प्रस्तुति - आभा श्रीवास्तव /
दीपा शरण
सुख का अर्थ केवल कुछ पा लेना नहीं अपितु जो है उसमे संतोष कर लेना भी है।
जीवन में सुख तब ही नहीं आता जब हम ज्यादा पा लेते हैं, बल्कि तब भी आता है जब ज्यादा पाने का भाव हमारे भीतर से चला जाता है।
सोने के महल में भी आदमी दुखी हो सकता है , यदि पाने की इच्छा समाप्त नहीं हुई हो और झोपड़ी में भी आदमी परम सुखी हो सकता है यदि ज्यादा पाने की लालसा मिट गई हो तो।
असंतोषी को तो कितना भी मिल जाये वह हमेशा अतृप्त ही रहेगा। सुख बाहर की नहीं, भीतर की संपदा है। यह संपदा धन से नहीं धैर्य से प्राप्त होती है, हमारा सुख इस बात पर निर्भर नहीं करता कि हम कितने धनवान हैं, अपितु इस बात पर निर्भर करता है कि कितने धैर्यवान हैं, सुख और प्रसन्नता आपकी सोच पर निर्भर करती है।
" जाना है , तो जीना है। "
" सप्रेम राधास्वामी "
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