धर्म न हिन्दू, बौद्ध इसाई, धर्म न मुस्लिम जैन।
धर्म चित्त की शुद्धता, धर्म शांति सुख. चैन ।।
पात - पात के सींचते, बृक्षहिं गयो सुखाय ।
माली सींचे मूल को, फूले फले. अघाय ।।
प्रेमी भाईयों! कोई भी किसी को धर्म नहीं पढ़ाता या सिखाता है। आचरण या अमल सिखाया जाता है, जिसको अपनाकर सूक्ष्म धर्म का अनुभव होता है । अव्यक्त और गुणरहित परमात्मा की प्रकृति या कुदरत की सूक्ष्म शक्तियों का संचालक ही वेदों की इस्तलाह में ऋत् है और उसकी धारणा शक्ति (ताक़त) को जानने से ही धर्म का अनुभव होता है । तथा उसको (धर्म) जाना जाता है। परमात्मा, धर्म, प्रेम तथा सत्य किसी भी किस्म की हदों या दायरों से बाहर की बातें हैं । यह सीमातीत है। अत: इनकी परिभाषा नहीं हो सकती । परिभाषा किसी भी चीज के लिए परिमिति या सीमा है। हद या दायरा है। जो लामहदूद है उसकी क्या परिभाषा होगी ।
हम जब अमल या आचरण करने लगते हैं तब हमारे मन की गांठे धीरे - धीरे खुलने लगती हैं और हम सीमित से असीमित की ओर अर्थात् हद से वेहद की ओर उठने लगते हैं । हमारी लगन लगी रही, साबित क़दमी बनी रही, सब्र साथ देता रहा तो एक दिन हम मंजिल मक़सूद पर पहुंच जी जाते हैं। यहां थोड़ा - सा मुगालता हो सकता है । हम खुद ब खुद पहुंचते नहीं वल्कि पहुंचाये जाते हैं या अपनाये जाते हैं। मक़बूलियत बड़े भाग्यवानों को ही हासिल होती है । इसका सबसे आसान तरीका है रज़ा में राज़ी रहना । इसे ही दूसरे शब्दों में सर्वात्म समर्पण कहते हैं ।
जैसे नौमौलूद बच्चा अपनी माँ के हाथों में होता है । बस माँ की मर्जी होती है, बच्चे की अपनी कोई मर्जी नहीं होती । इसी तरह परमात्मा की शरण में पड़े रहना ही खुद सुपुर्दगी है । तमन्नाओं की जेब जब खाली हो जाती है तो उन्हीं खाली जगहों को वह मालिके कुल यानी परमात्मा अपने हिकमत के मोतियों से भर देता है ।
जेब में रक़म किसी के भी हो , खर्च करने का शऊर सबको नहीं आता । खामोशी तब तक लाज़िम है जब तक शाइस्तग़ी और शऊर न आ जाए।
इन्सान हर वक़्त इस गुमान में जीता है जैसे उसे कभी मौत ही नहीं आनी है । ऐ इन्सान! गफ़लत की नींद क्यों सो रहा है जाग और अपने परलोक को सुधार ले । यहां की कोई वस्तु वहां साथ देने वाली नहीं। केवल तुम्हारा धर्माचरण और खयाल ही तुम्हारे साथ होंगे । इसीलिए खयाल की दुरुस्तगी बहुत जरूरी है ।
ना हरी रीझे धोती छांड़े ना काया के. जारे
ना हरि रीझे जप- तप कीन्हे ना पांचो के मारे
दया धारि. धरम को पाले जग से रहे. उदासी
अपना सा जिव सबका जाने ताहि मिले अविनाशी ।।
ऐ लोगों! अपनी खुदगर्ज़ी में दूसरों को नाहक क्यों दुख पहुंचाते हो? दूसरों का गला काट क्यों पाई - पाई जोड़ने के चक्कर में फंसे हो? सोचो! यहां दूसरा है कौन? सबके दिल में तो वही राम रम रहा है। तुम दूसरों को नहीं वल्कि राम को ही तकलीफ देते हो और पाप के भागी बनते हो । यह धर्म - मजहब के झगड़े और बखेड़े इन में फंस के इन्सान अपनी आकबत खराब कर ले रहा है । तुम किसी का गला काट कर कौन - सा पुन्य कमाओगे? अगर गला तराशी ही नेक काम, धर्म का काम और पुन्य का काम है तो इससे सस्ता सौदा और क्या होगा? हम जाने - अनजाने ही गुनाह के मुर्तक़ब होते जाते हैं।
नफरत करना शैतान का काम है । मुहब्बत का जज़्बा ही इन्सानियत और वहदानियत का जज़्बा है ।
दूसरों के दिलों को राहत और सुकून पहुंचाने से ही वह दयालु परमात्मा राजी होता है । हिन्दू हों या मुसलमान, सिख हों या इसाई, जैन हों या पारसी, बौद्ध! सब आजाद ढंग से अपने - अपने धर्म और अपनी शरीयत का पालन करें यही इन्सानियत है । किसी को किसी से ईज़ा (दुख या तकलीफ) न पहुंचे, यही ख़ौफ़े खुदा है ( परमात्मा से डरना) । जो उस परमात्मा से डरते हुए उसके अदब का पास रखते हैं, उन्हीं से वह परमात्मा राजी रहता है ।
तू तू करता तू भया मुझमे रही न. हूँ
वारी तेरे नाम की जित देखूँ तित तूँ ।।
********
मालिक दयालु दया करे
**********************
अदना गुलाम गुलाब शाह क़ादरी
-------------------------------------
No comments:
Post a Comment