Friday, February 28, 2020

सत्यम शिवम सुंदरम।।





प्रस्तुति -  दिनेश कुमार सिन्हा

"शिव तो भारत का आद्य-लोकमनस् का उत्स हैं।
वह आर्य भी है ,अनार्य भी है , वह द्रविड भी है , वह कोलकिरात भी है ।
वह क्या नहीं है ?
वह जितना देवों का है उतना ही असुरों का है ।
शिव मानो भारतीयता की मूर्तिमान व्याख्या हैं ।
इससे बडी एकात्मता कहां मिलेगी ? शिव भारत भावरूप हैं ।
पशुपति है ।वह शिव है और रुद्र भी है ।
तीन लोक बस्ती में बसाये आप बसे वीराने में ।
स्मशानवासी हैं।वह विषपायी हैं।
सबको अमृत बांट कर वह जहर पी जाते हैं।
शिव आदि काल से ही गुरु माने जाते हैं | उनकी चर्चा हो और ताण्डव नृत्य की बात ना हो ऐसा नहीं हो सकता | आम तौर पर तांडव का अर्थ विध्वंस के रूप में ही लिया जाता है | नृत्य की दृष्टि से देखें तो उग्र स्वभाव को दर्शाता हुआ रूद्र तांडव है | वहीँ इसका एक और कोमल रूप, आनंद तांडव कहलाता है | शैव सिद्धांतो के मत में जहाँ शिव को नटराज यानि नृत्य के राजा माना जाता है, वहां तांडव का नाम “तण्डु” नाम से आया हुआ मानते हैं |

मान्यता है कि नाट्य शास्त्र के रचियेता भरत मुनि को #अंगहार और 108 कारणों की शिक्षा तण्डु ने शिव के आदेश पर दी थी | शैव मतों की कई मान्यताएं, नृत्य की मुद्राओं से मिलती जुलती भी हैं | हवाई के कौअई में मौजूद कदवुल मंदिर में नटराज के 108 कारणों की मूर्तियाँ हैं | ठीक ऐसा ही भारत के चिदंबरम मंदिर में भी देखा जा सकता है | वहां भी करीब 12 इंच ऊँची मूर्तियों में सभी 108 #कारणों को दर्शाया गया है | मान्यता ये भी है कि चिदंबरम मंदिर ही वो स्थान है जहाँ नटराज भक्तों के आग्रह पर, पार्वती के साथ, आनंद #तांडव करने आये थे |

भरत के #नाट्यशास्त्र के चौथे अध्याय का नाम “ताण्डव लक्षणम्” है | सभी 32 अंगहार और 108 कारणों की चर्चा इसी अध्याय में है | हाथों और पैरों की विशिष्ट मुद्राओं को कारण कहते हैं | सात या उस से अधिक कारण मिलकर एक अंगराग बनते हैं | कारणों का प्रयोग नृत्य के साथ साथ सम्मुख युद्ध में और द्वन्द युद्ध में भी किया जा सकता है |

ताण्डव पांच मुख्य उर्जाओं की अभिव्यक्ति है | इस से सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह के भावों की अभिव्यक्ति होती है | जहाँ सृष्टि, स्थिति, और संहार विश्व के निर्माण और विध्वंस के द्योतक हैं वहीँ, तिरोभाव और अनुग्रह वो भाव हैं जिनसे जन्म और मृत्यु संचालित होती है |

हिन्दुओं के ग्रन्थ सात मुख्य प्रकार के ताण्डवों का जिक्र करते हैं | आनन्द तांडव, त्रिपुर ताण्डव, संध्या ताण्डव, संहार ताण्डव, कालिका ताण्डव, उमा ताण्डव और गौरी तांडव मुख्य प्रकार हैं | आनंद कुमारस्वामी जैसे कुछ विद्वान सोलह प्रकार के ताण्डवों का जिक्र करते हुए कहते हैं, शिव के कितने तांडवों का उनके भक्तों को पता है इसके बारे में निश्चय करना कठिन है |

