लॉकडाउन डायरी/राजेन्द्र शर्मा
किस्सा पचपन साल पहले का है. टाइम्स समूह के साहू शांति प्रसाद जैन और रमा जैन का सपना कि टाइम और न्यूज़वीक के स्तर की हिंदी में भारतीय कलेवर की साप्ताहिक समाचार पत्रिका का प्रकाशन किया जाए. इस सपने को मूर्तरुप दिया था सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने. इससे पहले अज्ञेय बर्कले विश्विद्यालय में विज़िटिंग प्रोफ़ेसर की हैसियत से अमेरिका में थे. जिन्हें बातचीत की एक लंबी प्रक्रिया और उनकी शर्तें मानने के बाद दिनमान में बतौर संपादक लाया गया था. वर्ष 1965 में दिनमान का प्रकाशन शुरू हुआ.
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के लिये यह प्रतिष्ठा का प्रश्न था कि टाइम और न्यूजवीक के स्तर से दिनमान का स्तर निम्न न हो. इसके लिए अज्ञेय उस दौर के दिग्गज मनोहर श्याम जोशी, श्रीकांत वर्मा,जवाहर लाल कौल,सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को दिनमान में ले आये और आगे खोज जारी थी.
लोकसभा के अध्यक्ष सरदार हुकम सिंह के यहां अज्ञेय का आना जाना था. वही उनकी मुलाकात लोकसभा सचिवालय में बतौर हिंदी टाइपिस्ट की नौकरी कर रहे तीस बरस के त्रिलोक दीप से हुई.
अज्ञेय की अनुभवी और पारखी दृष्टि ने त्रिलोक दीप के भीतर बैठे पत्रकार को पहचान लिया था. उन्होंने त्रिलोक दीप को प्रेरित किया. अज्ञेय जैसे विद्वान की छत्रछाया पाने का अवसर त्रिलोक छोड़ना नहीं चाहते थे. लोकसभा सचिवालय की सरकारी नौकरी को छोड़कर त्रिलोक दीप एक जनवरी 1966 को दिनमान की संपादकीय टीम में शामिल हो गए और 1966 से 1989 तक दिनमान के संपादकीय विभाग में विभिन्न पदों पर तथा 1989 से 1995 तक संडे मेल साप्ताहिक के कार्यकारी संपादक तक रहे.
अपने जीवन के तीस साल तक राष्ट्रीय पत्रकारिता में सक्रिय रहने वाले चौरासी बरस के त्रिलोक इन दिनों गाजियाबाद में कौशम्बी में रह रहे है. त्रिलोक दीप पत्रकारिता से भले ही सेवानिवृत्त हो गए हैं परन्तु आज भी खूब पढ़ते हैं.
इन दिनों विष्णु नागर द्वारा कवि, संपादक रघुवीर सहाय की लिखी गयी जीवनी " असहमति में उठा एक हाथ " पढ़ रहे है. इस पुस्तक को पढ़ना उनके लिये अपनी स्मृतियों में लौटने जैसा है. ज्ञातव्य है कि रघुवीर सहाय के चौदह वर्षों तक दिनमान के संपादक रहने की काल अवधि में त्रिलोक दीप उनकी टीम के अहम सदस्य रहे.
कम्प्यूटर सीख नहीं पाए , इसका कोई मलाल भी नहीं है पर किसी के मोहताज रहना भी उनकी फ़ितरत में नहीं है. कौशम्बी ग़ाज़ियाबाद स्थित अपने घर के अध्ययन कक्ष में उनकी टेबल पर हिंदी और अंग्रेज़ी, दोनों टाइपराइटर मौजूद है जिस पर वह आज भी इतनी कुशलता से टाईप करते है जितनी कुशलता से पचास बरस पहले दिनमान के दस दरियागंज स्थित कार्यालय में अपनी रिपोर्टों को टाइप किया करते थे. जो मिला वह भी सही,जो नहीं मिला, वह भी सही को जीवन का सूत्र वाक्य मानने वाले त्रिलोकदीप को जिंदगी से कोई गिला नही, कोई शिकवा नही.
