प्रस्तुति - कृष्ण मेहता
*//रात्रि कथा//*
लालची आलसी की दुनिया
एक गाँव में तोराली नाम की लड़की रहती थी। गोरा रंग, माथे पर लाल बिंदिया व हाथों में चाँदी की चूडियाँ खनकाती तोराली सबको प्रिय थी। बिहुतली रंगमंच पर उसका नृत्य देखकर लोग दाँतों तले उँगली दबा लेते।
एक दिन उसके पिता के पास अनंत आया। वह उसी गाँव में रहता था। उसने तोराली के पिता से कहा, 'मैं आपकी लड़की से विवाह करना चाहता हूँ।'
अनंत के पास धन-दौलत की कमी न थी। तोराली के पिता ने तुरंत हामी भर दी।
सुबाग धान (मंगल धान) कूटा जाने लगा। तोराली, अनंत की पत्नी बन गई। कुछ समय तो सुखपूर्वक बीता किंतु धीरे-धीरे अनंत को व्यवसाय में घाटा होने लगा। देखते ही देखते अनंत के घर में गरीबी छा गई।
तोराली को भी रोजी-रोटी की तलाश में घर से बाहर निकलना पड़ता था।
इस बीच उसने पाँच बेटों को जन्म दिया। एक दिन पेड़ के नीचे दबने से अनंत की आँखें जाती रहीं।
तोराली को पाँचों बेटों से बहुत उम्मीद थी। वह दिन-रात मेहनत-मजदूरी करती। गाँववालों के धान कूटती ताकि सबका पेट भर सके।
तोराली भगवान से प्रार्थना करती कि उसके बेटे योग्य बनें किंतु पाँचों बेटे बहुत अधिक आलसी थे।
उन्हें केवल अपना पेट भरना आता था। माता-पिता के कष्टों से उनका कोई लेना-देना नहीं था।
तोराली ने मंदिर में ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे एक मेहनती व समझदार पुत्र पैदा हो। परंतु उसने बालक की जगह एक साँप को जन्म दिया।
जन्म लेते ही साँप जंगल में चला गया। तोराली अपनी फूटी किस्मत पर रोती रही।
तोराली के पाँचों बेटे उसे ताना देते-
'तुम माँ हो या नागिन, एक साँप को जन्म दिया।'
अनंत के समझाने पर भी लड़कों के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आया।
कोई-कोई दिन ऐसा भी आता जब घर में खाने को कुछ न होता।
पाँचों बेटे तो माँग-मूँगकर खा आते। फुकन और तोराली अपने छठे साँप बेटे को याद करके रोते।
एक रात तोराली को सपने में वही साँप दिखाई दिया। उसने कहा, 'माँ, मेरी पूँछ सोने की है। मैं रोज घर आऊँगा। तुम मेरी पूँछ से एक इंच हिस्सा काट लिया करना। सोने को बेचकर घर का खर्च आराम से चलेगा।'
तोराली ने मुँह पर हाथ रखकर कहा, 'ना बेटा, अगर मैं तुम्हारी पूँछ काटूँगी तो तुम्हें पीड़ा होगी।'
“नहीं माँ, मुझे कोई दर्द नहीं होगा।' साँप ने आश्वासन दिया और लौट गया।
वही सपना तोराली को सात रातों तक आता रहा।
आठवें दिन सचमुच साँप आ पहुँचा। तोराली ने कमरा भीतर से बंद कर लिया। डरते-डरते उसने चाकू से पूँछ पर वार किया। सचमुच उसके हाथ में सोने का टुकड़ा आ गया। साँप की पूँछ पर कोई घाव भी नहीं हुआ। माँ से दूध भरा कटोरा पीकर साँप लौट गया।
तोराली ने वह सोना बेचा और घर का जरूरी सामान ले आई। शाम को खाने में पीठा व लड्डू देखकर लड़के चौंके। तोराली ने झूठ बोल दिया कि उनके नाना ने पैसा दिया था।
इसी तरह साँप आता रहा और तोराली घर चलाती रही। उसका झूठ ज्यादा दिन चल नहीं सका। बेटों ने जोर डाला तो तोराली को पैसों का राज बताना ही पड़ा। बड़ा लड़का दुत्कारते हुए बोला, 'मूर्ख माँ, यदि हमारे साँप-भाई की पूरी पूँछ सोने की है तो ज्यादा सोना क्यों नहीं काटती?'
छोटा बोला, 'हाँ, इस तरह तो हम कभी अमीर नहीं होंगे। रोज थोड़े-थोड़े सोने से तो घरखर्च ही पूरा पड़ता है।'
तोराली और फुकन चुपचाप बेटों की बातें सुनते रहे। बेटों ने माँ पर दबाव डाला कि वह कम-से-कम तीन इंच सोना अवश्य काटे ताकि बचा हुआ सोना उनके काम आ सके।
तोराली के मना करने पर उन्होंने उसकी जमकर पिटाई की। बेचारा अंधा अनंत चिल्लाता ही रहा। रोते-रोते तोराली ने मान लिया कि वह अगली बार ज्यादा सोना काटेगी। अगले दिन साँप बेटे ने दरवाजे पर हमेशा की तरह आवाज लगाई-
दरवाजा खोलो, मैं हूँ आया
तुम्हारे लिए सोना हूँ लाया
क्या तुमने खाना, भरपेट खाया?
