स्वयंकीओर चले / एकांत, मौन और ध्यान—समाधि के तीन चरण। / प्रस्तुति - कृष्ण मेहता
_अपने को अकेला जानो। अकेले आए हो, अकेले जाओगे, अकेले हो। संग—साथ सब झूठ है। संग—साथ सब खेल है। संग—साथ सब मान्यता है, मानी हुई बात है। कोन किसका है? न पत्नी, न पति; न भाई, न बहन, न मित्र। कोन किसका है? अकेले आए, अकेले जाओगे, अकेले हो।_
_इस भाव को गहन कर लेने का नाम एकांत है।_
_मैं अकेला हूं; मैं अकेला हूं —ऐसा श्वास—श्वास मैं रम जाए। मैं अकेला हूं —ऐसा हृदय की धड़कनों में बस_ _जाए। मैं अकेला हूं—यह बात इतनी प्रगाढ़ होकर बैठ जाए कि कभी भूले न, क्षणभर को न भूले। यही संसार से मुक्ति है।_
_यह नहीं कि तुम पत्नी को छोड़कर जाओ। यह जानना कि मैं अकेला हूं। पत्नी है, तो रहे। बेटे हैं, तो रहें। घर है, तो रहे। लेकिन मैं अकेला हूं। भरे घर में तुम अकेले हो जाओ। भरी भीड़ में तुम अकेले हो जाओ। यह सारा संसार चल रहा है और मैं अकेला हूं —यह एकांत की भाव— भंगिमा है।_
_और जब अकेला हूं तो बोलना क्या है! किससे बोलना है? क्या बोलना है? तो एक चुप्पी अपने आप उतरने लगे।_
_और जब चुप ही होने लगे, तो भीतर भी क्या सोचना? आदमी को बोलना होता है, तो सोचता है। बोलना तभी होता है, जब सोचता है कि दूसरे हैं। ये सब जुड़ी हैं बातें। इन सबकी श्रृंखला है।_
_आदमी सोचता है, क्योंकि बोलना है। बोलता है, क्योंकि दूसरों से जुड़ना है। जब दूसरों से जुड़े ही नहीं हैं हम, और जुड़ सकते ही नहीं हैं हम, तो बोलना क्या? फिर सोचना क्या!_
_और ये तीन बातें पूरी हो जाए——एकांत, मौन .और ध्यान—तों फिर जो शेष रह जाती है दशा, समाधि। तब सम हो गए। शून्य प्रगट हुआ!!
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