अपने जीवन के तीस साल राष्ट्रीय पत्रकारिता के क्षितिज पर रहे त्रिलोक के शुरुआती तीस साल कडे संघर्ष के रहे. ग्यारह अगस्त उन्नीसो पैंतीस में अविभाजित भारत की तहसील फालिया,ज़िला गुजरात ( अब पाकिस्तान ) में कारोबारी अमर नाथ के घर में जन्मे त्रिलोक दीप ने ग्यारह बरस की उम्र में देश विभाजन का दंश झेला.
बतौर शरणार्थी बस्ती जनपद में रहने के बाद वर्ष 1949 में रायपुर में डेरा जमाया. तीन वर्ष बाद ही पिता का साया सर से उठने के बाद रायपुर के वन संरक्षण विभाग में नौकरी की. उधर वर्ष 1956 में लोकसभा सचिवालय में हिंदी टाइपिस्ट की वैकेंसी निकली. त्रिलोक दीप ने एप्लाई किया और बतौर हिंदी टाइपिस्ट उनका चयन हो गया. इस तरह अंतिम रूप से ज़िंदगी का पड़ाव दिल्ली साबित हुआ.
दिनमान के चौबीस सालों की बेशुमार यादें त्रिलोक दीप के ज़ेहन में आज भी जगमगाती हैं. वह बताते हैं कि दिनमान के प्रति अज्ञेय के दिमाग में एक शिशु की भांति ममत्व का भाव था, जिसके चलते वह दिनमान को एक बेहतर समाचार विचार की पत्रिका के रूप में प्रतिष्ठित कर एक इतिहास रचना चाहते थे. उस दौर में पत्र पत्रिकाओं के पास आज जैसी तकनीक नहीं थी, कम्प्यूटर नहीं था, गूगल नहीं था , मोबाईल , बढ़िया कैमरे नहीं थे. हैंड कम्पोजिंग का जमाना था किंतु तमाम दुश्वारियों को ठेंगा दिखाते हुए संपादक अज्ञेय एक एक स्टोरी को स्वयं देखते थे , यह उनका पैशन था.
रिपोर्टर स्टोरी तैयार करता और स्टोरी संपादक के कक्ष में भेजी जाती. संपादक अज्ञेय स्टोरी पढ़ रहे हैं और बाहर बैठे रिपोर्टर की सांसें रूकी हैं कि उसकी स्टोरी में कितनी काट पीट अज्ञेय जी करते है. जिस स्टोरी में जितनी कम काट पीट होती , उससे पांच गुना खुशी रिपोर्टर को होती. वह स्वयं ही अपनी पीठ आज के दौर के इस जुमले से ठोंकता कि पप्पू पास हो गया.
ऐसा भी नहीं था कि अज्ञेय जी शाबाशी न दें. पीले रंग के काग़ज़ पर लिखने के शौक़ीन अज्ञेय जी ऐसे जीवन्त संपादक थे कि अधीनस्थो की प्रशंसा मुक्त कंठ से करते और यदि कोई उनकी प्रशंसा करें तो बस मुस्करा दिया करते.
दिनमान से अज्ञेय का लगाव इस कदर था कि वह क्राइम की रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर से कला और संगीत समारोह की और कला और संगीत की रिपोर्टिंग करने वाले रिपोर्टर से रक्षा और विदेशी मामलों की रिपोर्टिंग करा लिये करते. इसमें अधीनस्थो के लिये यह संदेश छिपा था कि कोई इस ग़लतफ़हमी को अपने दिमाग़ में न पालें कि उसके बग़ैर कोई काम रूक जाएगा. यह थी उनकी प्रशासनिक क्षमता.