सदा की तरह तोराली ने भीतर से ही उत्तर दिया-
मेरा बेटा जग से न्यारा
माँ के दुख, समझने वाला
क्या हुआ गर इसका है रंग काला
साँप भीतर आया, तोराली ने उसे एक कटोरा दूध पिलाया, बेटों की मार से उसका अंग-अंग दुख रहा था। उसने नजर दौड़ाई, पाँचों बेटे दरारों से भीतर झाँक-झाँककर उसे जल्दी करने को कह रहे थे।
तोराली ने चाकू लिया और पूँछ का तीन इंच लंबा टुकड़ा काट दिया। अचानक चाकू लगते ही पूँछ से खून की धार बह निकली। साँप बेटा तड़पने लगा और कुछ ही देर में दम तोड़ दिया। तोराली, बेटे की मौत का गम मनाती रही और बेटों को अपने लालच का फल मिल गया।
हाँ, वह तीन इंच टुकड़ा भी तीन घंटे बाद केंचुल बन गया। उनके हाथ कुछ न लगा ,,,,
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. *"卐 ज्योतिषी और हस्तरेखाविद 卐"*
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लक्ष्मी जी का वास
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एक बार लक्ष्मी जी ने मनोहर रूप यानि बहुत ही अध्भुत रूप धारण करके गायों के एक झुंड में प्रवेश कर लिया ।
उनके इस सुंदर रूप को देखकर गायों ने पूछा कि, देवी..!! आप कौन हैं और कहां से आई हैं ?
गायों ने ये भी कहा कि आप पृथ्वी की अनुपम सुंदरी लग रही हो।
तब गायों ने एकदम से कहा कि सच सच बताओ, आखिर तुम कौन हो और तुम्हे कहाँ जाना है ?
तब लक्ष्मी जी ने विन्रमता से गायों से कहा कि तुम्हारा कल्याण हो। असल में मैं इस जगत में अर्थात संसार में लक्ष्मी के नाम से प्रसिद्ध हूंँ। और सारा जगत मेरी कामना करता है मुझे ही पाना चाहता है। मैंने दैत्यों को छोड़ दिया था और इसलिए वे सदा के लिए नष्ट हो गए।
इतना ही नहीं मेरे आश्रय में रहने के कारण इंद्र,सूर्य,चंद्रमा,विष्णु , वरूण तथा अग्नि आदि सभी देवता सदा के लिए आनंद भोग रहे हैं।
इसके बाद माँ लक्ष्मी ने कहा कि जिनके शरीर में मैं प्रवेश नहीं करती, वे सदैव नष्ट हो जाते हैं और अब मैं तुम्हारे शरीर में ही निवास करना चाहती हूंँ।
लेकिन इसके बाद भी कथा अभी खत्म नहीं हुई क्योंकि गायों ने अब तक माँ लक्ष्मी को अपनाया नहीं था।
देवी लक्ष्मी की इन बातों को सुनने के बाद गायों ने कहा कि तुम बड़ी चंचल हो, इसलिए कभी कहीं भी नहीं ठहरती।
इसके इलावा तुम्हारा बहुतों के साथ भी एक सा ही संबंध है, इसलिए हमें तुम्हारी इच्छा नहीं है तुम्हारी जहां भी इच्छा हो तुम चली जाओ। तुमने हमसे बात की, इतने में ही हम अपने आप को तुम्हारी कृतार्थ यानि तुम्हारी आभारी मानती हैं ।
गायों के ऐसा कहने पर लक्ष्मी ने कहा, कि ये तुम क्या कह रही हो ? मैं दुर्लभ और सती हूंँ । अर्थात मुझे पाना आसान नहीं,
पर फिर भी तुम मुझे स्वीकार नहीं कर रही, आखिर इसका क्या कारण है ? यहाँ तक कि देवता, दानव, मनुष्य आदि सब कठोर तपस्या करके मेरी सेवा का सौभाग्य प्राप्त करते है । अत: तुम भी मुझे स्वीकार करो ।
वैसे भी इस संसार में ऐसा कोई नहीं जो मेरा अपमान करता हो।
ये सब सुन कर गायों ने कहा,कि हम तुम्हारा अपमान या अनादर नहीं कर रही,केवल तुम्हारा त्याग कर रही हैं और वह भी सिर्फ इस लिए क्योंकि तुम्हारा मन बहुत चंचल है ।
तुम कहीं भी जमकर नहीं रहती अर्थात एक स्थान पर नहीं रुक सकती । इसलिए अब बातचीत करने से कोई लाभ नहीं तो तुम जहां जाना चाहती हो जा सकती हो ।
इस तरह से गायों ने माँ लक्ष्मी का त्याग कर दिया क्योंकि गायों को मालूम था कि लक्ष्मी कभी किसी एक के पास नहीं रहती बल्कि पूरे संसार में घूमती है। पर फिर भी माँ लक्ष्मी ने हार नहीं मानी और इतना सब होने के बाद भी वार्तालाप जारी रखी ।
अब आखिर में माँ लक्ष्मी ने कहा, गायों तुम दूसरों को आदर देने वाली हो और यदि तुमने ही मुझे त्याग दिया तो सारे जगत में मेरा अनादर होने लगेगा। इसलिए तुम मुझ भी पर अपनी कृपा करो मैं तुमसे केवल सम्मान चाहती हूँ ।
तुम लोग सदा सब का कल्याण करने वाली, पवित्र और सौभाग्यवती हो तो मुझे भी बस आज्ञा दो, कि मैं तुम्हारे शरीर के किस भाग में निवास करूं ?
