलब्ध कराना संभव नहीं है. पूरे देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के पूजा स्थानों को सुरक्षित रखने में भी तमाम समस्याएं हैं. इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि निचले स्तर के पुलिस अधिकारी, जो प्रशिक्षित तक नहीं हैं, भ्रष्टाचार और हिंसा की वारदातों को बढ़ावा देते हैं. लेकिन अन्याय को सतह पर लाने वाले एक अकेले नागरिक को सुरक्षित रखने में सरकार की नाकामयाबी समझ से परे और बेहद शर्मनाक है. इमरान का मीडिया से जुड़ा होना मामले को और भी ज़्यादा गंभीर बनाता है, क्योंकि इससे ऐसे लोग हतोत्साहित होंगे जो अन्याय और भ्रष्टाचार के ख़िला़फअपनी आवाज़ बुलंद करते हैं.
इमरान की सुरक्षा के प्रति अधिकारियों का रवैया यह दर्शाता है कि सरकार राज्य और मीडिया के बीच के रिश्ते को पूरी तरह नहीं समझती है. आतंकी हमलों और बाढ़ जैसी विभीषिकाओं के इस माहौल में जब सरकारी तंत्र पर दबाव बढ़ रहा है, मीडिया ज़मीनी स्तर पर सरकार के लिए आंख और कान के रूप में काम कर सकता है. भ्रष्ट अधिकारियों और अपनी स्वार्थ सिद्धि में लगे राजनीतिज्ञों की मौजूदगी के चलते ऐसा होना ज़रूरी भी है. हाल के दिनों में मीडिया ने जिस ख़ूबी से अपनी भूमिका का निर्वाह किया है, उसकी प्रशंसा किए बग़ैर नहीं रहा जा सकता. सियालकोट की इस वारदात को प्रकाश में लाकर इसने पाकिस्तान में भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा की बढ़ती घटनाओं को उजागर किया तो स्वात में लोगों की ख़राब हालत पर से भी पर्दा उठाया. स्वात से जुड़े वीडियो फुटेज ने तो आतंकवाद के प्रति पाकिस्तान के नज़रिए में बदलाव ला दिया. 2005 में आए भूकंप और इस साल बाढ़ के दौरान मीडिया ने प्रभावित इलाक़ों की पहचान में मदद की, राहतकर्मियों को पीड़ित लोगों तक पहुंचाने में मददगार साबित हुआ और राहत कार्यों में भ्रष्टाचार के मामलों को भी प्रकाश में लाने का काम किया. फिर भी, सरकारी अधिकारी यह नहीं समझते कि मीडिया उनकी ज़िम्मेदारियों के समुचित निर्वहन में कितना कारगर हो सकता है. इमरान पर हुए हमले के बाद केंद्रीय मंत्री फिरदौस आशिक अवां ने उसे सस्ती लोकप्रियता के पीछे भागने वाला घोषित कर दिया. पत्रकारों की आलोचना करने वाली वह अकेली नहीं हैं, सत्ताधारी पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सदस्यों ने कई बार मीडियाकर्मियों को अपने निशाने पर लिया है. कभी उन्हें इजरायल का एजेंट बताया जाता है, कभी निजी टीवी चैनलों के प्रसारण पर रोक लगा दी जाती है तो कभी सेंसरशिप को बढ़ावा देने वाले क़ानून बनाए जाते हैं.
मीडिया और सरकार के बीच के रिश्ते हमेशा अच्छे नहीं हो सकते क्योंकि मीडिया का काम ही है सरकारी कामकाज पर नज़र रखना. लेकिन वह सरकार को लोगों की समस्याओं, उनकी भावनाओं और उनकी मांगों से भी अवगत कराने का काम करता है और यह मौक़ा उपलब्ध कराता है कि सरकार जनभावनाओं के अनुरूप काम करे. पाकिस्तान के साथ समस्या यह है कि सरकार मीडिया का एक पहलू ही देखती है, इस ओर ध्यान नहीं देती कि वह उसकी आंख और कान भी हो सकता है. बहरहाल, सुदूर इलाक़ों से रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को सुरक्षा उपलब्ध कराने में अपनी नाकामयाबी से सरकार अपने लोकतांत्रिक चरित्र पर ख़ुद ही कुल्हाड़ी मार रही है. आख़िर, स्वतंत्र मीडिया सच्चे लोकतंत्र का एक आवश्यक पहलू है, लेकिन जब मीडियाकर्मियों को डराया-धमकाया जाए, उन पर हमले किए जाएं तो यह स्वतंत्रता कैसे सुनिश्चित की जा सकती है. यही वजह है कि रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स प्रेस फ्रीडम इन्डेक्स, 2009 की रिपोर्ट में 175 देशों के बीच पाकिस्तान को 159वां स्थान मिला है. इमरान पर हमले की घटना के बाद पंजाब के क़ानून मंत्री राजा सनाउल्लाह ने जोर देकर कहा कि प्रेस की स्वतंत्रता को प्राथमिकता देनी चाहिए. लेकिन उन्हें शायद यह पता नहीं कि इसका मतलब मीडिया को अधिकारसंपन्न बनाने के साथ-साथ मीडियाकर्मियों सुरक्षा प्रदान करना भी है. अब वह समय आ चुका है कि सरकार पत्रकारों की अहमियत को समझे, उनके काम को तवज्जो दे. इसकी वजह केवल यही नहीं है कि मीडिया सरकार की आंख और कान हो सकता है, बल्कि आम नागरिक भी आज सिटीजन जर्नलिस्ट बनता जा रहा है. लेकिन ऐसा तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक कि पत्रकारिता के प्रति सम्मान की संस्कृति का विकास हो. सरकार यदि ऐसा नहीं करती तो देश की आवाज़ को दबाने का ख़तरा पैदा हो सकता है.

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