Monday, June 22, 2020

संसार चक्र प्रेमपत्र रोजाना वाक्यात







परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज -     

 【संसार चक्र】-
कल से आगे-

दूसरा अंक-पहला दृश्य:-

( स्थान कुरूक्षेत्र। राजा दुलारेलाल, रानी इंदुमती और एक नौकर सड़क के किनारे खड़े हैं)  दुलारेलाल -मैं तुमसे कहता था कि तुम से सफर की तकलीफ बर्दाश्त ना होगी?                                                                 

इंदुमती- मुझे कतई तकलीफ नहीं है बल्कि इस सफ़र से मुझे पता चल गया है कि मैं भी लंबा सफर कर सकती हूँ। ( इतने में कुछ पण्डे आते हैं )  एक पंडा- सुखी हो जजमान, भले आये। लाओ असबाब हमको दो। 

दूसरा पंडा- आप कहां से आयें हैं, आपके पिता का क्या नाम है?
तीसरा पण्डा

( गोवर्धन पंडित)-किं गोत्रम्? किं स्थानम्? दुलारेलाल- महाराज हम भूमिगाँव के रहने वाले हैं। तीसरा पण्डा- आगरा के पूर्व न? (इतने में तीनों पण्डे एक हाथ से सामान पर झपटते है और दूसरे हाथ से राजा दुलारेलाल को अपनी अपनी जानिब खींचते हैं।)                               

इंदुमती-(नाराज होकर) तुम मुँह से बात क्यों नही करते ? क्यों सिर पर चढे आते हो?

पहला पंडा-अरे कहाँ की रानी हो जो तीर्थ के पंडो से कडवा बोलती हो?

 दूसरा पंडा- आप हमारे साथ चलिये, आप हमारे जजमान हैं।

तीसरा पंडा- महाराज!  अगर सुख पाना है है तो हमारे साथ चलिए और अगर अपने आप को लुटवाना है तो इन लुटेरों के संग जाइये।

पहला पंडा- लुटेरा तू, तेरा बाप।  दूसरा पंडा-महाराज! अगर जजमान अपने पुरोहितों का पालन ना करेंगे तो पुरोहित के भूखे मर जाएंगे और जजमानों को श्राप लगेगा ।

 तीसरा पंडा- ये पंडे नही है भेडिये है, आप पंडित गरुड़मुख के आश्रम में चलिए। नहाने के लिए अलग कुआँ, रसोई के लिए अलग कमरा और सब प्रकार का सुख है।( इतने में पहले 2 पण्डे एक दूसरे से लड़ने लगते हैं)

इंदुमती -हम आश्रम में चलेंगे( नौकर से मुखातिब होकर हटाओ इन लोगों को)                     

 ( तीसरे पण्डे के हमराह आश्रम की तरफ रवाना होते हैं।)


तीसरा पंडा- महाराज मैं पण्डा नहीं हूं, मैं तो साधारण ब्राह्मण हूँ। हमारे पंडित जी ने यात्रियों को सुख पहुंचाने के निमित्त नया आश्रम खोला है । मैं वहां केवल अन्न वस्त्र के बदले यात्रियों की सेवा करता हूँ। मैं कोई दान भिक्षा लेने वाला नहीं हूँ  और ना हमारे पंडित जी किसी प्रकार का दान लेते हैं। कोठरी, मकान, पानी सब बेदाम दिया जाता है।

 क्रमशः                         


🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**


परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-

 रोजाना वाकिआत- 7 नवंबर 1932-

सोमवार :-पटना में कई दिन से जोर की बारिश हो रही है। प्रबंधक गण नुमाइश परेशान है। आज सुबह चिट्ठी प्राप्त हुई जिसमें सख्त परेशानी का इजहार किया गया है लेकिन शाम को तार आया कि अब बारिश बंद हो गई है। मालिक दया करें तभी काम चलेगा वरना मुश्किलें ही मुश्किलें नजर आती है । सुबह 6:00 बजे दो लारियाँ पटना नुमाइश के लिए सामान से लादकर रवाना की गई।

आज शाम को फतेहपुर और कल शाम को बनारस आराम करके परसों शाम को पटना पहुंचेगी। 10:00 बजे एक मद्रासी सन्यासी से मिलने के लिए आये। आपने लखनऊ से दयालबाग आने के लिए लिखा था।

आपके प्राइवेट सेक्टरी साहब भी साथ थे।  एक घंटा तक बातें हुई। उनका निजाम की रियासत में उस्मानाबाद के करीब 1 आश्रम है जहां 45 ऑनरेरी काम करने वाले रहते हैं । एक स्कूल है जिसमें 200 विद्यार्थी पढ़ते हैं।

गरीबों ,मोहताज वगैरह की सहायता पर बहुत जोर दिया जाता है । मैंने पूछा आप गरीबों मोहताजों की सहायता पर क्यों वक्त खर्च करते हैं ।

अमीरों की जानिब क्यों नहीं करते?  जवाब मिला इसलिए कि गरीब सहायता के ज्यादा अधिकारी है।  मैंने कहा मेरी राय में अमीर ज्यादा अधिकारी हैं।  उन्होंने पूछा कैसे?  मैंने कहा रुपया सैकड़ों बुराइयों की जड़ है  इसलिए जिनके पास रुपया है वह सैकड़ों बुराइयों में ग्रसित है और इसलिए वह लोग महात्माओं की इमदाद के ज्यादा अधिकारी है।

गरीबों को तो पेट भरने ही की फिक्र दबाये रखती है।  उन्होंने जवाब दिया मगर गरीबों को खाना भी तो मिलना चाहिए ? मैंने कहा आप तो सन्यासी हैं आपके पास अपने खाने के लिए भी कौडी नहीं है गरीबों को क्या खिलाएंगे?

