Tuesday, November 2, 2010

वीएन राय, ब्लागिंग और मेरी वर्धा यात्रा

वीएन राय, ब्लागिंग और मेरी वर्धा यात्रा

विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार के ठीक बगल में लिखे नाम के साथ तस्वीर खिंचवाता मैं.

वर्धा में भले सिर्फ दो, सवा दो दिन रहा, लेकिन लौटा हूं तो लग रहा है जैसे कई महीने रहकर आया हूं. जैसे, फेफड़े में हिक भर आक्सीजन खींचकर और सारे तनाव उडा़कर आया हूं. आलोक धन्वा के शब्दों में- ''यहां (वर्धा में) आक्सीजन बहुत है''. कई लोगों के हृदय में उतर कर कुछ थाह आया हूं. कुछ समझ-बूझ आया हूं. कइयों के दिमाग में चल रहीं तरंगों को माप आया हूं. दो दिनी ब्लागर सम्मेलन के दौरान विभूति नारायण राय उर्फ वीएन राय उर्फ पूर्व आईपीएस अधिकारी उर्फ शहर में कर्फ्यू समेत कई उपन्यास लिखने वाले साहित्यकार उर्फ महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति, ये सब एक ही हैं, से कई राउंड में, मिल-जान-बतिया आया हूं.
नोकिया का महंगा और ज्यादा मेगापिक्सल वाला नया मोबाइल भी साथ ले गया था, सो इंटरव्यू वीडियो फार्मेट में रिकार्ड करने का प्रयोग भी जमकर कर डाला. कुल पांच वीडियो तैयार किए वीएन राय के इंटरव्यू के. ब्लागर सम्मेलन तो प्रायोजित आयोजित था, विश्वविद्यालय की तरफ से लेकिन वीएन राय के घर में घुसकर खाना खाना और उनके घर के बाहर लान में उन्हें टहलते-टहलाते हुए इंटरव्यू रिकार्ड करना व यह पूछ बैठना कि सुना है, आपको गुस्सा बहुत आता है, बिलकुल अप्रत्याशित व अप्रायोजित था. वीएन राय का गुस्सा भी देखा, हंसते हुए भी देखा-पाया, वीएन राय की आत्म स्वीकारोक्तियां भी सुनीं- ''शीर्ष पर बैठा आदमी बहुत अकेला होता है''. पुलिस की कई दशक तक नौकरी के दौरान अनुशासन को जीने वाला यह शख्स स्वीकार करता है कि इस एकेडमिक जीवन में भी वे अनुशासनप्रिय हैं और इसे पसंद करते हैं.  ''अनुशासनहीनता देखकर कई बार आपे से बाहर हो जाता हूं, लेकिन गलत गुस्से को रीयलाइज भी तुरंत कर लेता हूं और तब माफी मांगने में बिलकुल संकोच नहीं करता.''
ब्लागिंग पर दो दिनी वर्कशाप के समापन सत्र के ठीक बाद सभी ने वीएन राय के साथ एक साथ खड़े होकर ग्रुप फोटो खिंचवाईं.