शिव के ताण्डव का प्रत्युत्तर पार्वती लास्य से देती हैं | पार्वती के नृत्य को सौम्य, भावपूर्ण और कई मुद्राओं में कामोद्दीपक भी माना जा सकता है | लास्य के दो मुख्य प्रकार, जरित लास्य और यौविक लास्य अभी भी आसानी से देखने को मिलते हैं | #ताण्डव का जिक्र कई धर्म ग्रंथों में भी है | सती के अपने पिता दक्ष के यज्ञ कुण्ड में कूद जाने पर शिव संताप और क्रोध में रूद्र ताण्डव करते हैं | शिवप्रदोषस्तोत्र के अनुसार जब शिव संध्या ताण्डव करते हैं तो ब्रह्मा, विष्णु, सरस्वती, लक्ष्मी, और इंद्र आदि देवता वाद्य यंत्र बजा रहे होते हैं |

ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ शिव के तांडव का ही जिक्र आता हो | भगवान् गणेश भी कई मूर्तियों में अष्टभुज, ताण्डव मुद्राओं में दिखते हैं | भागवत पुराण में जब कृष्ण कालिया नाग का दमन करते हैं तो वो उसके फन पर ताण्डव कर रहे होते हैं | ज्यादातर कालिया दमन की पेंटिग और मूर्तियों में आपने यही ताण्डव मुद्रा देखि होगी | यहाँ तक की जैन मान्यताओं में माना जाता है कि इन्द्र ने भी ऋषभ देव के जन्म पर ख़ुशी दर्शाने के लिए ताण्डव नृत्य किया था | स्कन्द पुराण में भी ताण्डव का जिक्र आता है |

शिव के ताण्डव पर आनंद कुमारस्वामी ने एक विस्तृत किताब The Dance of Shiva: Fourteen Indian Essays, के एक अध्याय  "The Dance of Shiva" में विस्तार से लिखा है |

#महाशिवरात्रि भगवान् शिव के ताण्डव और उसके विभिन्न रूपों को याद करने के लिए भी मनाया जाता है |

भगवान् शिव के द्वादश (12) ज्योतिर्लिंगों के बारे में आपने कभी न कभी सुना ही होगा | इनमें प्रभु रामेश्वरम् की स्थापना श्री राम ने रामसेतु बनाने से पहले की थी | जब महावीर हनुमान ने उनके द्वारा दिए गए शिव लिंग के इस नाम का मतलब पूछा तो भगवान् राम ने शिव जी के नवीन स्थापित ज्योतिर्लिंग के स्वयं द्वारा दिए इस नाम की व्याख्या में कहा-
रामस्य ईश्वर: स: रामेश्वर: ||
मतलब जो श्री राम के ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं।

बाद में जब रामसेतु बनने की कहानी भगवान् शिव,  माता सती को सुनाने लगे तो बोले के प्रभु श्री राम ने बड़ी चतुराई से रामेश्वरम नाम की व्याख्या ही बदल दी | माता सती के ऐसा कैसे, पूछने पर देवाधिदेव महादेव ने रामेश्वरम नाम की व्याख्या करते हुए, उच्चारण में थोड़ा सा फ़र्क बताया-
रामा: ईश्वरो: य: रामेश्वर: ||
यानि श्री राम जिसके ईश्वर हैं वही रामेश्वर हैं।

जिस सनातन धर्म के आराध्य भी एक दूसरे का सम्मान करते है, उस हिन्दू समाज के सभी धर्मानुरागियों को #महाशिवरात्रि की शुभकामनायें |
ॐ नमः शिवाय ||

शिव नटराज भी कहे जाते हैं। कहते हैं कि एक बार शिव नृत्य करने लगे तो साथ ही पार्वती भी नृत्य में उनका साथ देने लगीं। समस्या ये हुई की हर ताल पर पार्वती का नृत्य बेहतर होता और शिव हार जाते !