इसके बाद गायों ने भी अपना मन बदल लिया और गायों ने कहा, हे यशस्विनी हमें तुम्हारा सम्मान आवश्य ही करना चाहिए इसलिए तुम हमारे गोबर और मूत्र में निवास करो, क्योंकि हमारी ये दोनों वस्तुएं ही परम पवित्र हैं।
तब माँ लक्ष्मी ने कहा, धन्यवाद् और धन्यभाग मेरे, जो तुम लोगों ने मुझ पर अनुग्रह किया यानि मेरे प्रति इतनी कृपा दिखाई मैं आवश्य ऐसा ही करूंगी।
मैं सदैव तुम्हारे गोबर और मूत्र में ही निवास करूंगी सुखदायिनी गायों अर्थात सुख देने वाली गायों तुमने मेरा मान रख लिया ।
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अत: तुम्हारा भी कल्याण हो बस यही वजह है कि गाय की इन दो वस्तुओ को लक्ष्मी का ही रूप समझा जाता है ।
इस कथा को पढ़ने के बाद ये तो समझ आ ही गया होगा कि गाय का धार्मिक ग्रंथो के अनुसार कितना महत्व है।।।।
भगवान परशुराम की पौराणिक कथा!
*मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
पूर्वकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी।
राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की।
सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना।
इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया।
इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योग शक्ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा।
इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली।
समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ।
रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्*वानस और परशुराम। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये।
आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया।
शिवजी से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।
श्रीमद्भागवत में दृष्टान्त है कि गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा तट पर जल लेने गई रेणुका आसक्त हो गयी और कुछ देर तक वहीं रुक गयीं। हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के दण्डस्वरूप सभी पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी।
रुक्मवान, सुखेण, वसु और विश्*वानस ने माता के मोहवश अपने पिता की आज्ञा नहीं मानी, अन्य भाइयों द्वारा ऐसा दुस्साहस न कर पाने पर पिता के तपोबल से प्रभावित परशुराम ने उनकी आज्ञानुसार माता का शिरोच्छेद एवं उन्हें बचाने हेतु आगे आये अपने समस्त भाइयों का वध कर डाला।
उनके इस कार्य से प्रसन्न जमदग्नि ने जब उनसे वर माँगने का आग्रह किया इस पर परशुराम बोले कि हे पिताजी! मेरी माता जीवित हो जाये और उन्हें अपने मरने की घटना का स्मरण न रहे।
परशुराम जी ने यह वर भी माँगा कि मेरे अन्य चारों भाई भी पुनः चेतन हो जायें और मैं युद्ध में किसी से परास्त न होता हुआ दीर्घजीवी रहूँ। जमदग्नि जी ने परशुराम को उनके माँगे वर दे दिये।
कथानक है कि इस घटना के कुछ काल पश्चात एक दिन संयोगवश वन में आखेट करते हैहय वंशाधिपति कार्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) जमदग्नि ऋषि के आश्रम में जा पहुँचा। सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त।
महिष्मन्त ने ही नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को सम्हाला।
भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ॠषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर सम्बन्ध थे। कृतवीर्य के पुत्र का नाम भी अर्जुन था। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण ही उन्हें कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता है।
कार्त्तवीर्यार्जुन ने अपनी अराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्त्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन या सहस्रबाहु कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था।
जमदग्निमुनि ने देवराज इन्द्र द्वारा उन्हें प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से हुए समस्त सैन्यदल का अद्भुत आतिथ्य सत्कार किया। पर ऋषि वशिष्ठ से शाप का भाजन बनने के कारण सहस्त्रार्जुन की मति मारी गई थी। कामधेनु गौ की विशेषतायें देखकर लोभवश जमदग्नि से कामधेनु गौ की माँग की, किन्तु जमदग्नि ने उन्हें कामधेनु गौ को देना स्वीकार नहीं किया।
इस पर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने क्रोध में आकर जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर अपने साथ ले जाने लगा। किन्तु कामधेनु गौ तत्काल कार्त्तवीर्य अर्जुन के हाथ से छूट कर स्वर्ग चली गई और कार्त्तवीर्य अर्जुन को बिना कामधेनु गौ के वापस लौटना पड़ा।