आलोक धन्वा को देखा मैंने. आलोक धन्वा से बतियाया मैं. खूब बतियाया. इतना बतियाया-गाया कि उनके हाथ मेरे सिर पर और मेरा सिर उनके कंधे पर. मेरे सिर के बालों में चलतीं उनकी उंगलियां मुझे शांत व स्थिर कर देती हैं. बहुत दिनों बाद ऐसा भाव जगा. इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दिनों में जब जन संस्कृति मंच की दस्ता टीम में शामिल था तो कहीं दूर किसी गांव-गिरांव में गाते-बजाते-नाटक करते थक जाते हम सब तो टीम लीडर कामरेड पंकज श्रीवास्तव भी हम जैसों कनिष्ठों के सिर पर हाथ रख अक्सर सहला देते व बालों में उंगलियां चला देते, तब लगता, घर छूटा, मां छूटी, पढ़ाई छूटी, कोई बात नहीं, इतना प्यार तो है यहां, जहां के लिए सब कुछ छोड़ा. अब फिर दुनियादार हूं. दुनियादारी में एक्टिविज्म के सीमित प्रयोगों को जीने की कोशिश कर रहा हूं. ऐसे दौर में आलोक धन्वा के स्पर्श व स्नेह ने जज्बा व ऊर्जा भर दिया.
मेरी दिक्कत है कि मैं किसी से बहुत जल्दी अभिभूत हो जाता हूं और किसी से भी बहुत जल्दी फैल जाता हूं. वर्धा में दोनों हुआ. वीएन राय, आलोक धन्वा, राजकिशोर, अनीता जी, कविता वाचक्नवी समेत कई लोगों के व्यक्तित्व व सोच से अभिभूत हुआ तो ब्लागर सम्मेलन के दो दिनी आयोजन में दोनों दिन फैला, मंच पर अपनी बात रखने के लिए. पहले दिन उदघाटन सत्र में सब कुछ सरकारी सरकारी सा लगा. सम्मेलनों समारोहों आयोजनों का उदघाटन पक्ष ऐसा होता भी है. तब, इसे ब्लागरों व छात्रों के वास्ते जीवंत बनाने और दूसरा पक्ष रखने के लिए मंच पर पहुंचा, दो मिनट का वक्त मांगकर. बोलकर लौटा तो नई पीढ़ी खुश थी. इसका एहसास कार्यक्रम स्थल से बाहर निकलने पर हुआ. दोनों दिन मेरे बोलने के बाद मुझे जो रिस्पांस मिला उससे लगा कि आज के दौर में सच को हिम्मत से सच सच कह देना भी बड़ा भारी काम हो गया है और यह काम कर देने से खासकर युवा लोग प्रसन्न हो जाते हैं.
बात हो रही थी आलोक धन्वा की. आलोक धन्वा के कविता पोस्टर चिपकाते हुआ ग्रेजुएट हुआ और जर्नलिज्म की पढ़ाई पूरी की, उसी तरह जैसे वीएन राय के उपन्यास को पढ़कर इस प्रशासनिक व राजनीतिक सिस्टम के क्रूर चेहरे को जाना उन दिनों जब ग्रेजुएट करते हुए ओशो रजनीश और मार्क्स को पढ़ कर कपार में विचारों की सनसनी व उर्जा से दो चार हो रहा था. आलोक धन्वा की कविताओं से उनका जो चेहरा व कद काठी उन छात्र दिनों में मेरे दिल-दिमाग में तैयार हुआ, वो किसी मुट्ठी बांधे बड़े बाल वाले क्रांतिकारी कामरेड की तस्वीर-सी थी, जिसे इस बार उनसे साक्षात मिलकर मिलान किया तो कुछ निराश हुआ, कुछ खुश हुआ. निराश इसलिए कि अपना प्रिय कवि स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों से दो चार है, वजन काफी कम हो गया है, चलने और बोलने के दौरान थक-से जाते हैं.
खुश इसलिए हुआ कि उनका व्यक्तित्व आज भी किसी को रोमांचित, सम्मोहित और प्रेरित कर दे. बड़े बाल, काला चश्मा, खिचड़ी दाढ़ी, गोरा चेहरा और वाणी में स्नेहपूर्ण ओज. वे जब ब्लागर सम्मेलन के उदघाटन सत्र में बोले तो वे एक मात्र ऐसे वक्ता साबित हुए जिनके बोलने को युवाओं ने हाथों हाथ लिया, उनकी बातों पर हंसे, झूमे, सचेत हुए और समझदारी सीखते हुए लगे. आग की खोज और रेल की शुरुआत से ब्लागिंग व इंटरनेट की खोज को जोड़ने वाले आलोक धन्वा के संबोधन में गद्य कम, पद्य ज्यादा महसूस किया, आलोक धन्वा का भी इंटरव्यू किया. उनकी बातें ऐसी कि वीडिया बनाने से खुद को रोक न सका. कई बार उनकी बातों को काटते हुए फटाफट सवाल पूछा तो इंटरव्यू के बाद वे हंसते हुए बोल पड़े- ''जवाब पूरा हुए बिना सवाल पूछ देता है यह बच्चा, उसकी तरह जैसे आजतक पर वो सीधी बात में जवाब देने वाले को बोलने कम देता है, खुद ज्यादा बोलता-टोकाटाकी करता है.'' ये सारी बातें आफ दी रिकार्ड थीं, लेकिन मेरे लिए तो आफ दी रिकार्ड जो कुछ होता है, वही ज्यादा सच व समझ में आने वाला होता है. आलोक धन्वा बेहद संजीदा, समझदार और स्नेहिल हैं. उन्होंने चार लाइन की कविता उदघाटन सत्र में सुनाई- ''....हर भले आदमी की एक रेल होती है, जो मां के घर की ओर जाती है, सीटी बजाती हुई, धुआं उड़ाती हुई..... '' ओह, क्या बात कह दी. मैंने भी तो घर की ओर जाने वाली रेलें तब तब पकड़ी हैं जब जब मुझे अपनी मां की बहुत याद आई. इन चार लाइनों की कविता में मनुष्यता, ममता व मर्म है.
आलोक धन्वा (टोपी वाले) और पवन दुग्गल (आलोक धन्वा के ठीक बाएं) के साथ तस्वीर खिंचाते विवि के प्राध्यापक और ब्लागर साथी.

