Monday, August 31, 2020

 **राधास्वामी!! 31-08-2020

- आज शाम के सतसंग में पढे गये पाठ

                   

  (1) मेरे लगी प्रेम की चोट। बिकल मन अति घबरावे।। कोई कछू कहे समझाय। चित्त में नेक न आवे।।-(पहुँची राधास्वामी धाम। मेहर से सतगुरु केरी।। दरशन राधास्वामी पाय। दया उन छिन छिन हेरी।।) (प्रेमबानी-3-शब्द-14,पृ.सं.353)                                                    

  (2) कहूँ क्या हाल मैं अपना सराहूँ भाग क्या अपने। मनोहर रुप प्यारे ने किया रोशन मेरे घट में।।-( बजुज इसके नहीं मुमकिन यह कहना मेरा तुम मानो। यही है हुक्म राधास्वामी समझ के धार चित अपने।।) (प्रेमबिलास-शब्द-44 ,पृ.सं.55-56)                                                   

 (3) यथार्थ प्रकाश-भाग पहला परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!                          

 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**


**राधास्वामी!!                                        

 31-08 -2020- आज शाम के सतसंग में पढ़ा गया बचन- कल से आगे-(95)

 - यह निर्विवाद है कि जब कोई व्यक्ति अपना कोई विचार लेखबद्ध किया चाहता है तो वह प्रथम उसे अपने मस्तिष्क में स्थिर करता है।  वे वाक्य, जिनके द्वारा कोई विचार लेखबद्ध होता है, ऐसे संकेत है जिन्हे सर्वसाधारण ने मान लिया है और जो सामान्यतः प्रचलित है। अतएव प्रत्येक पुस्तक देखने में कतिपय संकेतों की समष्टग(अनुभव)  होती है परंतु वास्तव में वह ग्रंथकर्ता के भावों की प्रदर्शनी है । इसी आधार पर कहा जाता है कि किसी व्यक्ति के प्रकाशित भावों की अनुभूति प्राप्त कर लेना एक बात है और उन भावों का तात्पर्य ग्रहण कर लेना दूसरी बात। किसी पुस्तक से ग्रंथकर्ता के भावों की अनुभूति वही व्यक्ति प्राप्त कर सकता है जिसके मस्तिष्क में पुस्तकअंकित वाक्यों को पढ़कर ग्रंथकर्ता से समानानुभूति एवं उसके से भाव दोहरानने अर्थात् उत्पन्न करने की योग्यता हो। और इसके लिए यह अनिवार्य है कि उसके मस्तिष्क की भूमि ग्रंथकर्ता के मस्तिष्क की सी स्वच्छ हो।

 अन्यथा ग्रंथकर्ता के मन में एक बात होगी और दूसरी बुद्धि वाला मनुष्य पुस्तक पढ़कर अपने मन में दूसरे ही भाव स्थापित करेगा। उदाहरणार्थ नीचे पंडित विश्वामित्र साहब सभासद आर्यसमाज दौलतपुर की 'राधास्वामी-मत- विचार ' नामक पुस्तक से एक अंश उद्धृत किया जाता है । सुयोग्य ग्रंथकर्ता राधास्वामी- मत पर कटाक्षों की बौछार करते हुए 108 और 109 पृष्ठों पर लिखते हैं- " गुरु ग्रंथ साहब म० 4 में से एक शब्द यह लोग (बेचारे राधास्वामी-मतानुयायी) वेद-निन्दा पर प्रस्तुत करके अर्थ करते हैं , 

यथा:- " संत की महिमा वेद न जानही।

 जेता जानहींं तेता विख्यानहीं।। 

अर्थ-- संतो की महिमा को वेद नहीं जानते । जितना जानते हैं उतना कहते हैं।  समीक्षक -इसी चौथे महला के कई बचन मैं लिख चुका हूँ जिनमें वेदों की भारी प्रशंसा की गई है फिर इस शब्द के अर्थ यह नहीं हो सकते कि गुरु महाराज वेदो की निंदा करते हों।  मैंने इस शब्द के अर्थ इस तरह समझे हैं कि गुरु महाराज अपनी पवित्र बानी द्वारा यह उपदेश देते है। शब्दार्थ -

संत अर्थात् नाममात्र के संत , की अर्थात् क्या,  महिमा अर्थात् प्रताप या महात्मय,वेदन अर्थात् वेदों की, जानहिं अर्थात् जानै। अर्थात् नामधारी संत,भग्वें पोश बेपढे वेद की महिमा क्या जानै। जितना जानते हैं उतना कहते हैं" ।                                          

🙏🏻राधास्वामी🙏🏻     

          

 यथार्थ प्रकाश- भाग पहला - परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!**

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