इस घटना के समय वहाँ पर परशुराम उपस्थित नहीं थे। जब परशुराम वहाँ आये तो उनकी माता विलाप कर रही थीं। अपने पिता के आश्रम की दुर्दशा देखकर और अपनी माता के दुःख भरे विलाप सुन कर,कुपित परशुराम ने कार्त्तवीर्य अर्जुन से युद्ध करके फरसे के प्रहार से उसकी समस्त भुजाएँ काट डालीं व सिर को धड़ से पृथक कर दिया।
तब सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं।
इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया-"मैं हैहय वंश के सभी क्षत्रियों का नाश करके ही दम लूँगा"। कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया।
इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक 21 बार भयानक लम्बी चली लड़ाई चली, अहंकारी और दुष्ट प्रकृति हैहयवंशी क्षत्रियों से 21 बार युद्ध करना पड़ा था। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका दिया।
इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दि,केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा
।। कालभीति का शिवजी से वाद-विवाद......।।
न जायते कुलम यस्य बीजशुद्धि बिना ततः |
तस्य खादन पिबतृ वापि साधुः सांदति तत्क्षणात् ||
कालभीति एक बिल्व वृक्ष के नीचे एक पैर के अंगूठे के अग्र भाग पर खड़े हो मंत्रों का जाप करने लगे| जाप का नियम ग्रहण करने के पश्चात वे सौ वर्षों तक जल की एक एक बूँद पीकर रहे| सौ वर्ष पूर्ण होने पर उनके सामने एक मनुष्य जल से भरा हुआ घड़ा लेकर आया, उसने कालभीति को प्रणाम करके बड़े हर्षित होकर बोला – महामते ! आज आपका नियम पूरा हो गया, यह जल ग्रहण किजिये|
कालभीति ने कहा– आप किस वर्ण के हैं तथा आप का आचार व्यवहार कैसा है| यह सब यथार्थ रूप से बताईये| आपके जन्म और आचार जान लेने पर ही मैं यह जल ग्रहण करूँगा, अन्यथा नही|
आगंतुक – मैं अपने माता पिता को नही जानता हूँ, अपने आप को सदा इसी रुप में देखता हूँ, आचारो और धर्मों से मेरा कोई प्रयोजन नही है|
कालभीति ने कहा – यदि ऐसी बात है, तो मैं आपका जल कभी ग्रहण नही करूँगा| इस विषय में मेरे गुरु ने वैदिक सिद्धांत के अनुसार जो उपदेश दिया है, वह् सुनो – जिसके कुल का ज्ञान ना हो, उसका अन्न खाने और जल पीने वाला साधु पुरुष तत्काल कष्ट में पड़़ जाता है|
आगंतुक– तुम्हारी इस बात पर मुझे हँसी आती है| अहो ! तुम बड़े अविवेकी हो, जब सब भूतों में सदा भगवान शंकर ही निवास करते हैं, तो किसी के प्रति भी भली बुरी बात नही कहनी चाहिए; क्योंकि इस से भगवान शंकर की ही निंदा होती है| जो अपने और दूसरों के बीच अंतर मानता है, उस भेददर्शी पुरुष के लिए मृत्यु अत्यंत घोर भय उपस्थित करती है; अथवा यदि शुद्धि का भी विचार किया जाए, तो बताओ इस जल में क्या अपवित्रता है? यह घड़ा मिट्टी का बना हुआ है और अग्नि से पकाया गया है, फिर जल से भर दिया गया है| इन सब वस्तुओं में तो कोई अशुद्धि नही| यदि कहें कि मेरे संसर्ग से अशुद्धि आ गयी है, तो यह भी स्पष्ट नही है, क्योंकि वैसी दशा में जब मैं इस पृथ्वी पर हूँ; तो आप यहाँ क्यों रहते हैं? बताईये ! आप क्यों इस पृथ्वी पर चलते हैं? आकाश में क्यों नही चलते? अतः इस प्रकार विचार करने पर आपकी बात मूर्खो सी जान पड़ती है|
कालभीति ने कहा – यदि ऐसा कहा जाता है कि संपूर्ण भूतों में एक शिव ही हैं, तो कथन मात्र के लिए सबको शिव मानने वाले नास्तिक लोग भक्ष्य भोज्य पदार्थ को छोड़ कर मिट्टी क्यों नही खाते? राख और धूल क्यों नही फांकते? इसलिए संसार में व्यवहार सिद्धि के लिए एक मर्यादा स्थापित की गयी है, जो समय से ही सफल होती है, अन्यथा नही| आप उस मर्यादा को श्रवण करें| पूर्वकाल में ब्रह्मा जी ने इस पञ्च भौतिक जगत् की सृष्टि की और उसे नाममय प्रपंच से बाँध दिया| उस नाम प्रपंच के चार भेद हैं – ध्वनि, वर्ण, पद और वाक्य| ये ही नामात्मक प्रपंच के चार आधार स्थान हैं| इनमें ध्वनि ‘नाद’ स्वरूप है| ॐकारपूर्वक संपूर्ण अक्षर ही ‘वर्ण’ कहलाते हैं| ‘शिवम्’ यह सुयंत शब्द ‘पद’ है और ‘शिवम् भजेत’ (शिव का भजन करे) यह विधि ही एक वाक्य कही गयी है|
यह वाक्य भी तीन प्रकार का होता है; ऐसा श्रुति का सिद्धांत है| पहला प्रभुसम्मत, दूसरा सुहुसम्मत तथा तीसरा कान्तसंम्मत| यह त्रिविध वाक्य माने गए हैं| जैसे स्वामी सेवक को ये आदेश देते हैं कि “अमुक काम करो” – यह प्रभुसम्मत वाक्य है| इतिहास और पुराण आदि सुहुसम्मत कहे जाते हैं| ये सुह्रदयो की भांति समझा कर मनुष्यों को यथार्थ मार्ग में लगाते हैं तथा काव्य के जो सरस एवं व्यङ्ग्पूर्ण आलाप आदि हैं उन्हें कान्तसंम्मत कहते हैं| पुरावा (जिस प्रकार प्रियतमा अपने प्रियतम को कोई आदेश नहीं देती, अपने हाव भाव, भ्रुभंग अथवा सरस आलाप से अपनी इच्छा मात्र सूचित कर देती है और प्रियतम उसकी पूर्ती के लिए स्वयं यत्नशील हो जाता है, इसी प्रकार रामायण आदि काव्य अपने सरस वर्णनों द्वारा सह्रादयों का मनोरंजन करते हुए स्वतः ह्रदय में यह भाव भर देते हैं कि हमें राम आदि के आदर्श पर चलना चाहिए, रावण आदि के आदर्श पर नहीं) |