अज्ञेय के प्रति अपनी श्रद्धा का इज़हार करते हुए त्रिलोक दीप बताते कि अज्ञेय के मस्तिष्क में हर समय, हर पल कुछ न कुछ रचनात्मकता विराजती रहती. अपनी ही खींचीं गई लकीर से बड़ी लकीर खींचने की ज़िद्द उनकी धुन थी. ग़जब यह कि उनके शांत,सौम्य और मुस्कुराते मुख से कोई जान ही नहीं पाता कि भीतर क्रियेविटी का ज्वार भाटा किस वेग से उफान मार रहा है, इस उफान को मूर्तरूप देना है.इसके लिये चाहे जो करना पड़े,करेगें,यह खुद से संकल्प था संपादक अज्ञेय का । वह बताते हैं कि गोवा के आज़ाद होने पर आल इंडिया कांग्रेस कमेटी ने गोवा में महा सम्मेलन कराया.
संपादक के नाते वह किसी रिपोर्टर को भेज सकते थे पर नहीं , इस सम्मेलन को उन्होनें बतौर रिपोर्टर कवर किया और ग़ज़ब की रिपोर्टिंग की ,जिसे पढ़कर फणीश्वर नाथ रेणु ने अचम्भित होते हुए कहा कि ''भाई , आप बड़े साहित्यकार हो, चित्रकार हो , फ़ोटोग्राफ़र हो, कवि हो , विचारक हो यह तो जानता था परंतु इतने ग़ज़ब के रिपोर्टर भी हो, यह अब जान पाया हूं.''अज्ञेय शांत , सिर्फ़ मंद मंद मुस्करा दिए.
ऐसे संपादक के निर्देशन में काम करने के मिले अवसर को त्रिलोक अपने जीवन की थाती मान खुश होते हैं. वह बताते हैं कि एक बार अज्ञेय ने उन्हें दो तीन प्वाइंट बताते हुए राजस्थान के उस समय के मुख्यमंत्री मोहन लाल सुखाडिया का इंटरव्यू करने के लिए कहा. प्रतिबंध यह रखा कि इंटरव्यू एक पेज में ही होना चाहिए.
बहरहाल इंटरव्यू किया गया ,एक एक शब्द से नक़्क़ाशी करते हुए इस तरहा ड्राफ़्ट किया कि एक पेज में ही आ जाएं. टाईप कर संपादक अज्ञेय की टेबुल पर भेज बाहर बैठ गए. सांसें रूकी थीं, प्यास लगी थी पर पानी पीने की इजाज़त मन की यह दुविधा नहीं दे रही थी कि पता नहीं संपादक जी कितना पोस्टमार्टम करेंगे. थोड़ी देर बाद संपादक की स्वीकृति सहित इंटरव्यू की प्रति बाहर भेजी गई. जिसमें मात्र एक शब्द को सही किया गया था. मन बाग बाग हो गया ,बिना पानी पिए ही गला संतोष से तर हो गया. यह थी उस दौर के संपादक और रिपोर्टर की प्रतिबद्धता.
1965 में प्रारंभ हुआ दिनमान अज्ञेय के संपादन में 1969 तक आते आते एक समाचार विचार की पत्रिका के रूप में स्थापित हो चुका था. 1969 में अज्ञेय ने दिनमान से विदा ली और अशेष बड़ी लकीर खींचने विदेश चले गए. उस समय नवभारत टाइम्स के विशेष संवाददाता के पद पर काम कर रहे कवि रघुवीर सहाय को दिनमान के संपादक का कार्यभार सौंपा गया.
उधर हिंदुस्तान टाइम्स समूह की पत्रिका साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक रामानन्द दोषी का निधन हो गया. मनोहर श्याम जोशी दिनमान छोड़ साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक हो गए. त्रिलोक दीप बताते हैं कि सहाय भी अपने पूर्वाधिकारी की तरह तटस्थ रिपोर्टिंग के पैरोकार, अंतर बस इतना कि रघुवीर सहाय समाजवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध.