'ब्रूनो की बेटियां' और 'भागी हुई लड़कियां' सरीखी कालजयी कविताएं लिखने वाले आलोक धन्वा को पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर और वीपी सिंह किस कदर प्यार करते थे, इसके किस्से भी उनसे सुने. उन्होंने अपनी निजी जिंदगी के दुख-हादसे भी सुनाए. क्यों सुनाए. सिर्फ दो दिनों की मुलाकात. शायद वीरेन डंगवाल और अशोक पांडेय का नाम ले लिया था, इन दोनों से आलोक धन्वा की बात करा दी थी, और वो मान बैठे कि यशवंत अच्छा बच्चा है. लेकिन वो तो ऐसे हैं कि किसी को भी बुरा नहीं कहते. किसी को घृणा लायक नहीं पाते. वे लोगों को इस तरह समझा देते हैं कि कोई उनका बुरा नहीं मानता. इसी कारण लोग उन्हें प्यार से दद्दा कहते हैं. उनके अंदर संवेदना इतनी गहरी है कि कई बार उन्हें सुपर मनुष्य बना देती है. कुर्सी पर बैठे आलोक धन्वा के ठीक पीछे वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर कुर्सी पर टेक लगाकर कुछ बोलते हैं तो आलोक धन्वा हंसते हुए उठ भागते हैं कि इतने नजदीक से मेरे पीछे बोल रहे हैं तो मुझे मेरे कानों में गुदगुदी महसूस हो रही है. आलोक धन्वा का इंटरव्यू रात में भी किया, दिन में भी किया, सोने के लिए जाने से पहले भी किया, सो कर उठने के बाद भी किया. पूरे पांच क्लिप्स हैं, करीब एक घंटे के आसपास की. वीएन राय और आलोक धन्वा के लंबे इंटरव्यू को जल्द ही भड़ास4मीडिया पर अपलोड किया जाएगा. कोशिश है कि वीडियो के साथ इंटरव्यू के टेक्स्ट भी प्रकाशित कर दिए जाएं, इस कारण इंटरव्यू प्रकाशन में थोड़ी देरी संभव है.
वरिष्ठ पत्रकार राजकिशोर और उनके साथ विवि की कुछ छात्राएं जो वर्कशाप में शामिल होने आईं थीं.