प्रभुवाक्य बाहर और भीतर से पवित्र करने वाला माना गया है तथा सुह्रदयवाक्य भी परम पवित्र है| स्वर्ग आदि उत्तम लोकों की प्राप्ति की इच्छा से उसका पालन करना चाहिए| श्रुति कहती है कि भूलोक के सम्पूर्ण मनुष्यों को प्रभुसम्मत तथा सुहुसम्मत वाक्य का पालन करना चाहिए| आप यदि नास्तिकवाद का सहारा लेकर सर्वत्र व्यवहारिक समानता की बात करते हैं; तो इसके अनुसार क्या वेद, शास्त्र और पुराण व्यर्थ ही हैं? क्या पूर्वकाल में सप्तर्षि आदि जो ब्राह्मण और क्षत्रिय हो गए हैं, वे सब मूर्ख ही थे? केवल आप ही चतुर हैं? जो वेद, वेदांग और वेदांत का अनुसरण करने वाले एवं सत्वगुण में स्थित हैं, वे ऊपर के लोकों में गमन करते हैं और रजोगुणी मनुष्य मध्यवर्ती भूलोक में निवास करते हैं और तमोगुणी जीव नीचे के लोकों में निवास करते हैं| सात्विक आहार तथा सात्विक आचार विचार से मनुष्य स्वर्गगामी होता है|
हम आपकी बातों में दोष ढूँढते हों, ऐसी बात भी नहीं हैं| हम यह नहीं कहना चाहते कि सम्पूर्ण भूतों में भगवान् शिव नहीं है| भगवान् शिव तो सम्पूर्ण भूतों में हैं ही; किन्तु इस विषय में जो उपमा दे रहा हूँ, उसे ध्यान से सुनिए – जैसे सुवर्ण के बने हुए बहुत से आभूषण होते हैं; उनमे से कोई तो विशुद्ध सुवर्ण होते हैं; और कुछ खोटे भी होते हैं| खरे, खोटे सभी आभूषणों में सुवर्ण तो है ही| इसी प्रकार ऊंच, नीच, शुद्ध, अशुद्ध सब में भगवान् सदाशिव विराजमान हैं| जैसे खोटे सुवर्ण शोभित होने पर शुद्ध सुवर्ण के साथ एकता को प्राप्त होता है, उसी प्रकार इस शरीर को भी व्रत, तपस्या और सदाचार आदि के द्वारा शोधित करके शुद्ध बना लेने पर मनुष्य निश्चय ही स्वर्गलोक में जाता है| अतः बुद्धिमान पुरुष को उचित है कि वह हीन या अपवित्र वस्तु को किसी प्रकार भी ग्रहण न करे| यदि वह अपने इस शरीर का शोधन कर ले तो शुद्ध होने पर निश्चय ही स्वर्ग लोक को प्राप्त हो सकता है| जो पुरुष व्रत, उपवास करके शुद्ध हो गया है, वह भी यदि सबसे प्रतिग्रह लेने लगे तो थोड़े ही दिनों में अवश्य पतित हो जाता है| इसलिए मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि आपका यह जल मैं किसी तरह से ग्रहण नहीं करूँगा| यह कार्य भला हो या बुरा, मेरे लिए वेद ही परम प्रमाण हैं|
कालभीति के ऐसा कहने पर आगंतुक मनुष्य हंसने लगा| उसने दाहिने अंगूठे से भूमि को कुरेदते हुए एक बहुत बड़ा और उत्तम गड्ढा तैयार कर दिया| फिर उसी में वह सारा जल ढुलका दिया| उस से बह गड्ढा भर गया| फिर भी जल शेष रह गया तो उसने अपने पैर से ही कुरेद कर एक तालाब बना दिया और शेष बचे हुए जल से उसको भर दिया| यह परम अद्भुत दृश्य देख कर भी ब्राह्मण देवता को कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि भूत, प्रेत आदि की उपासना करने वाले लोगों में अनेक प्रकार की विचित्र बातें होती हैं| उस विचित्रता के चक्कर में आकर अपने सनातन वैदिक मार्ग का परित्याग कभी नहीं करना चाहिए|
आगंतुक मनुष्य ने कहा – ब्राह्मणदेव ! आप हैं तो बड़े भारी मूर्ख; परन्तु बातें पंडितों जैसी करते हैं| क्या आपने पुराणवेत्ता विद्वानों के मुख से कहा हुआ, यह श्लोक नहीं सुना है?
कृपोस्य्स्य घटोस्य्स्य रज्जुरंयस्य भारत |
पायवत्येक पिबत्वेकः सर्वे ते संभागिनः ||
हे - भारत ! कुआँ दूसरे का, घडा दूसरे का और रस्सी दूसरे की है; एक पानी पिलाता है और एक पीता है; वे सब् समान फल के भागी होते हैं|
ऐसा ही मेरा भी जल है और तुम धर्म के ज्ञाता हो; फिर क्यो इसे नही पियोगे?
नारद जी कहते हैं – अर्जुन ! तदनन्तर कालभीति ने उक्त श्लोक के विषय मे अनेक प्रकार से विचार किया, किन्तु किस प्रकार सब् लोग समान फल के भागी होते हैं, इसका निश्चय न कर सके| फिर घट आदि साधनो द्वारा जो समान फल के भागी होने की बात कही गयी थी, उस पर विशेष विचार किया और इस निश्चय पर पहुचे की यदि एक कार्य मे अनेक सहायक हो तो सब् समान फल के भागी होते हैं| जैसे एक नौका निर्माण कराने मे यदि अनेक पुरुषों ने धन लगाया हो तो उन सबका उसमे समान भाग होता है| इसी प्रकार कर्ता को प्राप्त होने वाला सब् फल सहकारियों मे बंट कर समान हो जाता है|
इस प्रकार पुनः पुनः विचार करके कालभीति ने उस मनुष्य से कहा – ‘भद्रपुरुष ! आपका यह कहना ठीक है| कूप और तालाब का जल ग्रहण करने में दोष नहीं है; तथापि आपने तो अपने घड़े के जल से ही इस गड्ढे को भरा है, यह बात प्रत्यक्ष देख कर के भी मेरे जैसा मनुष्य कैसे इस जल को पी सकता है| अतः यह अच्छा हो या बुरा; मैं किसी प्रकार भी इसे नहीं पीयूँगा|
