प्रस्तुति - अनिल कुमार चंचल
प्रश्न:मन का नियंत्रण कैसे किया जाय?
उत्तर:मैं कौन हूं-यह अनुसंधान ही उपाय है।'
"Becoming can never transform itself into Being.Becoming, the expansive and enclosing activity of the self,must cease,then there is Being.This Being cannot be thought about, cannot be imagined; the very thought about it is a hindrance....."
आदमी "बनने" और "रहने" में बंटा हुआ है।उसे अपने में खुशी मालूम नहीं होती,अभाव मालूम होता है इसकी पूर्ति हेतु वह स्वप्रक्षेपित जगत पर निर्भर होकर उसकी ओर खिंचता है।यही "बनना" है।"रहने" के लिए वह मजबूर है,नहीं तो जायेगा कहां?
रहने में उसे कमी मालूम होती है जिससे बनने की प्रक्रिया शुरू होती है।यह प्रक्रिया उसकी सारी आपदाओं का मूल है।
क्या रहने की प्रक्रिया में आना असंभव है?असंभव की क्या बात है?यही है जो संभव है और सरलतम भी।
हर आदमी केवल रहे बजाय बनने के।रहने को आत्मनिर्भरता तथा बनने को परनिर्भरता कहा जा सकता है।
एक प्रश्न है क्या बनने को रहने में बदला जा सकता है?
यह संभव नही परंतु मन यही कोशिश करता है।मन जहाँ है वहां श्रेष्ठता का दावा करता है ,वहां अपने आपमें रहकर।
यह व्यक्तित्व है,छबि है,इमेज है।हम अपने आपको हर वक्त कहीं ओर देखते हैं और वहां अपने व्यक्तित्व को आगे करते हैं।
लेकिन स्वयं कहां है?स्वयं अभी यहां है।तो सत्य यही हुआ,आधार यही हुआ फिर आधारित बनने की चेष्टा क्यों?क्योंकि कुछ चाहिए।जो कुछ नहीं चाहता वह आत्मनिर्भर हो सकता है।उसे अपने मन में तबवहां अपने व्यक्तित्व, छबि,इमेज को आगे करने की जरुरत नहीं।
मन के धोखे बहुत हैं।तबवहां अपने व्यक्तित्व को आगे रखने से व्यक्तित्व के सुखदुख, लाभहानि,मान अपमान,जय पराजय का सवाल पैदा होता है।जाहिर है मन उसीकी सुरक्षा,चिंता,कल्पना में लग जाता है।हर वक्त तने,हर क्षण खिंचे।उसे तो भुला ही दिया जाता है जो अभी यहां है।जिसके लिये "रहना" पर्याप्त है।"बनने" के पीछे रहने को भुला दिया जाता है।
स्वाभाविक अवस्था क्या है?
बनना या रहना?
रहना।आदमी दिनभर बनने की प्रक्रिया में रहने से थककर निद्रा में लौट आता है।अपने में रहने चला आता है तब भरपाई होती है।शक्ति, सुख और विश्राम की पूर्ति होती है।यह स्थायी होनी चाहिए पर इसकी जगह जैसे ही सुबह उठे और वापस "बनने",जाने,खिंचने,परनिर्भर होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।चाह तो रहने की होती है जैसे निद्रावस्था में रहे पर यहाँ सुनता कौन है मानो रहना किसी और पर निर्भर हो।सोचने की बात है रहने के लिए निर्भर होने की जरूरत कहां है,बनने के लिए जरूर है।कोई हो तो अहं का प्रदर्शन किया जा सकता है।कोई न हो तो क्या करे?
फिर शांति से बैठे रहना होता है?
नहीं।तब भी मन कहीं ओर होता है-बनने की प्रक्रिया में।उसका टूटना जारी रहता है।
केवल रहने में ही अखंडता संभव है।इसे समझना आसान है और कठिन भी।कठिन इसलिए क्योंकि सुख का एक ही रास्ता मालूम है-बनना, परारुढता,पराधीनता।स्वाधीनता के सुख का तो पता नहीं।उससे भय भी लगता है।अजीब बात है सच्चा सुख भी चाहिए और भय भी लगता है।इसका कारण है सच्चे सुख की परख नहीं, झूठे सुख को ही सुख मान लिया है और इस परनिर्भर सुख,सुरक्षा की प्राप्ति के लिये अहंकार बराबर मानसिक रणनीति बनाता रहता है,सुरक्षा के जाल बुनता रहता है।पता ही नहीं चलता कि "रहने" का अभ्यास उसे पूरी तरह से सकारात्मक बना सकता है।
निरंतर बनते रहने से मन उसीमें ढल जाता है।इससे अनियंत्रित मन को नियंत्रित कैसे किया जाय यह समस्या उत्पन्न होती है।