शिव के नृत्य का नाम ज्यादातर लोगों को पता ही है। देवाधिदेव का नृत्य जहाँ तांडवकहलाता है, वहीँ उसका प्रतिरूप जैसा पार्वती का नृत्य लास्य कहा जाता है। देवी के रुकने तक शिव जीत नहीं पाए थे।

अगर कभी, कहीं, किसी जगह, किसी के बोलना बंद ना करने के कारण आप नहीं जीत पाते तो ज्यादा अफ़सोस मत कीजिये। #महाशिवरात्रि ये भी याद दिला देती है कि वामांगी के रुकने से पहले तक, अर्धनारीश्वर भी नहीं जीत पाए थे।

ये कहानी शिव पुराण में आती है और शायद जालंधर नाम के असुर की है। ध्यान रहे, असुर बताया गया है राक्षस नहीं था, कम से कम इस कहानी तक तो नहीं। शक्ति-सामर्थ्य में अक्सर असुर देवों यानि सुरों से ऊपर ही होते थे। असुर ने भी थोड़े ही समय में इन्द्रासन कब्ज़ा लिया और जैसा कि आसुरी प्रवृत्ति होती है वैसे ही उसने भी सोचा कि अब मैं सबसे महान हूँ, तो सभी सबसे अच्छी चीज़ों पर मेरा अधिकार है।

इसी मद में असुर पहुंचा कैलाश पर और शिव के साथ पार्वती को देखकर कहा, सबसे सुन्दर स्त्री पर मेरा अधिकार है, तो लाओ इसे मेरे हवाले करो ! आम तौर पर कहा जाता है कि भगवान कभी आपका नुकसान नहीं करते। वो सिर्फ आपकी मति भ्रष्ट कर देते हैं, फिर आप अपने शत्रु स्वयं हैं, भगवान को आपका नुकसान करने की जरूरत नहीं। भगवान शिव ने भी असुर के साथ यही किया।

असुर की भूख को पलटा कर उसपर छोड़ दिया ! भगवान शिव से प्रकट हुई वो प्रचंड क्षुधा रास्ते की सभी चीज़ों को निगलती असुर की ओर बढ़ी तो उसने पहले तो इस शक्ति का अपनी शक्तियों से प्रतिकार करने का प्रयास किया। लेकिन उन सभी प्रतिरोधों को निगलता वो जब असुर को लीलने को हुआ तो बेचारा असुर भागा। यहाँ-वहां कहीं शरण नहीं पाने पर बेचारा असुर अपनी मूर्खता पर पछताता आखिर भगवान शिव की ही शरण में पहुंचा और लगा प्राणों की भीख मांगने।

भगवान शिव ने जैसे ही उसे क्षमा करके सबकुछ निगलते पीछे ही आ रही शक्ति को रुकने कहा तो वो दैवी शक्ति बोली भगवान एक तो मुझे इसे ही खाने के लिए ऐसी भूख बना कर पैदा किया ! अब आप मेरा आहार ही छीन रहे हैं ? मैं अब खाऊंगा क्या ? भगवान ने एक क्षण सोचा और कहा, ऐसा करो स्वयं को ही खा जाओ ! आदेश पाते ही उसने पूँछ की ओर से खुद को खाना शुरू किया और अंत में केवल उसका मुख ही बचा। अक्सर हिन्दुओं के मंदिरों के द्वार पर यही मुख दिखता है।

भगवान शिव ने आदेश पालन के लिए स्वयं को खा लेने की उसकी क्षमता के लिए उसके मुख को ‘कीर्तिमुख’ नाम दिया था। उसे देवताओं से भी ऊपर स्थान मिला था।

कहानियां केवल प्रतीक होती हैं और ये कहानी भी खुद को ‘मैं’ को खा जाने की कहानी है। प्रतीक के माध्यम से ये वही कहा गया है जो काफी बाद के दोहे में ‘जो घर बारे आपना, सो चले हमारे साथ’ में कहा गया है। अपने अहंकार को खा जाने का ये आदेश कई बार कई ग्रंथों में कई साधू देते रहे हैं। ये अहंकार का आभाव सबसे आसानी से छोटे बच्चों में दिखेगा, इसी लिए बच्चों के रूप को शिव के पर्यायवाची की तरह भी इस्तेमाल किया जाना दिख जाएगा। दिगंबर, भोले जैसे नाम इसी लिए इस्तेमाल होते हैं।