कालभीति के इस प्रकार दृण निश्चय कर लेने पर वह पुरुष हँसता हुआ, वहां से अंतर्ध्यान हो गया| इस से कालभीति को बड़ा विस्मय हुआ| वे बार बार सोचने लगे कि ये क्या वृतांत है| इतने में ही उस विल्बवृक्ष के नीचे पृथ्वी से सहसा एक परम सुन्दर शिवलिंग प्रकट हो गया, जो सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था| इंद्र ने उसके ऊपर पारिजात के फूलों की वर्षा की और देवता तथा मुनि नाना प्रकार के स्त्रोतों द्वारा स्तुति करने लगे|
तब कालभीति ने कहा – जो पाप के काल, संसार रुपी पंक के काल, काल के काल तथा काल मार्ग के भी काल हैं; जिनके कंठ में काला चिन्ह सुशोभित होता है तथा जो संसार के कालस्वरूप हैं, उन भगवान् महाकाल की मैं शरण लेता हूँ| श्रुति आपको सम्पूर्ण विद्याओं का ईश्वर बता कर स्तुति करती है| आप समस्त भूतों के ईश्वर तथा प्रपितामह हैं; ऐसी महिमा वाले महेश्वर को नमस्कार है| वेद जिसकी स्तुति करता है, उस ‘तत्पुरुष’ नामवाले आपको हम जानते हैं और आपका ही चिंतन करते हैं| देवेश्वर ! आप हमें शरण दीजिये; आपको बारम्बार नमस्कार है|’
अर्जुन ! कालभीति के इस प्रकार स्तुति करने पर महादेव जी ने उस लिंग से निकल कर प्रत्यक्ष दर्शन दिया और अपने तेज से त्रिलोक को प्रकाशित करते हुए कहा – ब्राह्मण ! तुमने इस महातीर्थ में रहकर मेरी जो अतिशय आराधना की है, उस से मैं बहुत संतुष्ट हूँ| वत्स ! काल तुम्हारे ऊपर किसी प्रकार से शासन नहीं कर सकता| मैं ही तुम्हारी धर्मनिष्ठ देखने के लिए मनुष्य रूप में प्रकट हुआ था| यह धर्म मार्ग धन्य है, जिसका तुम्हारे जैसे धर्मज्ञों द्वारा पालन होता है| मैंने यह गड्ढा और तालाब सब तीर्थों के जल से ही भरा है| यह परम पवित्र जल है; तुम्हारे लिए ही मैंने इसका संग्रह किया है| तुमने जो मेरी स्तुति की है, इसमें वैदिक मन्त्रों का रहस्य भरा हुआ है| तुम मुझ से कोई मनोवांछित वर मांगो| तुम्हारे लिए कुछ भी अदेय नहीं है|
कालभीति ने कहा – भगवान् शंकर ! यदि आप मुझ पर संतुष्ट हैं, तो मैं धन्य हूँ| मुझ पर आपका महान अनुग्रह है| आपके संतोष से ही सब धर्म सफल होते हैं; अन्यथा वे केवल श्रम देने वाले ही माने गए हैं| प्रभो ! यदि आप संतुष्ट हैं, तो सदा यहाँ निवास करें| आपके इस शुभ लिंग पर जो भी दान, पूजन आदि किया जाए, वह सब अक्षय हो| देव ! पांच हजार मन्त्र जपने से जो फल होता है, वही फल मनुष्य को इस शिवलिंग का दर्शन करने से प्राप्त हो जाये| महेश्वर ! आपने काल मार्ग से मुझे छुटकारा दिलाया है, इसलिए यह शिवलिंग महाकाल के नाम से प्रसिद्द हो| जो मनुष्य इस कूप में स्नान करके पितरों का तर्पण करे, उसे सब तीर्थों का फल प्राप्त हो और उसके पितरों को अक्षय गति की प्राप्ति हो|
कालभीति की यह बात सुन कर भगवान् शंकर बोले – जहाँ स्वयंभू लिंग हो, वहां मैं नित्य निवास करता हूँ| स्वयंभू लिंग, रत्नमय लिंग, धातुज लिंग, प्रस्तर निर्मित लिंग तथा चन्दन आदि लेपित लिंग हैं| इनमें क्रमशः अंतिम लिंग की अपेक्षा पूर्व वाले लिंग दस गुना अधिक फल देने वाले हैं| तुमने विशेष रूप से जिसके लिए प्रार्थना की है, वह सब पूर्ण हो| यहाँ फूल, फल, पूजा, नैवेद्य और स्तुति निवेदन करना तथा दान या दूसरा कोई भी शुभ कर्म करना, सब अक्षय होगा| बेटा ! माघ मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को शिव योग में जो लिंगार्चन के पहले कूप में स्नान करके पितरों का तर्पण करेगा, उसे सब तीर्थों का फल प्राप्त होगा तथा उसके पितरों की अक्षय गति होगी| उसी दिन की रात्रि में जो प्रत्येक प्रहर में महाकाल का पूजन करेगा, उसे सब लिंगों के समीप जागरण करने का फल प्राप्त होगा|
द्विजोत्तम ! जो पुरुष जितेन्द्रिय रह कर शिवलिंग में मेरी पूजा करेगा, भोग और मोक्ष उस से कभी दूर नहीं रहेंगे| जो चतुर्दशी, अष्टमी, सोमवार तथा पर्व के दिन इस सरोवर में स्नान करके इस शिव लिंग की पूजा करेगा, वह शिव को ही प्राप्त होगा| यहाँ किया हुआ जप, तप और रूद्र जप सब अक्षय होगा| तुम नंदी के साथ मेरे दूसरे द्वारपाल बनोगे| वत्स ! काल मार्ग पर विजय पाने से तुम चिर काल तक महाकाल के नाम से प्रसिद्द होगे| यहाँ शीघ्र ही राजर्षि करन्धम आने वाले हैं, उन्हें धर्म का उपदेश करके तुम मेरे लोक में चले आओ|
यों कह कर भगवान् रूद्र उस लिंग में ही लीन हो गए और महाकाल भी प्रसन्न होकर, वहां बड़ी भारी तपस्या करने लगे|
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*सर्वार्थसंभवो देहो जनित: पोषितो यत: ।*
*न तयोर्याति निर्वेशं पित्रोर्मत्र्य: शतायुषा॥*
भावार्थ - *सौ वर्ष की आयु प्राप्त करके भी माता-पिता के ऋण से उऋण नही हुआ जा सकता । वास्तव में जो शरीर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति का प्रमुख साधन है, उसका निर्माण तथा पालन-पोषण जिनके द्वारा हुआ है, उनके ऋण से मुक्त होना कठिन ही नही, सर्वथा असम्भव है ।*
राम से बडा राम का नाम क्यों है ?
