परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-
रोजाना वाकिआत- 19 दिसंबर 1932- सोमवार-
आज सुबह 40 मद्रासियों की पार्टी आई। उनसे मालूम हुआ अंदाजन पान सौ मद्रासी भाई आ रहे हैं। मद्रासियों की वजह से एक बड़ी मुश्किल यह हो जाती है कि उन्हें सत्संग के उपदेश कैसे समझाया जावें। मुसलमान भाइयों ने तो उर्दू अपनी मुल्की जबान बनाकर यह मुश्किल हल कर ली है। लेकिन हिंदू भाई अपनी-अपनी बोलियां बोलते हैं चुनांचे मद्रासी ज्यादातर तेलुगू या तमिल ही समझते हैं इसलिए उनकी सहूलियत के लिए तमाम बातचीत का अनुवाद करवाना पड़ता है।।
कॉरेस्पोंडेंस के वक्त हजारों आदमियों को खाना मुहैया करने की दिक्कत के मुतअल्लिक़ जिक्र छिड गया। एक भाई ने जो चमत्कार व करामात के बहुत प्रेमी है कहा कि राधास्वामी दयाल एक रोटी से हजारों का पेट भर सकते हैं। और इशारा किया कि क्यों न इस तरकीब का इस्तेमाल किया जावे। जवाब में मैंने उषस्ति ऋषि की कथा सुनाई । ओलो की बारिश होने से उस ऋषि के कस्बे में अकाल पड़ा । और निरंतर फाकों से मरणासन्न होकर उसने प्रदेश की राह ली।
बीवी भी साथ थी। चलते चलते महावतो के एक गाँव में पहुँचे (महावत हिंदुओं में नीच जात शुमार होती है)। उष्स्ति भिक्षा मांगने के लिए निकले तो उन्हे एक महावत जौ की खिचड़ी खाता हुआ मिला। यह भूख से व्याकुल थे महावत से कहा- भाई हमें भी कुछ खाने को दो। महावत ने जवाब दिया- सिवाय इस खिचढ़ी के जो खा रहा हूँ मेरे पास कुछ नहीं है। ऋषि ने कहा उसी में से कुछ दे दो । महावत ने थोड़ी सी झूठी खिचड़ी दे दी । ऋषि ने आधी खा ली और आधी अपनी स्त्री के लिये बाँध ली। महावत ने पीने के लिए अपना झूठा पानी पेश किया। ऋषि ने यह कहकर इंकार कर दिया कि यह झूठा है। महावत ने कहा मगर खिचडी भी तो झूठी थी। ऋषि ने कहा प्राणों की रक्षा के लिए मैंने झूठी खिचड़ी मंजूर कर दी इसमें हर्ज नहीं है लेकिन पानी तो बहुत मिल सकता है इसलिए मैं झूठा पानी नहीं पी सकता।
मतलब यह कि संकट पडने पर मामूली नियम तोड़े जा सकते हैं लेकिन साधारण मौकों पर नियम का तोड़ना गुनाह है । इसलिए जबकि हमारे पास काफी रुपया है, अनाज है, आदमी है, हमारे लिये मालिक से मामूली नियम तोड़ने के लिए प्रार्थना करना नाजायज होगा। मुसीबत पड़ने पर या निर्धनता की हालत में ऐसी प्रार्थना करने की इजाजत हो सकती है ।
क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻
परम गुरु हुजूर महाराज -प्रेम पत्र- भाग 1-
कल से आगे-( 5 )
इनमें से जो कोई जीव इत्तेफाक से संतों के सत्संग में आ जाता है और मत का निर्णय सुनकर और भेद समझकर अभ्यास करने पर तैयार होता है, तो उसको पिछले स्वभाव और संसारी करनी के सबब से अपने मन और चित्त को नाम और रूप को शब्द की धुन के साथ जोड़ने में शुरू में किसी कदर दिक्कत पडती है, और बारंबार दुनिया और उसकी भोगों के ख्याल गुनावन रुप होकर अभ्यास के वक्त सताते हैं और भजन और ध्यान का रस जैसा चाहिए नहीं लेने देते ।।
(6) इसके सिवाय जिन लोगों ने की थोड़ी बहुत विद्या पढी है और अनेक तरह के ख्यालात पिछले वक्त के विद्या वालों के उनके मन और बुद्धि में भरे हुए हैं, उनको तरह-तरह के गुनावन विद्या और बुद्धि के वक्त सत्संग और अभ्यास के उठते रहते हैं और संतों के बचन का पूरा पूरा निश्चय नहीं आने देते है। क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
No comments:
Post a Comment