इसके अलावा एक बात यह भी कि कवि के साथ साथ उनका फ़ील्ड रिपोर्टिंग का अनुभव गहन था. वह चाहते थे कि मंगलवार को दिनमान का जो अंक आयें ,उसमें राष्ट्रीय , अंतराष्ट्रीय व प्रादेशिक स्तर की कम से कम रविवार तक हुई घटनाओं की रिपोर्टिंग ज़रूर होनी चाहिए. चौदह साल तक रघुवीर सहाय दिनमान के संपादक रहे और दिनमान को उस मुक़ाम तक ले गए कि सातवें दशक के अनेकों आई.ए.एस /आई.पी.एस ऐसे मिल जाएंगे जो आज भी स्वीकार करते हैं कि करेंट अफ़ेयर की तैयारी उस समय उन्होंने दिनमान से ही की थी.
किसी साप्ताहिक पत्रिका को शिखर पर ले जाने का काम आसान नहीं था. दिनमान को दिनमान बनाने में संपादक के साथ साथ संपादकीय टीम के सदस्यों के सरोकार , उन सरोकारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता, हर समय कुछ नया करने की कोशिश और इस कोशिश को धरातल पर उतारने का जज़्बे की बड़ी भूमिका थी.
इस टीम में राम सेवक श्रीवास्तव जो कवि थे किंतु प्रादेशिक खबरो पर उनकी खासी पकड़ थी. राजनैतिक मामलों पर जवाहर लाल कौल जैसी राजनैतिक समझ विरले पत्रकारों की हुआ करती है. योगराज थानी खेल कूद की दुनिया में बेताज बादशाह माने जाते थे और उनके कॉलम को उनके प्रशंसक उसी चाव से पढ़ते थे जैसे सर्वेश्वर जी के चरचे और चरखे को. नारी जगत और दुनिया भर की कॉलम पर शुक्ला रुद्र की पैनी दृष्टि की भी काफी चर्चा हुआ करती थी.
हैदराबाद से कल्पना की संपादकी के दौरान ही प्रयाग शुक्ल कला मर्मज्ञ के रूप में स्थापित हो चुके थे , जो दिनमान के शुरुआत से टीम के महत्वपूर्ण सदस्य थे. प्रयाग शुक्ल को न केवल पेंटर्स अपितु आर्ट गैलरियों के संचालक, आयोजक बहुत सम्मान देते.
त्रिलोक दीप अपनी स्मृतियों को टटोलते हुए बताते हैं कि उस समय प्रयाग जी के साथ नाटकों को देखने , कला गैलरी में पैंटर्स द्वारा पेंटिंग करने और विदेशी दूतावासों की पार्टियों का लुत्फ़ उनके भाग्य में रहा है. रघुवीर सहाय के समय में कवि, चित्रकार विनोद भारद्वाज और नेत्र सिंह रावत के दिनमान में आने पर यह तिकड़ी बन गयी, जिनकी कला संस्कृति , अंतराष्ट्रीय सिनेमा पर ग़ज़ब की पकड़ थी.
अठारह साल की उम्र में लखनऊ में ''आरंभ'' पत्रिका का प्रकाशन कर विनोद भारद्वाज ने इतिहास रच दिया था. प्रयाग जी की तरह ही विनोद भारद्वाज की भी कला व साहित्यिक जगत में गहरी पैठ थी. आधुनिक विचार के कॉलम पर उनका एकाधिकार था. त्रिलोकदीप बताते हैं कि वह पढ़ाकू तबियत के गंभीर व्यक्ति हैं लेकिन मुझ से तभी खुलते थे जब मैं उनसे पंजाबी में बात करता था.
मैं जानता था कि वह पंजाबी ब्राह्मण हैं. फिल्मों पर भी विनोद भारदवाज की अच्छी पकड़ थी और फिल्म फेस्टिवल वह और नेत्रसिंह रावत कवर किया करते थे. रावत के दूरदर्शन चले जाने के बाद विनोद भारदवाज इस काम को पूरी तरह से अंजाम देने लगे. इस सिलसिले में रूस के पिट्सबर्ग भी गए थे और अपनी अलग पहचान स्थापित की.