राम नाम ही परमब्रह्म है
एक नाम जाप होता है और एक मंत्र जाप होता है . राम नाम मन्त्र भी है और नाम भी . राम राम राम ऐसे नाम जाप कि पुकार विधिरहित होती है . इस प्रकार भगवान को सम्बोधित करने का अर्थ है कि हम भगवान को पुकारे जिससे भगवान कि दृष्टि हमारी तरफ खिंच जाए .जैसे एक बच्चा अपनी माँ को पुकारता है तो उन माताओं का चित्त भी उस बच्चे की ओर आकृष्ट हो जाता है , जिनके छोटे बच्चे होते हैं . पर उठकर वही माँ दौड़ेगी जिसको वह बच्चा अपनी माँ मानता है .
करोड़ों ब्रह्माण्ड भगवान के एक – एक रोम में हैं बसते हैं . दशरथ के घर जन्म लेने वाले भी राम है और जो निर्गुण निराकार रूप से सब जगह रम रहें है , उस परमात्मा का नाम भी राम है . नाम निर्गुण ब्रह्म और सगुण राम दोनों से बड़ा है .
भगवान स्वयं नामी कहलाते हैं . भगवान परमात्मा अनामय है अर्थात विकार रहित है . उसका न नाम है , न रूप है उनको जानने के लिए उनका नाम रख कर सम्बोधित किया जाता है , क्योंकि हम लोग नाम रूप में बैठे हैं इसलिए उसे ब्रह्म कहते हैं . जिस अनंत, नित्यानंद और चिन्मय परमब्रह्म में योगी लोग रमण करते हैं उसी राम-नाम से परमब्रह्म प्रतिपादित होता है अर्थात राम नाम ही परमब्रह्म है .
अनंत नामों में मुख्य राम नाम है . भगवान के गुण आदि को लेकर कई नाम आयें हैं, उनका जप किया जाये तो भगवान के गुण , प्रभाव, तत्व ,लीला आदि याद आयेंगें . भगवान के नामों से भगवान के चरित्र की याद आती है . भगवान के चरित्र अनंत हैं . उन चरित्र को लेकर नाम जप भी अनंत ही होगा .।
राम नाम में ही अखिल सृष्टि है।
वाल्मीकि ने सौ करोड़ श्लोकों की रामायण बनाई , तो सौ करोड़ श्लोकों की रामायण को भगवान शंकर के आगे रख दिया जो सदैव राम नाम जपते रहते हैं . उन्होनें उसका उपदेश पार्वती को दिया . शंकर ने रामायण के तीन विभाग कर त्रिलोक में बाँट दिया . तीन लोकों को तैंतीस – तैंतीस करोड़ दिए तो एक करोड़ बच गया . उसके भी तीन टुकड़े किए तो एक लाख बच गया उसके भी तीन टुकड़े किये तो एक हज़ार बच और उस एक हज़ार के भी तीन भाग किये तो सौ बच गया . उसके भी तीन भाग किए एक श्लोक बच गया . इस प्रकार एक करोड़ श्लोकों वाली रामायण के तीन भाग करते करते एक अनुष्टुप श्लोक बचा रह गया . एक अनुष्टुप छंद के श्लोक में बत्तीस अक्षर होते हैं उसमें दस – दस करके तीनों को दे दिए तो अंत में दो ही अक्षर बचे भगवान् शंकर ने यह दो अक्षर रा और म आपने पास रख लिए . राम अक्षर में ही पूरी रामायण है , पूरा शास्त्र है .
राम नाम वेदों के प्राण के सामान है . शास्त्रों का और वर्णमाल का भी प्राण है . प्रणव को वेदों का प्राण माना जाता है . प्रणव तीन मात्रा वाल ॐ कार पहले ही प्रगट हुआ, उससे त्रिपदा गायत्री बनी और उससे वेदत्रय . ऋक , साम और यजुः – ये तीन प्रमुख वेद बने . इस प्रकार ॐ कार [ प्रणव ] वेदों का प्राण है . राम नाम को वेदों का प्राण माना जाता है , क्योंकि राम नाम से प्रणव होता है . जैसे प्रणव से र निकाल दो तो केवल पणव हो जाएगा अर्थात ढोल हो जायेगा . ऐसे ही ॐ में से म निकाल दिया जाए तो वह शोक का वाचक हो जाएगा . प्रणव में र और ॐ में म कहना आवश्यक है . इसलिए राम नाम वेदों का प्राण भी है .
नाम और रूप दोनों ईश्वर कि उपाधि हैं . भगवान् के नाम और रूप दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि है . सुन्दर, शुद्ध , भक्ति युक्त बुद्धि से ही इसका दिव्य अविनाशी स्वरुप जानने में आता है .
राम नाम लोक और परलोक में निर्वाह करने वाला होता है . लोक में यह देने वाला चिंतामणि और परलोक में भगवत्दर्शन कराने वाला है. वृक्ष में जो शक्ति है वह बीज से ही आती है इसी प्रकार अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा में जो शक्ति है वह राम नाम से आती ही .