राजकिशोर से भी मेरी मुलाकात दिल्ली में नहीं हो सकी. खांटी पत्रकार. लंबे समय से बेबाक और मौलिक चिंतन लेखन करने वाले राजकिशोर भी इन दिनों वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में बच्चों को पढ़ाने के काम में लगे हैं. आलोक धन्वा भी इसी विश्वविद्यालय के हिस्से हैं. इनसे मिलने, बतियाने के बाद लगता है कि ये वीएन राय का ही माद्दा हो सकता है कि वे अपने एकेडमिक मिशन में ऐसे ऐसे लोगों को जोड़ने में कामयाब हो रहे हैं जो वर्तमान समय के लीजेंड हैं. देश में सैकड़ों कालेज, विश्वविद्यालय हैं, लेकिन बहुत कम के ऐसे कुलपति, प्रिंसिपल हैं जो समाज के ऐसे लोगों को अपने साथ जोड़ रहे हैं जिन्होंने समाज को अपने कार्य, लेखन, कविता, विचारों से बहुत कुछ दिया है. वर्धा विश्वविद्यालय में जो कैंपस है, सचमुच वो किसी आध्यात्मिक स्थल की तरह है. पहाड़ सरीखी उठान वाले पांच टीलों से घिरा वर्धा विश्वविद्यालय इन दिनों बेहद खिला खिला और हरा भरा है. न कोई शोर, न कोई अशांति, न कोई ठेला, न कोई दुकान. न किचकिच, न पिचपिच. सिर्फ प्रकृति से साक्षात्कार कराने वाली बनस्पतियां, हवाएं, चिड़ियां और हरियाली है यहां. इतनी तस्वीरें यहां पर खिंचवाई लेकिन मन है कि फिर भी भरा नहीं.
बता रहे थे वहां के लोग कि वीएन राय के दो साल के कार्यकाल में ही यह सब संभव हो पाया है. पिछला दस वर्षों का जो दो कार्यकाल दो कुलपतियों का रहा, उसमें सिर्फ बीहड़ और
वर्कशाप में ब्लागरों के साथ बैठे वीएन राय (बिलकुल बाएं पढ़ते हुए)
बंजर ही था यहां. भवन व सड़कों के नाम पर सिर्फ चार-पांच ढाबे नुमा मकान थे. अब हर तरफ सड़के हैं. हर तरफ विशाल फ्लैट व डिपार्टमेंट हैं. यहां एक ऐतिहासिक पुस्तकालय बन रहा है. ध्यान व योग के लिए एक बड़े डिपार्टमेंट का निर्माण चल रहा है. अगले दो वर्षों में यहां का दृश्य क्या होगा, यह समझा जा सकता है.
मैंने विश्वविद्यालय के ऐसे छात्रों को तलाशना चाहा जिनके मन में विश्वविद्यालय की व्यवस्था को लेकर क्षोभ व आक्रोश भरा हो, लेकिन एक साथी के अलावा, जो ब्लागर वर्कशाप में कुछ देर के लिए आए थे और उनसे संक्षिप्त वार्ता हो सकी थी, कोई और न मिला. जो कुछ लोग कनफुसियाते दिखे, या जिन कुछ लोगों के कनफुसियापन को किन्हीं और से सुना तो लगा कि उनका आक्रोश दुनियादारी वाला है, तेरा फ्लैट बड़ा तो मेरा छोटा क्यों, उन पर इतना खर्च तो मेरे पर कम क्यों. ये मने मन मुनक्का मने मन छुहारा वाली लड़ाई किस घऱ परिवार में नहीं होती है. अगर यहां है तो औरों की जगह से बेहद कम है.
औरों ने, दूसरे विश्वविद्यालयों ने तो सब कुछ प्राक्टोरियल बोर्ड के हवाले कर रखा है, जहां न कोई नए तरीके का रचनात्मक काम होता है और न ही कोई किसी विध्वंसक काम के खिलाफ आवाज उठा पाता है. इसी देश में अलीगढ़ विश्वविद्यालय है जहां एक टीचर को आत्महत्या कर लेने को मजबूर होना पड़ता है. यहीं बनारस का विश्वविद्यालय है जहां न तो अब आंदोलन होते हैं और न बहसों-विवादों का वो सिलसिला रहा. मैं बीएचयू में था तो ढेर सारे छात्रों के साथ कई दिनों तक जेल में रहा. कुलपति के घर में घुसकर धरने पर बैठ गए थे हम लोग और जाने का नाम नहीं ले रहे थे. वो अनुरोध करते रहे, मनाते रहे पर हम लोग नहीं माने. जेल गए तो जेल में बहुत कुछ सीखा. आमरण अनशन के कई घंटे जेल में बीतने के बाद लंका-अस्सी रोड वाले दुकानों के लवंगलत्ता याद आने लगे थे. पर अब वहां कुछ नहीं होता. और होता होगा भी तो उसकी तीव्रता उतनी नहीं होती कि खबर दिल्ली तक पहुंचे.
धनी हैं वे छात्र जो उन जगहों पर अध्ययनरत हैं जहां वाइब्रेशन हैं, जहां आंदोलन करने के मौके हैं, जहां बोलने-बतियाने व प्रयोग करने की आजादी है. जहां निर्माण की प्रक्रिया चल रही है, विवि के भवनों के बनने से लेकर मनुष्य के बनने तक की निर्माण प्रक्रिया. ये अलग बात है कि जाके रही भावना जैसी के हिसाब से हर कोई उतना ही कनसीव कर पाएगा जितना उसके दिमाग की खिड़कियां खुली हों. ब्लागर सम्मेलन से कुछ दिनों पहले ही देश दुनिया के ढेर सारे साहित्यकार जमा हुए वर्धा में और उसकी अनुगूंज उनके जाने के बाद भी हम लोगों को पहुंचने पर सुनाई पड़ी. उस आयोजन की कई बातें, कई बहसों के बारे में वहां के लोगों से सुनने को मिला.
रात के वक्त फुरसत में विवि परिसर में टहलते हुए आलोक धन्वा, वीएन राय और प्रियंकर पालीवाल