विदेशी सिनेमा पर जब वह वहां के फिल्म निर्देशकों से घंटो बात करते तो वह चकित हो जाते. जब रघुवीर सहाय ने दिनमान की संपादकी संभाली तो वह अनुपम मिश्र को लाना चाहते थे लेकिन अनुपम जी उन्हें सुझाव दिया कि उनकी राजनीति में कोई रुचि नहीं बेहतर हो आप बनवारी जी को राज़ी कर लें.
कभी अनुपम मिश्र और बनवारी मिलकर दिनमान के लिए लिखा करते थे. बनवारी तब तक दिनमान में रहे जब तक रघुवीर जी रहे. उन्होंने दिनमान के लिए कई खोजपूर्ण और एक्सक्लूसिव संवाद लिखे थे जिनकी खूब चर्चा हुआ करती थी.
दिनमान के मालिकों से एक सैद्धांतिक विवाद के कारण 1983 में रघुवीर सहाय को दिनमान की संपादकी से हटाकर नवभारत टाईम्स की संडे मैगजीन का प्रभारी बनाया जिसकी परिणति रघुवीर सहाय के टाइम्स समूह से इस्तीफ़े के रूप में हुई.
दिनमान की संपादकी कवि , लेखक कन्हैया लाल नंदन को सौंपी गई. दिनमान जैसी समाचार पत्रिका का बेहतर संपादन नंदन के लिए दुरूह कार्य था. वह भी ऐसे हालात में जब पंजाब में आंतकवाद सर चढ़ रहा था. जवाहर लाल कौल , महेश्वर दयालु गंगवार. त्रिलोक दीप जैसे लोग जो दिनमान की पुरानी टीम के सदस्य थे ही के अलावा आलोक मेहता ,उदय प्रकाश ,संतोष तिवारी ,धीरेंद्र अस्थाना, जसविंदर को टीम में लाया गया.
पंजाब के आंतकवाद को कवर करने का सारा ज़िम्मा त्रिलोक दीप को इस गरज से सौंपा गया कि सिख हैं , आंतक के भयावह माहौल में अपने आप को सुरक्षित रखते हुए जितने भीतर तक जाकर त्रिलोक दीप कवर कर सकते हैं दूसरा कोई नहीं कर पाएगा. त्रिलोक दीप के लिए अनुभवी होने के बावजूद चुनौती थी जिसे त्रिलोक दीप ने शानदार ढंग से निभाया भी.
दिनमान के उस दौर के अंकों में पंजाब की रिपोर्टिंग एक ऐतिहासिक महत्व रखती है. उन दिनों त्रिलोक दीप सूत्रों से ज़रा सा भी सुराग मिलने पर संपादक को बिना बताये पंजाब चले ज़ाया करते थे , इसकी छूट नंदन जी ने ही उन्हें दी हुई थी. अमृतसर में संत हरचंद सिंह लोंगोवाल और संत जनरैल सिंह भिंडरावाले और लंदन के पास रेंडिग में जगजीत सिंह चौहान का इंटरव्यू दिनमान में विशेष प्रचार के साथ छपे थे, जो त्रिलोक दीप ने ही किये थे. पंजाब के आंतकवाद की रिपोर्टिंग करने के क्रम में त्रिलोक दीप को जान की परवाह किये बिना रिपोर्टिंग करने का लगभग नशा सा हो गया था.
यह उनकी दीवानगी ही थी कि 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी की हत्या होने पर दिल्ली पुलिस हैड क्वार्टर तथा तीनमूर्ति भवन , जहां श्रीमती का पार्थिव शरीर रखा गया था, वहां पहुंचने वाले वह एक मात्र सिख पत्रकार थे. एक नवम्बर को भी सुबह ही त्रिलोक रिपोर्टिंग के लिए निकल पड़े. दिन में जब वह तीनमूर्ति भवन पहुँचें तो अमिताभ बच्चन, राजीव गांधी के एक दम क़रीब खड़े थे. उस समय तक माहौल ख़राब हो चुका था.