  आपसे तो यह उम्मीद की जाती है कि आप रूहानियत के माहिर है और रुहानियत की दात देने के अधिकारी है इसलिए आप रूहानियत का लाभ पहुंचावें और इसके लिए अमीर ज्यादा अधिकारी  है क्योंकि उनको बुराइयों ने दबा रखा है और उनकी रुहानियत बहुत कम हो गई है।

  इस पर वह हँसने लगे। मैंने कहा अछूतों, गरीबों, मोहताजो की फिक्र तो अब सारी दुनिया कर रही है बेचारे अमीरों की भी सुध लें वरना नतीजा होगा कि गरीब गरीब तो बिहिश्त में पहुंच जावेंगे और अमीर को गर्म मुल्क में जाना पड़ेगा।

 इसी तरह और कई विषयों पर बातचीत होती रही। उन्होंने कहा आत्मदर्शन या मन को बस करने के लिए किसी साधन की जरूरत नही है ।

गुरु की सेवा से सब काम निकल सकता है । इंसान को चाहिए कि गुरु की सेवा करें।  वह आप अपनी मदद से उसका मन भी बस में करा देंगे और आत्मदर्शन की योग्यता भी पैदा कर देंगे।  मैंने पूछा गुरु की सेवा से क्या मुराद है?  जवाब मिला कि उनकी आज्ञा अनुसार गरीबों मोहताजों की निस्वार्थ खिदमत करना ।

मैंने कहा इस कार्यवाही से हृदय की सफाई हासिल हो सकती है, मन किसी कदर निर्मल हो सकता है, लेकिन मन का निश्चल होकर आत्मदर्शन प्राप्त होना दूसरी बात है। इस मजमून पर बहुत बहस हुई।
आखिर उन्होंने साधन की जरूरत तस्लीम करते हुए दरयाफ्त किया कि क्या साधन करना चाहिए। मेरा जवाब संक्षिप्त था। यानी यह कि यह सवाल अपने गुरु साहब से पूछना चाहिए। या उनसे इजाजत हासिल करके दूसरे शख्स से पूछना चाहिए । इस जवाब से वह बहुत खुश हुए

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**



*परम गुरच हजूर महाराज


- प्रेम पत्र -भाग 1- कल से आगे :-(17 )

जब यह संत और साध भी गुप्त हो गए और उनके घराने में भी सिर्फ बानी का पाठ और नाम का जबानी सुमिरन रह गया या कोई रस्म और पूजा बाहरमुखी चल गई, और विद्या के ज्यादा फैलने से उनमें से कितने ही बाचक ब्रह्म ज्ञान के तरफ रजू हो गये,और प्राण और मुद्रा के साधन करने वाले और उसके भेदों जुगत के जानने वाले भी बहुत कम रह गये और  रस्मी तौर पर कसरत से जीवो का झुकाव मूरत पूजा और तीरथ व्रत और नेम और आचार की तरफ हो गया , और फिर कोई कोई नये विद्यावान नास्तिकों के समझ पकड़ने लगे , तब कुल मालिक राधास्वामी दयाल आप सतगुरु रूप धारण कर जगत में प्रगट हुए और आसान तौर से सुरत शब्द मार्ग की जुगत, जो धुर मुकाम तक पहुंचाने वाली है और जिसको आज तक किसी संत ने भी साफ तौर पर प्रगट नहीं किया था, सहज और आमतौर पर समझाई कि जिसमें हर कोई मर्द और औरत, विद्यावान्  और अविद्यावान, हिन्दू और मुसलमान और ईसाई और जैन और श्रावक और पारसी और यहूदी यानी किसी कौम या पंथ या देश का आदमी होवे शामिल होकर अपना सच्चा उद्धार आप हासिल कर सकता है और जीते जी अपने मुक्त होने की सूरत किसी कदर (यानी जिस कदर उसका अभ्यास तेज होवे) अपने अंतर में अपनी हालत को परख कर आप जांच कर सकता है।।                     


 ( 18 ) इस मत को राधास्वामी मत या संतमत कहते हैं । और इसकी कार्यवासी इस तौर पर है कि बाहर तो संत सतगुरु या साधगुरु का( जो भाग से मिल जावें) सत्संग और उनकी और उनके सच्चे भक्तों या प्रेमियों की सेवा तन, मन, धन से करना, और अंतर में सुमिरन करना सच्चे नाम का मन से , और सुनना नाम की धुन का चित्त के साथ। और मालूम होवे कि वह धुन घट घट में, यानी हर एक आदमी के अंतर में,  हर वक्त आप ही आप हो रही है उसका भेद विस्तारपूर्वक स्थानों के जहाँ होकर उस धन की धार सच्चे मालिक के चरणो से उतरकर पिंड यानी देह में आई है;संत सतगुरु या साधगुरु या उनके सच्चे अभ्यासी सत्संगी से मिल सकता है और राधास्वामी दयाल की बानी और बचन में भी साफतौर पर लिखा है। पर बिना भेदी अभ्यासी के समझाएं किसी के समझ में नहीं आ सकता है।

क्रमशः 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**



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