**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज -
【संसार चक्र】-
कल से आगे:-
( राजा साहब रुक जाते हैं )
दुलारेलाल- आप फरमाते जायँ, मैं खूब सुन रहा हू।
राजा साहब- मनुष्य को चाहिए कि संसार को अपने मातहत ना समझे। जैसे वह समुंदर के किनारे खड़ा होकर समुद्र का तमाशा देखता है वैसे ही संसार का तमाशा देखें । जब कोई समुंदर की लहर उठ कर हम को भिगो देती है तो हम यह नहीं कहते कि समंदर शरीर व धोखेबाज है बल्कि यह जानकर कि समुंदर में ऐसा हुआ ही करता है इस घटना का आनंद लेते हैं परंतु आइंदा के लिए सावधान हो जाते हैं। संसार के दुखदाई घटनाओं के प्रकट होने पर भी ऐसे ही बरतना चाहिये। जब सुख देने वाली घटनाएं प्रकट हो तो संसार के छिनभंगीपन को ख्याल में रखकर सुख भोगो और जब दूसरों को दुख में देखो तो उनके दुख को सत्य समझो और हमेशा याद रक्खो कि संसार के दुख छिनभंगी होते हुए भी काफी दुखदाई होते हैं और अपने को और दूसरों को दुख से बचाने के लिए मुनासिब यत्न करना हमारा धर्म है। यह है मेरा जवाब श्रीमान जी के प्रश्न का। और यह जो कहते हैं कि मन कोई चीज नहीं है- रूप, रस, गंध आदि की धारे ही सब काम करती है, यह गलत है। हम एक ही समय पर आंख, नाक व जबान से आम का ज्ञान लेते हैं। रूप-गंध-रस- संबंधी धारे दिमाग तक पहुंचती है। इन सब को कौन तरतीब देता है? कौन सबको जोड़कर एक वस्तु यानी आम का ज्ञान बनाता है ? धारे तो आपसे आप यह काम नहीं कर सकती? यह सब काम मन करता है । इसके अलावा जब हम किसी सुंदर जंगल, पहाड़ या तस्वीर को देखते हैं तो धारे तो अपना काम करती है, मगर सौंदर्य का ज्ञान व आनंद किसको होता है? मन ही को तो होता है। पर वह भी इंद्रियों की तरह एक हद के अंदर काम करता है। परमात्मा ने पाँच ज्ञानेंद्रियाँ इंद्रियों और मन व बुद्धि के अलावा मनुष्य को दिव्य चक्षु भी दिए हैं- वे है द्वार परे का ज्ञान लेने के। श्रीमान जी! आध्यात्मिक अनुभव दिव्य चक्षु ही से हो सकता है। जिसको हुआ है इसी से हुआ है और जिसको होगा इसी से होगा।
( दुलारेलाल ,इंदुमती और तुलसी बाबा तीनों सन्नाटे में आ जाते हैं और हाथ जोड़कर राजा साहब का शुक्रिया अदा करते हैं।)
क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
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