ब्लागरों में अनूप शुक्ल फुरसतिया जी, जो हिंदी ब्लागिंग के पुरोधा हैं, ने पूरे माहौल को अपने नेतृत्व में स्नेहिल बनाए रखा. किसी युवा ब्लागर की तरह ब्लागर सम्मेलन की रिपोर्ट व तस्वीरें मौके से ही लिखते व प्रेषित करते रहे. नुक्कड़ वाले अविनाश वाचस्पति के साथ मेरा संयोग इस बार खूब बना. बिना किसी प्लानिंग के हम लोग एक ही ट्रेन में गए और चलती ट्रेन में हम दोनों का मिलन हुआ. आने का टिकट भी एक ही ट्रेन व कोच में था. रास्ते भर खूब बतियाये, गपियाये और एक दूसरे को जाना समझा. कविता वाचक्नवी, जिनका लिखा पढ़ता रहा हूं और जिनके इंग्लैंड का होने के कारण वर्धा का ब्लागर आयोजन अंतरराष्ट्रीय स्तर का हो गया, से आमना-सामना हुआ तो लगा ही नहीं कि हम लोग अपरिचित हैं. मुंबई की अनीता कुमार ने मुझसे रात में कान में कहा कि तुम तो वैसे न हो जैसा मैं सोचती थी. उनकी बातें सुनकर लगा कि उन्हें अपना अभिभावक और अपने मन का डाक्टर बना लेना सबसे अच्छा रहेगा ताकि कभी मुश्किलों में होऊं, तनाव में होऊं तो दो-चार टिप्स लेकर फिर वीर तुम बढ़ो चले टाइप का नारा लगाते हुए जीवन पथ पर चल पड़ूं.
कोलकाता वाले प्रिंयकर पालीवाल जी से मुलाकात इलाहाबाद में वर्धा विश्वविद्यालय की तरफ से हुए प्रथम ब्लागर मीट में हुई थी लेकिन इस बार उनके साथ रहने का ठीकठाक मौका मिला. वीएन राय का इंटरव्यू करने में उनसे मदद ली. उन्होंने कई सवाल उनसे पूछे और मैंने रिकार्ड किया. कविता वाचक्नवी ने आलोक धन्वा का इंटरव्यू रिकार्ड करने में मदद की. उन्होंने आलोक जी से सवाल पूछे और मैंने रिकार्ड किया. रायपुर के संजीत त्रिपाठी, उज्जैन के सुरेश चिपलूनकर, अहमदाबाद के संजय बेंगाणी, इंदौर की गायत्री शर्मा, दिल्ली के हर्षवर्धन त्रिपाठी, राजस्थान की अजित गुप्ता, मेरठ से अशोक मिश्र, दिल्ली से ही शैलेष भारतवासी, लखनऊ के जाकिर अली रजनीश व रवींद्र.... इतनी संख्या (करीब दो दर्जन से ज्यादा) थी कि सभी के नाम याद रख पाना मुमकिन नहीं, पर सभी से मिलकर दूरियां नजदीकियों में बदली. ब्लागर सम्मेलनों की सबसे बड़ी बात यही होती है कि मिलने के बाद सबको लगता है कि यह तो एक कुनबा है, परिवार है, अपन लोगों का, और तभी दिखता है कि सबका आपस में कितना स्नेह है, कितना प्यार है.
समय के पहिया को दुरुस्त करने में जुटे हिंदयुग्म के संपादक और हिंदी ब्लागर शैलेश भारतवासी.
ब्लागिंग में अब एक संजीदा दौर शुरू हो चुका है. हिंदी ब्लागिंग के शुरुआती तू तड़ाक भों भों पों पों के बाद अब ज्यादातर हिंदी ब्लागर बूझ चुके हैं कि तथ्य, तर्क, पारदर्शिता, ईमानदारी और जनपक्षधरता के जरिए ही हम हिंदी ब्लागिंग को ज्यादा ताकत व विश्वसनीयता प्रदान कर सकते हैं. आयोजन में कमियां होती हैं, कुछ साथी संभव है खफा हों, लेकिन सबने इस बात को कुबूल किया कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ने हिंदी ब्लागिंग को लेकर दो बड़े आयोजनों को करके इस माध्यम को ताकत, पहचान और स्वीकृति दिलाई है. हिंदी ब्लागिंग को लेकर जो एक भय हिंदी के नान-ब्लागरों में है, वो दूर करने का तरीका भी ऐसे ही आयोजन बनेंगे जिसमें हिंदी ब्लागरों को बहुत कुछ सीखने को मिलता है. साइबर कानून के विशेषज्ञ पवन दुग्गल ने जो आंख खोलने वाली जानकारियां दीं और रवि रतलामी ने मध्य प्रदेश से ही अपने लाइव प्रजेंटेशन के जरिए ब्लागरों के लिए सुरक्षा के जो हथियार बताए, उसने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया. सबको लगा कि हिंदी ब्लागिंग को लेकर कैजुवल एप्रोच के बजाय एक सीरियस और प्लांड नजरिया डेवलप करना चाहिए ताकि हम ब्लागर अपने बड़े उद्देश्यों को पूरा कर सकें.
पूरे आयोजन को अपनी ऊर्जा,  स्फूर्ति और विशेषज्ञता से अंजाम तक पहुंचाया सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने. उम्मीद करते हैं कि वीएन राय और उनका वर्धा विश्वविद्यालय का परिवार हिंदी ब्लागिंग के विकास के महायज्ञ में जो योगदान दे रहा है, वह यूं ही अपने सहयोग को बनाए रखेगा और हिंदी भाषी जनमानस की आवाज को इस माध्यम से सामने लाने के प्रयास को गति प्रदान करेगा. आयोजन से जुड़ी कुछ तस्वीरें, जिसमें कार्यक्रम स्थल के बाहर-भीतर दोनों की हैं, यहां उपर-नीचे प्रकाशित कर रहा हूं. अन्य ब्लागर साथियों ने आयोजन के बारे में जो कुछ लिखा है, जो तस्वीरें प्रकाशित की हैं, उनका भी लिंक देने की कोशिश कर रहा हूं. अगर कुछ छूट रहा हो तो उसके लिए चाहूंगा कि नीचे कमेंट बाक्स में टिप्पणी करके ध्यान दिलाएं. हां, एक बात रह गई. इस बार ब्लागर सम्मेलन में कई प्रयोग भी हुए. ब्लागरों का ग्रुप बनाकर उन्हें उनकी सहमति से विषय दे दिए गए और प्रत्येक ग्रुप ने अपना निष्कर्ष नतीजा मंच पर जाकर सुनाया.
विवि परिसर की आध्यात्मिकता और हरियाली से अभिभूत मैं कई तस्वीरें खिंचवाने से खुद को रोक न सका.

