पैसे नहीं तो आगे चल / रवि अरोड़ा
शहर के सबसे पुराने सनातन धर्म इंटर कालेज में कई साल गुज़ारे । आधी छुट्टी होते ही हम बच्चे मेन गेट की ओर दौड़ पड़ते थे । बाहर खाने पीने के सामान का बाज़ार जो सज़ा होता था । कोई बच्चा गोलगप्पे खाता था तो कोई मटर की चाट । कोई मूँगफली और चने मुरमरे की ठेली को जा घेरता तो कोई इमली-टाटरी वाले के पास पहुँच जाता । वहाँ एक ठेली ऐसी भी खड़ी होती थी जिस पर सबसे कम भीड़ होती थी । वह थी क़ुल्फ़ी वाले की ठेली । हालाँकि उसकी दुकानदारी कम होने का कारण उसकी क़ुल्फ़ी महँगी होना ही था मगर पता नहीं क्यों मुझे उसकी वजह उस ठेली पर लिखा स्लोगन लगता था । उस ठेली पर बड़ा बड़ा लिखा होता था- नगद आज उधार कल-पैसे नहीं तो आगे चल । हाल ही में आन्ध्र प्रदेश के प्रसिद्ध तिरुपति बाला जी मंदिर गया तो वहाँ भक्तों की कई लाइनें लगी देखीं । वीआईपी दर्शन यानि इतने रूपये वाले इधर, साधारण दर्शन यानि इतने रूपये वाले इधर और सामान्य यानि मुफ़्त दर्शन वाले उधर। ज़ाहिर है कि ऐसे में मुफ़्त वालों की लाइन में जबदस्त मारामरी थी और आदमी पर आदमी ही चढ़ रहा था । ये सब तमाशा देख कर क़सम से बचपन का वह क़ुल्फ़ी वाला बहुत याद आया और साथ ही अच्छी तरह समझ आया नगद उधार का अंतर भी ।
वेंकटेश्वर भगवान के दर्शन के लिये हमने तीन सौ रुपये वाली टिकिट यह सोच कर ली थी कि हम वहाँ वीआईपी होंगे मगर वहाँ जाकर पता चला कि हमारी हैसियत मुफ़्त वालों से बस ज़रा सी बेहतर थी । बेहतर भी केवल इतनी की हमें प्रसाद मुफ़्त में मिला वरना मुफ़्त वालों को दो सौ रूपये के एक लड्डू वाला प्रसाद ख़रीदना पड़ा । पता चला कि वीआईपी दर्शन दस हज़ार पाँच सौ रूपये का है और उसमें भक्त को मंदिर के गेस्ट हाउस में मुफ़्त ठहरने और भोजन की सुविधा भी मिलती है । मंदिर परिसर में भगवान के दर्शन ही नहीं हर चीज़ के दाम चुकाने पड़े । यहाँ तक कि प्रसाद रखने के लिये प्लास्टिक की पन्नी भी हमें तीन रूपये की मिली । उस पर तुर्रा यह कि जगह जगह दान राशि डालने के लिये बड़े बड़े थैले यानि हुंडियाँ भी लगी हुई थीं और उनमे दान राशि डालने वालों की भी लम्बी लाइन थी ।
तिरुपति शहर स्थित वेंकटेश्वर भगवान की पत्नी पद्मावती समेत अनेक अन्य मंदिरों में भी जाना हुआ । हर जगह दर्शनों के दाम चुकाने पड़े । यह सब तमाशा देश कर मन बहुत खिन्न हुआ । बचपन से गुरुद्वारों में जाने का अवसर मिलता रहा है अतः जाने-अनजाने मन तुलनात्मक अध्ययन करने लगा । गुरुद्वारे वाले तो प्रसाद ही मुफ़्त नहीं देते अपितु भोजन भी निशुल्क कराते हैं । दर्शन के नाम पर पैसा वसूलने का तो कोई सवाल ही नहीं । यही नहीं बड़े गुरुद्वारे तो अब निशुल्ल मेडिकल जाँच भी कराने लगे हैं । दिल्ली के गुरुद्वारे तो मुफ़्त एमआरआई तक कर रहे हैं ।
देश दुनिया के अनेक धार्मिक स्थल देखने का अवसर मिल चुका है । हिंदू मंदिरों के अतिरिक्त दर्शन की फ़ीस वसूली कहीं नहीं दिखी । हो सकता है कि मंदिरों की देखभाल और साफ़ सफ़ाई को अधिक पैसे की ज़रूरत पड़ती हो मगर फिर भी उसकी कोई सीमा तो होगी । ये अंधेरगर्दी सी क्या मचा रखी है ? देश के तमाम बड़े मंदिरों के पास अरबों रुपयों की दौलत है मगर फिर भी श्रद्धालुओं से दर्शन के नाम पर मोटी रक़म वसूली जाती है । हैरानी की बात यह है कि इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ कोई बोलता ही नहीं । वे लोग भी चुप हैं जो हिंदू धर्म के असली ठेकेदार ख़ुद को कहते हैं । बेशक ये लोग हिंदू धर्म को दूसरे धर्मों से ख़तरा बताएँ मगर असलियत यह है कि हिंदू धर्म को ख़तरा पंडा-पुरोहितवाद और मंदिरों पर क़ाबिज़ उन लोगों से ही है, जिन्होंने धर्म को दुकानदारी ही समझ लिया है । उन्हें शायद इस बात की भी परवाह नहीं कि अपने ग़रीब भक्तों की बेक़द्री से भगवान कितने कुपित होते होंगे । आख़िर वे भगवान हैं कोई क़ुल्फ़ी वाले तो नहीं ।
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