(लंबे समय के बाद साई कृपा से कुछ लिखने की अन्तर्भूति हुई और मन के उद् गार बाहर आ गये।
मेरी करीबी साई के एक अनन्य भक्त का कहना है कि साई अपने भक्तों से इतना प्यार करते हैं कि वह उनसे दूर नहीं रह पाते, इसलिए वह अपने अनुरागी भक्तों को खुद से कस कर बांध लेते हैं और जीवन पर्यन्त उसकी रक्षा करते हैं। देखा जाए तो साई को समर्पित इस भक्त की बात गलत भी नहीं है।
साई सच्चरित्र में भी उल्लेख है कि साई अपने भक्तों को सैकड़ों मील से अपने पास खींच लाते हैं। सही भी है जितनी जरूरत भक्तों को भगवान की होती है, उतनी ही जरूरत भगवान को भक्तों की होती है। जितनी गहरी भावना के साथ भक्त भगवान की ओर खिंचा चला आता है, उतनी ही गहरी भावना से भगवान भी भक्त की ओर खींचे चले आते हैं। दोनों में समुद्र और लहरों जैसा संबंध होता है।
यही कारण था कि साई को कहना पड़ा था कि " तुम मेरी ओर एक कदम बढ़ाओ, मैं तुम्हारी ओर दस कदम बढ़ा दूंगा।' साई का यह कथन भक्त और भगवान के प्रगाढ़ अंतर्संबंधों की पराकाष्ठा की ही अभिव्यक्ति है। जब भक्ति चरम पर पहुंचती है तो भगवान का स्नेहिल मन और कदम खुद-ब-खुद भक्त की ओर बढ़ जाते हैं। इस तरह के विरल अनुभवों से अनेक साई प्रेमी गुजर चुके हैं और साई कृपा से उन्हें साई की अंतर्भूति होती रहती है।
मेरा मानना है कि साई अपने भक्तों को बांधते नहीं है, खुद भक्तों के प्रेम के अटूट बंधन में बंध जाते हैं। 'तुम मेरी ओर देखो, मैं तुम्हारी ओर देखूंगा।' और ' मैं भक्तों के अधीन हूं ' तथा मेरे भक्त मुझे जैसे, जिस हाल में रखेंगे, मैं वैसे ही रहूंगा। ये तीनों उक्तियां साई के भक्तों के बंधन में बंध जाने का संकेत ही तो है।
वास्तव में शिरडी के साई बाबा ऐसे सद् गुरु हैं जो भक्तों से बंध कर उनकी चेतना में वास करते हैं और अपने भक्तों को अपनी महाचेतना में डुबो देते हैं। वह बाहर दृश्यमान नहीं, अन्दर झलकते हैं। साई स्वराट नहीं, विराट हैं । वह एक साथ महाबीज भी हैं और महाबट भी। साई की परम पावन चेतना में सभी कुछ अभिन्न और अभेद है। वह कहीं बाहर नहीं अंदर ही विद्यमान हैं।
वह देहातीत हैं। उनकी महाचेतना भक्तों के अंदर वास करती है। हम अपने अंदर झांक कर ही उनका दिव्य साक्षात्कार कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए साई पर अटूट विश्वास होना अत्यन्त जरूरी है। यह विश्वास न किसी परीक्षा पर आश्रित होता है, न किसी परिणाम पर। विश्वास सिर्फ विश्वास होता है। यह विश्वास श्रद्धा से उत्पन्न होता है और सबुरी से पुष्ट होता है। ऐसा कहा जाता है कि भक्तों की श्रद्धा ईश्वर तत्व में वृद्धि करती है। श्रद्धा के बिना ईश्वर की प्रतिमा सिर्फ पाषाण होती है। भक्त की भक्ति ही उसमें प्राण डालते हैं।
भक्तों का हित भगवान का दायित्व होता है। साई ने इस दायित्व का निर्वाह अपनी महासमाधि के बाद (सगुण से निर्गुण रूप में परिवर्तित होने के बाद) भी कर रहे हैं। वह अपने निराकार रूप में भी भक्तों से बंधे हैं और 'तुम पुकारो तो मैं दौड़ा चला आऊंगा', या 'मेरी समाधि तुमसे वार्तालाप करेगी और तुम्हारी समस्याओं का समाधान करेगी, का अपना वादा आज भी निभा रहे हैं तथा अपने भक्तों को धन्य कर रहे हैं
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