रात में कवि सम्मेलन का आयोजन भी हुआ जिसमें कई ब्लागरों ने अपनी कविताओं-व्यंग्य को सुनाया. गोलाई में बैठे ब्लागर व कवि जन, बीच में कैंडल लाइट, कागज पर लिखी कविताओं को पढ़ने में मदद देने के लिए टार्च इस हाथ से उस हाथ घूमती रही. धीमी रोशनी में खुले आसमान के नीचे हुए इस कवि सम्मेलन ने कई लोगों को मौका दिया कि वे जो कुछ लिखते-सोचते हैं, उसे बोलें-गुनगुनाएं. वर्धा विश्वविद्यालय से जुड़े अखिलेश और रवि नागर ने अपनी सुरीली आवाज से सबका दिल जीत लिया. दूसरे दिन सुबह-सुबह वर्धा के बगल में महात्मा गांधी फेम सेवाग्राम घूमने का प्रोग्राम हुआ लेकिन मैं देर तक सोने के कारण इस लाभ से वंचित रहा. कह सकता हूं कि वर्धा पहुंचा हर हिंदी ब्लागर अपने जीवन के तनाव कम करके आया है, उदात्तता और समझ की पूंजी साथ लेकर लौटा है.
समझ अनवरत विकसित और अपग्रेड होने वाली प्रक्रिया है जिसे किसी एक आयोजन से चरम पर नहीं पहुंचाया जा सकता है लेकिन एक-एक आयोजन इसे विकसित और अपग्रेड करने में मदद करते हैं. इस मायने में वर्धा विश्वविद्यालय में आयोजित ब्लागिंग वर्कशाप ऐतिहासिक साबित हुआ है. मैं दिल्ली लौटने के बाद यह सब लिखते हुए इस पूरे आयोजन के लिए आयोजकों को धन्यवाद देता हूं और खासकर वीरान व बंजर को हरा-भरा कर वहां के वासी हो चुके वीएन राय, आलोक धन्वा, राजकिशोर, सिद्धार्थ, केके सिंह आदि वरिष्ठों और रुपेश, सुरजीत आदि जैसे साथियों को, इन्हें प्रणाम करता हूं और कहता हूं कि उनसे मिलकर, बतियाकर बहुत कुछ जानने-पाने-गुनने का मौका मिला.
रेल मुझे भले फिर दिल्ली लेकर लौट आई हो लेकिन दिल तो वहीं कहीं छूट गया है, मुंशी प्रेमचंद मार्ग पर टहलता हुआ, गांधी टीला पर कौतुक मुद्रा में दूर-दूर तक निहारता हुआ, फादर कामिल बुल्के अंतरराष्ट्रीय छात्रावास के सामने खड़े होकर दूर आसमान और धरती के मिलने के नजारे को खोपड़ी में संजोता हुआ. उम्मीद करते हैं कि इसी जिंदगी में फिर मिलेंगे, और मिलाने के लिए रेल फिर बिठाकर ले जाएगी, सीटी बजाती हुई, धुआं उड़ाती हुई, हड़हड़ाती हुई, बलखाती हुई, लहराती हुई.....
आलोक धन्वा जी की एक ऐतिहासिक कविता 'भागी हुई लड़कियां' पढ़ाते हुए विदा लेता हूं. इस कविता को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय द्वारा संचालित की जा रही एक जबर्दस्त वेबसाइट हिंदी समय डॉट कॉम से चोरी करके साभार प्रकाशित कर रहा हूं.

