प्रस्तुति - अनिल/ पुतुल
**परम गुरु हजूर महाराज- प्रेम पत्र- कल से आगे :-आदि जहूर कुल मालिक का शब्द है और वही जान की धार है। और जहां धार होगी वहां शब्द भी जरूर होगा और शब्द के बराबर कोई रास्ता दिखाने वाला और अंधेरे में प्रकाश करने वाला नहीं है। इस वास्ते चाहिए कि शब्द को पकड़ कर चढ़े और उसका भेद भेदी से मिल सकता है । रुह यानी सूरत की धार पिंड में पहले दोनों आंखों के मध्य में जो तिल है आकर ठहरी और वहां से सब देह में फैली । चाहिए कि किसी मुकाम से धार को पकड़े। पहले अभ्यास उसके समेटने का करे, जैसे नाम का सुमिरन और स्वरूप का ध्यान, और फिर शब्द का अभ्यास करें, उससे चढ़ाई होगी।। शब्द अंतर में जो हो रहा है वह हर एक स्थान के मालिक के दरबार से आता है । और हर एक स्थान का शब्द जुदा-जुदा है , इसका भेद लेकर चलना चाहिए ।। जैसे बाहर रचना धारों की है, ऐसे ही इस देह में भी कुल कारखाना धारों का है, जिसको नर्वस सिस्टम यानी रगो का मंडल कहते हैं । इन्हीं रगों में होकर रुहानी शक्ति तमाम बदन में फैली हुई है। कुल रचना शब्द कुल रचना में शब्द भरपूर है और सब बदन में काम उसी की धारों से चल रहा है, पर जो शब्द की आसमानी है उसी को पकड़कर चलना और चढ़ना होगा । पहले वक्त में मूलाधार यानी गुदा चक्र से अभ्यासी चलते थे। संत कहते हैं कि बैठक जीव की आंखों के बीच में है , इस वास्ते संतों का रास्ता आंखों के मुकाम से चलता है । संतों ने रचना को तीन बडे दर्जो में तकसीम किया है ।एक निर्मर चेतन देश जहाँ माया का नामोनिशान भी नहीं है। दूसरा निर्मल चेतन और निर्मल माया देश जहाँ कि माया निहायत पाक है और शुद्ध है। तीसरा निर्मल चेतन और मलीन माया के देश में है। जहां की शुद्ध माया है वह ब्रह्य देश है। और निर्मल चेतन देश में चैतन्य चैतन्य है और वही संतो का दयाल देश है। और फिर हर दर्जे में छोटे दर्जे शामिल है । दयाल देश बतौर सिंध अपार और ब्रह्मा उसकी लहर है और जीव बतौर बूंद के है। क्रमशः 🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**
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