इसी बच्चों वाले तरीके का इस्तेमाल कई जाने माने विद्वान अभी हाल में #SanskritAppreciationHour में करते हुए भी दिखे हैं। वो लोग पञ्च-चामर छन्द
में रचित शिवताण्डवस्तोत्र सीखने-सिखाने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे थे। जैसे बच्चे किसी चीज़ को पहचाने, समझने के लिए उसे उल्टा पलटा कर तोड़ कर खोल कर देखने लगते हैं बिलकुल वही इसपर भी इस्तेमाल किया गया था। चर्चा अंग्रेजी में थी तो उनके तरीके को हमने सिर्फ हिंदी में कर देने की कोशिश की है। अगर पञ्च-चामर छन्द फ़ौरन याद ना आये तो बचपन में पढ़ी कविता याद कर लीजिये :

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती।
स्वयंप्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती।
अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो।
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो।
~ जय शंकर प्रसाद
ये चार चरणों का वर्णिका छन्द होता है।

अब शिव ताण्डव का पहला श्लोक:
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम्।।१।।

‘जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले’ से स्थले का मतलब स्थान, जगह होगा, ‘जल-प्रवाह-पावित’ का अर्थ पवित्र जल का बहना, प्रवाह होगा (शुद्ध, स्वच्छ और पवित्र तीनों अलग अर्थ के शब्द हैं ध्यान रखिये)। ‘जटा-अटवी-गलत्’ यानि जटाओं के वन से बहती हुई, घनी जटाओं की तुलना वन से की गई जो कि अंग्रेजी के simily जैसा अलंकार है। अटवी का सही अर्थ विहार करने योग्य स्थान होता है, जो अट् धातु से बना है, इसी अट् से पर्यटन बनता है जिसका मतलब घूमने देखने के उद्देश्य से कहीं जाना होता है।

यहाँ ‘गलत्’ सन्धि में जल से मिलकर ‘गलज्’ हो जाता है। ये वर्तमान कृदन्त है जो वर्तमान काल में चल रही क्रिया का बोध कराता है। ‘गले ऽवलम्ब्य’ यानि गले से लटकता हुआ, ‘भुजङ्ग-तुङ्ग-मालिकाम्’ भव्य साँपों की माला, और ‘लम्बिताम्’ एक विशेषण है जो माला के लिए इस्तेमाल किया गया है, जैसे हमलोग अभी भी किसी काम के अटके पड़े होने के लिए लटका हुआ या लम्बित कहते हैं। अगले वाक्य में फिर पीछे से ‘अयम्’ यानि ये ‘डमरु’ जो ‘निनादवत्’ अपनी ध्वनि यानि ‘डमड् डमड् डमड् डमड्’ से पहचाना जा रहा है।

अब यहीं ‘निनादवत्’ के अंत में ‘वत्’ आ रहा है लेकिन सन्धि होते ही वो ‘न्निनादवड्डमर्वयं’ हो जाता है। ये बिलकुल वैसा ही है जैसे भागवत गीता एक साथ जोड़ते ही भगवद्गीता हो जाती है, ‘त’ का ‘द’ जैसा हो जाना। अब इसमें जितना एक श्लोक के साथ सिखाया गया है उतने के लिए हमें पांच-छह बार तो किताबें पलटनी ही पड़ेंगी, लेकिन अच्छी चीज़ ये है कि किसी भी समय में अगर आप कुछ सीखना चाहते हैं तो सीख लेना आसान ही है। पहला कदम होता है अहंकार को खा जाना। मैं नहीं जानता ये स्वीकारना मुश्किल काम है, लेकिन नामुमकिन बिलकुल नहीं है।

अंतिम वाक्य के ‘चकार’ का अर्थ वो कर चुके जैसा होगा, क्या किया वो खुद देखने की कोशिश कीजिये। बाकी शिवरात्रि शिव से जुड़ने के लिए योगियों को प्रिय रही है, अपनी उन्नति के साथ-साथ आप ज्ञान को एक पीढ़ी आगे भी बढ़ा रहे होंगे। अगर आप एक स्तोत्र भी सीखते हैं तो ये संयोग भी उत्पन्न होगा। प्रयास कीजिये !
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित

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