भागी हुई लड़कियाँ
एक
घर की ज़ंजीरें
कितना ज़्यादा दिखाई पड़ती हैं
जब घर से कोई लड़की भागती है

क्या उस रात की याद आ रही है
जो पुरानी फिल्मों में बार-बार आती थी
जब भी कोई लड़की घर से भागती थी?
बारिश से घिरे वे पत्थर के लैम्पपोस्ट
सिर्फ़ आँखों की बेचैनी दिखाने-भर उनकी रोशनी?

और वे तमाम गाने रजतपर्दों पर दीवानगी के
आज अपने ही घर में सच निकले !

क्या तुम यह सोचते थे कि
वे गाने सिर्फ़ अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिए
रचे गये थे ?
और वह खतरनाक अभिनय
लैला के ध्वंस का
जो मंच से अटूट उठता हुआ
दर्शकों की निजी ज़िदगियों में फैल जाता था?

दो

तुम तो पढ़कर सुनाओगे नहीं
कभी वह ख़त
जिसे भागने से पहले वह
अपनी मेज़ पर रख गयी
तुम तो छिपाओगे पूरे ज़माने से
उसका संवाद
चुराओगे उसका शीशा, उसका पारा
उसका आबनूस
उसकी सात पालों वाली नाव
लेकिन कैसे चुराओगे
एक भागी हुई लड़की की उम्र
जो अभी काफ़ी बची हो सकती है
उसके दुपट्टे के झुटपुटे में?
उसकी बची-खुची चीज़ों को
जला डालोगे?
उसकी अनुपस्थिति को भी जला डालोगे?
जो गूँज रही है उसकी उपस्थिति से
बहुत अधिक
संतूर की तरह
केश में

तीन

उसे मिटाओगे
एक भागी हुई लड़की को मिटाओगे
उसके ही घर की हवा से
उसे वहाँ से भी मिटाओगे

उसका जो बचपन है तुम्हारे भीतर
वहाँ से भी
मैं जानता हूँ
कुलीनता की हिंसा !