उपाय बताया आत्मानुसंधान अर्थात मैं कौन हूं यह जानना।यह कुछ नहीं।यह सिर्फ "रहना" मात्र है,"बनने" के विपरीत।यह अपनी ओर लौटना है।बनना हमेशा खुद से दूर ले जाता है।फिर दूर से ही हम अपने आपको देखते हैं।यह पता नहीं कि स्वयं की तरह रहने लग जायें तो न खुद से दूर जाना हो,न दूर से खुद को देखना है।दूर से देखने में स्वयं का विचार होता है कि कैसे इसे सुरक्षित रखा जाय,इसके लिए सुखसुविधा, मानसम्मान की आपूर्ति करायी जाय।यही उसे भिखारी बना देना है।आत्मा की तरह वह सम्राट है,ईश्वर अंश की दृष्टि से वह राजकुमार है फिर यह दशा क्यों?एक ही कारण है-अपने स्वरुप की पहचान नहीं जिससे बनने का आयोजन होता है बजाय रहने के।
किसीने पहचान भी लिया तब भी यह आसान नहीं क्योंकि बनने,जाने,खिंचने,हर वक्त कहीं और होने की आदत पडी है।इससे सहज स्वाभाविक अपनी जगह रहने में बाधा उत्पन्न होती है।
अभ्यास करना पडता है।एक अभ्यास है जो मैने पहले कुछ मित्रों को प्रेषित किया था।यह नवीन नहीं है।जाननेवाले इसे हमेशा से जानते रहे हैं।या तो पता लगा लिया है या किसीने पता बता दिया है पर वह है निरंतर।अभ्यास है-
शांत स्थित हो जायें।सबसे पहले अपनी श्वास पर ध्यान दें दस मिनट।फिर देह के शिथिलीकरण पर ध्यान दें दस मिनट यही कि देह शिथिल होती चली जा रही है।(इसके लिए समर्पण चाहिए जैसे व्यक्ति, सम्मोहनकर्ता को समर्पित होता है।यहाँ यह स्वयं है।)
शिथिलीकरण की प्रक्रिया पूरी होने पर स्वयं से पूछना शुरू करना है-मैं कौन हूं?वही दस मिनट लगातार।केवल यही प्रश्न रहे।इस प्रश्न को अपनी पूरी चेतना पर कब्जा जमाने देना चाहिए।किसी भी तरह की अनिच्छा, अस्वीकार,प्रतिरोध इसमें बाधक है।यही अहंकार है।अहंकार चाहता है सारा आयोजन उसकी निगरानी में हो।वह स्वयं को अलगथलग बनाये रखना चाहता है,सुरक्षित रखना चाहता है।
यह असंभव है।अब भी बनना जारी है।रहने की अवस्था में आने की तैयारी नहीं है।
यह भूल समझ में आगयी और व्यक्ति, स्वयं को समर्पित हो गया बजाय बाहर स्वयं की सुरक्षा खोजते फिरने के तो अगले दस मिनट फिर वह अपने बंधनों, जकडनों को छोड दे सकता है।
दस मिनट मैं कौन हूं लगातार पूछकर अगली प्रक्रिया यही है सब छोड देना।केवल रह जाना।रह जाना शब्द भी छूटना चाहिए अन्यथा अपने में रहने की कोशिश करने वाला बचा रह सकता है।वही है मन,छबि, व्यक्तित्व, अहंकार जो कहें उसका मिटना जरूरी है।कोई कहे हम तो बनाये रखेंगे तो बनाये रखे किसे आपत्ति है?लेकिन फिर अहंकार की अंतहीन यातनाएं भुगतने के लिए तैयार भी रहना चाहिए।भुगत तो सब रहे ही हैं लेकिन तैयार कौन है इसके लिए?अहंकार की यातना किसे प्रिय है?
खुद अहंकार को भी प्रिय नहीं है मगर अहंकार को इसका उपाय मालूम नहीं क्योंकि अहंकार को मिटना पडता है या अहंकार के रुप में हमें मिटना पडता है।
श्वास दर्शन तथा देह शिथिलीकरण की प्रक्रिया से देहाभिमान मिटने लगता है।सहजता प्रकट होने लगती है।
अभ्यास के अंत में सहज,स्वाभाविक रहना मात्र रह जाता है।यह रहना भी अभ्यास दृष्टि से ही है।वस्तुतः "होना" ही होता है जो शाश्वत सत्य है ।सतचित आनंद अभिव्यक्त है।
बनने के या प्रतिस्पर्धा के जमाने में रहने की बात सुन लेना भी बडी बात है।
कोई सूक्ष्म दृष्टि वाला स्वार्थ से ही सही -'रहने' की प्रक्रिया में आने लगे बजाय बनने के,स्वयं से उखडकर परारुढ,परनिर्भर होने के तो उसे उसके परिणाम हासिल होने लगते हैं।
अद्भुत आंतरिक शांति तथा सामर्थ्य का संचार होने लगता है।
महाभारत के मैदान में कृष्ण,अर्जुन को यह शिक्षा दे रहे हैं।अब जो अहंकाररहित अस्तित्व मात्र की तरह रहे वहां शत्रुमित्र,जयपराजय में समता होगी ही।
फिर क्या प्रयोजन है?
यही प्रयोजन है-निष्प्रयोजन होना क्योंकि उसीको सत्य दिखाई देता है,वही यथायोग्य कर्मों को संपादित कर सकता है बिना रागद्वेष के अधीन हुए।चेतनस्वरुप वह स्वतंत्र है।प्रज्ञाशक्ति अपनी संपूर्ण ऊर्जा के साथ सक्रिय होती है।गीता ने इसे कर्माधिकार बताया है-"कर्मण्येवाधिकारस्ते।"
फलाकांक्षी दीनदशा में आ जाता है।
अहंकाररहित होनामात्र, प्रज्ञाशून्य नहीं है इसलिए ऐसे पुरुष सामाजिक दृष्टि से भी कल्याणकारी सिद्ध होते हैं।
प्रेम,प्रज्ञा का ही दूसरा पहलू है।
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