Tuesday, April 28, 2020

परम गुरू हुजूर साहबजी महाराज के उपदेश




सतसंग के उपदेश
भाग-2

(परम गुरु हुज़ूर साहबजी महाराज)
बचन (57)

दुनिया के रूप रंग के धोखे से बचो।

       
  इन्सान की आदत है कि किसी नई चीज़ के प्राप्त होने पर अव्वल उसे आज़माता है और मुफ़ीद साबित होने पर उसको बारहा इस्तेमाल करता है और कुछ अर्से बाद उसके मुतअल्लिक़ नई ईजादें करके नये इस्तेमाल निकालता है। मसलन् इन्सान ने शुरू में गाय से दूध हासिल किया और रफ़्ता रफ़्ता दूध से दही बनाना, मक्खन निकालना, पनीर व मिठाइयाँ तैयार करना और घी निकालना शुरू किया। जब किसी चीज़ के क़िस्म क़िस्म के इस्तेमाल निकल आते हैं तो क़ुदरतन् उस चीज़ की दुनिया में माँग बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है और माँग ज़्यादा और पहुँच कम होने पर चीज़ की क़ीमत में बहुत बढ़ती हो जाती है। ऐसे मौक़े पर इन्सान क़ीमत सस्ती करने के लिये उस चीज़ में तरह तरह की मिलावटें करने लगता है या कम क़ीमत वाली नक़लें तैयार करके नफ़ा कमाता है नतीजा यह होता है कि कुछ अर्से बाद मिलावटी व नक़ली चीज़ों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर होने लगता है और बजाय उस नफ़े के, जिसका असल चीज़ से तअल्लुक़ था, तरह तरह के नुक़सान ज़ाहिर होते हैं और हज़ारों लाखों इन्सान धोखा खाकर बजाय नफ़े के नुक़सान उठाते हैं। वाज़ह हो कि इन्सान ने परमार्थ के सिल्सिले में भी इसी क़िस्म की मिलावटें करके सच्चे परमार्थ का मटियामेल कर दिया है जिसकी वजह से लाखों करोड़ों इन्सान परमार्थ में श्रद्धा रखते हुए और अपनी जानिब से परमार्थ के लिये हाथ पाँव मारते हुए न सिर्फ़ परमार्थ के असली फ़ायदे से महरूम हैं बल्कि निहायत परेशान और परागन्दादिल हैं और लुत्फ़ यह है कि आला दर्जे की क़ाबिलियत व समझ बूझ वाले असहाब तक इन ग़लतियों व कमज़ोरियों के कारण ख़ुद अपना और अपने श्रद्धालुओं का भारी नुक़सान कर रहे हैं। चुनाँचे इस ज़माने में बाज़ भाई यह प्रचार करते सुनाई देते हैं कि न कहीं स्वर्ग है, न बहिश्त, सच्चा सुख इसी पृथ्वी पर हासिल हो सकता है बशर्ते कि इन्सान अपनी आँखें खोल कर संसार में विचरे और पुराने ज़माने के ख़्यालात साध सन्त की तलाश,साधन व भजन बन्दगी वगै़रह की बाबत छोड़कर दुनिया के सामान के अन्दर अपने प्रीतम व उपास्य की तलाश करे। उनका बयान है कि जिनके आँख है वे सूरज की चमक, फूल की रंगत मुलाहिज़ा करने या परिन्दों की चहचहाहट और बादलों की गड़गड़ाहट के सुनने ही से मोहित हो जाते हैं और उस अवस्था में जो आनन्द और प्रीतम से नज़दीकी उनको हासिल होती है उसका लुत्फ़ वही लोग जानते हैं।

 चुनाँचे कवि सम्राट रवीन्द्रनाथ टैगोर साहब एक जगह फ़र्माते हैं -

“छोड़ो इस भजन गाने, कीर्तन करने और माला फेरने को। किवाड़ बन्द करके  मन्दिर के  इस  अन्धकारमय  एकान्त  में  किसकी पूजा  कर  रहे  हो ?  तुम आँखें खोलो और उनसे देखो - क्या तुम्हारा भगवन्त तुम्हारे सामने मौजूद नहीं है?”

 इसी तरह इंगलिस्तान का मशहूर कवि वर्डज़्वर्थ कहता है -
“मौसमे बहार में जंगल का नज़ारा (दृश्य) देखने से तुमको  इन्सान  और  नेकी  व बदी की निस्बत ज़्यादा सबक़ मिल सकता है बनिस्बत इसके कि दुनिया के सबके सब महात्मा दे सकें।”
राधास्वामी

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