लेकिन उसके भागने की बात
याद से नहीं जायेगी
पुरानी पवन चक्कियों की तरह

वह कोई पहली लड़की नहीं है
जो भागी है
और न वह अंतिम लड़की होगी
अभी और भी लड़के होंगे
और भी लड़कियाँ होंगी
जो भागेंगे मार्च के महीने में

लड़की भागती है
जैसे फूलों में गुम होती हुई
तारों में गुम होती हुई
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई
खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में

चार

अगर एक लड़की भागती है
तो यह हमेशा जरूरी नहीं है
कि कोई लड़का भी भागा होगा

कई दूसरे जीवन प्रसंग हैं
जिनके साथ वह जा सकती है

कुछ भी कर सकती है
सिर्फ़ जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है

तुम्हारे टैंक जैसे बंद और मज़बूत
घर से बाहर
लड़कियाँ काफी बदल चुकी हैं
मैं तुम्हें यह इजाज़त नहीं दूँगा
कि तुम अब
उनकी संभावना की भी तस्करी करो

वह कहीं भी हो सकती है
गिर सकती है
बिखर सकती है
लेकिन वह ख़ुद शामिल होगी सब में
ग़लतियाँ भी ख़ुद ही करेगी
सब कुछ देखेगी
शुरू से अंत तक
अपना अंत भी देखती हुई जायेगी
किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी

पाँच

लड़की भागती है
जैसे सफ़ेद घोड़े पर सवार
लालच और जुए के आर-पार
जर्जर दूल्हों से
कितनी धूल उठती है !

तुम
जो

पत्नियों को अलग रखते हो
वेश्याओं से
और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो
पत्नियों से
कितना आतंकित होते हो
जब स्त्री बेख़ौफ़ भटकती है
ढूँढ़ती हुई अपना व्यक्तित्व
एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों
और प्रेमिकाओं में !

अब तो वह कहीं भी हो सकती है
उन आगामी देशों में भी
जहाँ प्रणय एक काम होगा पूरा का पूरा !

छह

कितनी-कितनी लड़कियाँ
भागती हैं मन ही मन
अपने रतजगे, अपनी डायरी में
सचमुच की भागी लड़कियों से
उनकी आबादी बहुत बड़ी है

क्या तुम्हारे लिए कोई लड़की भागी?

क्या तुम्हारी रातों में
एक भी लाल मोरम वाली सड़क नहीं ?
क्या तुम्हें दांपत्य दे दिया गया ?
क्या तुम उसे उठा लाये

अपनी हैसियत, अपनी ताक़त से ?
तुम उठा लाये एक ही बार में
एक स्त्री की तमाम रातें
जिसके निधन के बाद की भी रातें !

तुम नहीं रोये पृथ्वी पर एक बार भी
किसी स्त्री के सीने से लगकर

सिर्फ़ आज की रात रूक जाओ
तुम से नहीं कहा किसी स्त्री ने

सिर्फ़ आज की रात रुक जाओ
कितनी-कितनी बार कहा कितनी
स्त्रियों ने दुनिया भर में
समुद्र के तमाम दरवाज़ों तक दौड़ती हुई आयीं वे
सिर्फ़ आज की रात रूक जाओ
और दुनिया जब तक रहेगी
सिर्फ़ आज की रात भी रहेगी।

वर्ष 1988 में आलोक धन्वा द्वारा रचित.

इस दौर में भी इस कविता को पढ़ने के बाद आलोक धन्वा को सेल्यूट करने को जी चाहता है. पुराने लोगों ने तो इसे जरूर पढ़ा होगा. लेकिन नई पीढ़ी के बहुत सारे लोग आलोक धन्वा की कविताओं को पढ़ने से वंचित होंगे. उम्मीद है उपरोक्त कविता पढ़कर वे आलोक धन्वा की अन्य कविताओं को भी तलाशेंगे और पढ़ेंगे. मैं तो अब इतना ही कहूंगा कि धन्य है वर्धा विश्वविद्यालय जिसने आलोक धन्वा से मिलने का मौका दिया.
आभार के साथ
यशवंत सिंह
माडरेटर, भड़ास ब्लाग
एडिटर, भड़ास4मीडया
अन्य तस्वीरें व लिंक
गांधी टीला के पास अजीब अंदाज में तस्वीर खिंचाते ब्लागर और पत्रकार हर्षवर्धन त्रिपाठी.

गायत्री शर्मा, सिद्धार्थ और उनकी पत्नी व सबसे आखिर में दाएं अनीता.

विवि परिसर में बने मुंशी प्रेमचंद मार्ग से गुजरते हुए ऐसा महसूस होता है जैसे आप मसूरी पर चढ़ाई की शुरुआत कर रहें हों.

वर्धा ब्लाग वर्कशाप के दौरान ही पोस्ट की गईं त्वरित रिपोर्टों व अन्य तस्वीरों को आप यहां क्लिक कर पढ़ सकते हैं...

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