Thursday, August 6, 2020

परमात्मा एक अनुभव है


आंखें हों तो परमात्मा प्रति क्षण बरस रहा है। आंखें न हों तो पढ़ो कितने ही शास्त्र, जाओ काबा, जाओ काशी, जाओ कैलाश, सब व्यर्थ है। आंख है, तो अभी परमात्मा है..यहीं! हवा की तरंग-तरंग में, पक्षियों की आवाजों में, सूरज की किरणों में, वृक्षों के पत्तों में!

परमात्मा का कोई प्रमाण नहीं है। हो भी नहीं सकता। परमात्मा एक अनुभव है। जिसे हो, उसे हो। किसी दूसरे को समझाना चाहे तो भी समझा न सके। शब्दों में आता नहीं, तर्को में बंधता नहीं। लाख करो उपाय, गाओ कितने ही गीत, छूट-छूट जाता है। फेंको कितने ही जाल, जाल वापस लौट आते हैं। उस पर कोई पकड़ नहीं बैठती। ऐसे सब जगह वही मौजूद है। जाल फेंकने वाले में, जाल में..सब में वही मौजूद है। मगर उसकी यह मौजूदगी इतनी घनी है और इतनी सनातन है, इस मौजूदगी से तुम कभी अलग हुए नहीं, इसलिए इसकी प्रतीति नहीं होती।

जैसे तुम्हारे शरीर में खून दौड़ रहा है, पता ही नहीं चलता! तीन सौ वर्ष पहले तक चिकित्सकों को यह पता ही नहीं था कि खून शरीर में परिभ्रमण करता है। यही ख्याल था कि भरा हुआ है; जैसे कि गगरी में पानी भरा हो। यह तो तीन सौ वर्षो में पता चला कि खून गतिमान है।

हजारों वर्ष तक यह धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है। जो लोग घोषणा करते हैं कि वेदों में सारा विज्ञान है, उनको ख्याल रखना चाहिएः वेदों में पृथ्वी को कहा है..‘अचला’, जो चलती नहीं, हिलती नहीं, डुलती नहीं। क्या खाक विज्ञान रहा होगा! अभी पृथ्वी के अचला होने की धारणा है। अभी यह भी पता नहीं चला है कि पृथ्वी चलती है, प्रतिपल चलती है। दोहरी गति है उसकी। अपनी कील पर घूमती है..पहली गति; और दूसरा..सूर्य के चारों तरफ परिभ्रमण करती है। मगर हम पृथ्वी पर हैं, इसलिए पृथ्वी की गति का पता कैसे चले? हम उसके अंग हैं। हम भी उसके साथ घूम रहे हैं। और भी शेष सब उसके साथ घूम रहा है। तो पता नहीं चलेगा।

जैसे समझो यहां बैठे-बैठे अचानक कोई चमत्कार हो जाए और हम सब छह इंच के हो जाएं, और हमारे साथ वृक्ष भी उसी अनुपात में छोटे हो जाएं, मकान भी उसी अनुपात में छोटा हो जाए, तो किसी को पता ही नहीं चलेगा कि हम छोटे हो गए हैं। क्योंकि पुराना अनुपात कायम रहेगा। तुम्हारे सिर से छप्पर की दूरी उतनी ही रहेगी जितनी पहले थी। तुम्हारा बेटा तुमसे उतना ही छोटा रहेगा जितना पहले था। वृक्ष तुमसे उतने ही ऊंचे रहेंगे जितने पहले थे। अगर सारी चीजें एक साथ छोटी हो जाएं, समान अनुपात में, तो किसी को कभी कानों-कान पता नहीं चलेगा। तुम जिस फुट और इंच से नापते हो, वह भी छोटा जो जाएगा न! वह भी बताएगा कि तुम छः फीट के ही हो, जैसे पहले थे, वैसे ही अब भी हो।

इसलिए चारों तरफ मोती बरस रहे हैं, मगर हमें पता नहीं चल रहा। मोती ही मोती बरस रहे हैं! गुलाल ठीक कहते हैं: ‘झरत दसहुं दिस मोती!’ दसों दिशाओं से झर रहे हैं। अनंत झर रहे हैं। प्रत्येक क्षण बहुमूल्य है और अमृत बरस रहा है। भर लो अपने घट! मगर तुम्हें पता ही नहीं कि अमृत बरस रहा है। तुम तो कंकड़-पत्थर बीन रहे हो। तुम्हें मोतियों का पता कैसे चले, तुम्हारी आंखें तो कंकड़ों-पत्थर पर अटकी हैं। कंकड़ों-पत्थरों से तुम थोड़े छूटो; आंखों को थोड़ा संवारो, निखारो, कानों को थोड़ा शांत करो; मन को थोड़ा निर्विचार करो; तो शायद वह संगीत सुनाई पड़े जो परमात्मा का संगीत है। जिसे संतों ने अनाहत नाद कहा है। तो शायद तुम्हें वह प्रकाश दिखाई पड़े जो अंधेरे में भी छिपा है, जो अंधेरे में भी मौजूद है, क्योंकि अंधेरा भी उसका ही एक रूप है। तो तुम्हें देह में भी उसकी प्रतीति होने लगे जो अदेही है लेकिन देह में ठहरा हुआ है। तब तुम्हें चारों ओर उसकी आभा का मंडल अनुभव हो। तभी तुम इन सूत्रों को समझ पाओगे। तभी तुम्हारे भी प्राण कह सकेंगे: ‘झरत दसहुं दिस मोती‘! और तब कितना आह्लाद, कितना हर्षोन्माद! तब आनंद में रोता है भक्त। तब आनंद में हंसता है, नाचता है। तब आनंद का कोई पारावार नहीं है। और उस पारावार से मुक्त जो आनंद है, उसी का नाम परमात्मा है।

ओशो

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