प्रस्तुति - संत शरण /रीना शरण अमी शरण
जी हरे कृष्ण 🙏 कर्तृत्व , भोक्तृत्व और निवारण
जीे जैसे जल बिना किसी प्रयोजन के नीचे की और ही बहता है...... क्यूंकि नीचे की और बहना जल की प्रकृति है........... वैसे ही सृष्टि रचना करना ब्रह्म (परम) की प्रकृति है..........
यथा प्रकाशयत्येक: कृत्स्नं लोकमिमं रवि:।
क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत॥
जीवात्मा का वास्तविक स्वरुप ब्रह्म ही है........ ब्रह्म ही सर्वोच्च आत्मा ( सर्व कारण कारणम् ) है........ जो न जन्मता है , न मरता है , शाश्वत और अनादि है।
नजायते म्रियतेवा कदाचिन्नायं भूत्वाभविता वा नभूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयंपुराणो नहन्यतेहन्यमाने शरीरे॥
लेकिन अज्ञानवश जीवात्मा को यह अहम् होता है की वह ब्रम्ह से पृथक अपना अलग अस्तित्व रखता है ( अज्ञान के कारण ) .......... इसी अज्ञान के कारण वह संसार के बंधन में बंधता है.........
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु:।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते॥
आत्मा का यह कर्तत्व और भोगत्व प्रकृति के गुणों के साथ उसके संयोग के कारण उत्पन होता है............
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
यावत्सञ्जायते किञ्चित्सत्त्वं स्थावरजङ्गमम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तद्विद्धि भरतर्षभ॥
आत्मा अकर्ता होते हुए भी माया के ही कारण ( जीवात्मा रूप से ) अहम् भाव से प्रकृति की क्रियाओं में स्वयं को कर्ता मान लेता है........ और विभिन प्रकार के कर्म करने में व्यस्त हो जाता है....... प्रकृति के गुणों का संग ही इसके ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है.........
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥
यद्यपि वह अपने यथार्थ स्वरुप में न वह करता है न भोगता ही है.... केवल दृष्टा है ..........
यथा सर्वगतं सौक्ष्म्यादाकाशं नोपलिप्यते।
सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते॥
किन्तु अहंकार के कारण ( कर्मों पर भाव आरोपित होने पर ) वह उन कर्मो का भोक्ता बन जाता है......
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥
और फिर कर्मों का यह नियम है की ~> जो करता है वह ही फलो को भोगता भी है.
जी तो अब सत्य का साक्षात्कार कैसे हो ? ..... अज्ञान कैसे मिटे ?...... कर्मों से निर्लिप्त कैसे हो ? .....
श्री भगवान कृष्ण कहते है कि ~~> {{ कर्मयोग }}
योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रिय:।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते॥
इन्द्रियाँ को वश में कर लिजिए , अन्त:करण को निर्मल .....सम्पूर्ण भूतात्मा प्राणियों की आत्मा ही अपनी ही आत्मा है एेसा निश्चय करें ......... ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
अहंकृत भाव का बुद्धि में लेप न रहने से उसके कर्तृत्व और भोक्तृत्व—दोनों नष्ट हो जाते हैं .....
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य नलिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति ननिबध्यते॥
शरीर, इन्द्रियों और अन्त:करण से सम्बन्ध-विच्छेद होने के कारण जब जीवात्मा को सम्पूर्ण प्राणियों के साथ अपनी एकता का अनुभव हो जाता है......... तब कर्म करते हुए भी उसमें कर्तापन नहीं रहता....... कर्तापन न रहने से उसके द्वारा होनेवाले कर्म बन्धनकारक नहीं होते ...... भोक्तृत्व से भी मुक्ति मिल जाती है ..... और वो अपनी शुद्धावस्था में स्वरूप में परम में स्थित हो जाता है .............
{{ जी अकिचंन क्षमाप्रार्थी }}
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