राम नाम अविनाशी और व्यापक रूप से सर्वत्र परिपूर्ण है . सत् है , चेतन है और आनंद राशि है . उस आनंद रूप परमात्मा से कोई जगह खाली नही , कोई समय खाली नहीं , कोई व्यक्ति खाली नही कोई प्रकृति खाली नही ऐसे परिपूर्ण , ऐसे अविनाशी वह निर्गुण है . वस्तुएं नष्ट जाती है, व्यक्ति नष्ट हो जाते हैं , समय का परिवर्तन हो जाता है, देश बदल जाता है , लेकिन यह सत् – तत्व ज्यों -त्यों ही रहता है इसका विनाश नही होता है इसलिए यह सत् है .
राम नाम कि महिमा
1) जीभ वागेन्द्रिय है उससे राम राम जपने से उसमें इतनी अलौकिकता आ जाती है की ज्ञानेन्द्रिय और उसके आगे अंतःकरण और अन्तः कारण से आगे प्रकृति और प्रकृति से अतीत परमात्मा तत्व है , उस परमात्मा तत्व को यह नाम जाना दे ऐसी उसमें शक्ति है .
2 ) राम नाम मणिदीप है . एक दीपक होता है एक मणिदीप होता है . तेल का दिया दीपक कहलाता है मणिदीप स्वतः प्रकाशित होती है . जो मणिदीप है वह कभी बुझती नहीं है . जैसे दीपक को चौखट पर रख देने से घर के अंदर और भर दोनों हिस्से प्रकाशित हो जाते हैं वैस ही राम नाम को जीभ पर रखने से अंतःकरण और बाहरी आचरण दोनों प्रकाशित हो जाते हैं .
3 ) यानी भक्ति को यदि ह्रदय में बुलाना हो तो, राम नाम का जप करो इससे भक्ति दौड़ी चली आएगी .
4 ) अनेक जन्मों से युग युगांतर से जिन्होंने पाप किये हों उनके ऊपर राम नाम की दीप्तिमान अग्नि रख देने से सारे पाप कटित हो जाते हैं .
5 ) राम के दोनों अक्षर मधुर और सुन्दर हैं . मधुर का अर्थ रचना में रस मिलता हुआ और मनोहर कहने का अर्थ है की मन को अपनी और खींचता है . राम राम कहने से मुंह में मिठास पैदा होती है . दोनों अक्षर वर्णमाल की दो आँखें हैं .राम के बिना वर्णमाला भी अंधी है.
6 ) जगत में सूर्य पोषण करता है और चन्द्रना अमृत वर्षा करता है है . राम नाम विमल है जैसे सूर्य और चंद्रमा को राहु – केतु ग्रहण लगा देते हैं , लेकिन राम नाम पर कभी ग्रहण नहीं लगता है . चन्द्रमा घटता – बढता रहता है लेकिन राम तो सदैव बढता रहता है .यह सदा शुद्ध है अतः यह निर्मल चन्द्रमा और तेजश्वी सूर्य के समान है .
7 ) अमृत के स्वाद और तृप्ति के सामान राम नाम है . राम कहते समय मुंह खुलता है और म कहने पर बंद होता है . जैसे भोजन करने पर मुख खुला होता है और तृप्ति होने पर मुंह बंद होता है . इसी प्रकार रा और म अमृत के स्वाद और तोष के सामान हैं .
8 ) छह कमलों में एक नाभि कमल [ चक्र ] है उसकी पंखुड़ियों में भगवान के नाम है , वे भी दिखने लग जाते हैं . आँखों में जैसे सभी बाहरी ज्ञान होता है ऐसे नाम जाप से बड़े बड़े शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है , जिसने पढ़ाई नहीं की , शास्त्र शास्त्र नहीं पढ़े उनकी वाणी में भी वेदों की ऋचाएं आती है. वेदों का ज्ञान उनको स्वतः हो जाता है .
9 ) राम नाम निर्गुण और सगुण के बीच सुन्दर साक्षी है . यह दोनों के बीच का वास्तविक ज्ञान करवाने वाला चतुर दुभाषिया है . नाम सगुण और निर्गुण दोनों से श्रेष्ट चतुर दुभाषिया है .
10 ) राम जाप से रोम रोम पवित्र हो जाता है . साधक ऐसा पवित्र हो जाता है उसके दर्शन , स्पर्श भाषण से ही दूसरे पर असर पड़ता है . अनिश्चिता दूर होती है शोक – चिंता दूर होते हैं , पापों का नाश होता है . वे जहां रहते हैं वह धाम बन जाता है वे जहां चलते हैं वहां का वायुमंडल पवित्र हो जाता है .
कैसे लें राम – नाम
परमात्मा ने अपनी पूरी पूरी शक्ति राम नाम में रख दी है . नाम जप के लिए कोई स्थान, पात्र विधि की जरुरत नही है . रात दिन राम नाम का जप करो निषिद्ध पापाचरण आचरणों से स्वतः ग्लानी हो जायेगी . अभी अंतकरण मैला है इसलिए मलिनता अच्छी लगती है मन के शुद्ध होने पर मैली वस्तुओं कि अकांक्षा नहीं रहेगी . जीभ से राम राम शुरू कर दो मन की परवाह मत करो . ऐसा मत सोचो कि मन नहीं लग रहा है तो जप निरर्थक चल रहा है . जैसे आग बिना मन के छुएंगे तो भी वह जलायेगी ही . ऐसे ही भगवान् का नाम किसी तरह से लिया जाए , अंतर्मन को निर्मल करेगा ही . अभी मन नहीं लग रहा है तो परवाह नहीं करो , क्योंकि आपकी नियत तो मन लगाने की है तो मन लग जाएगा . भगवान ह्रदय की बात देखते हैं की यह मन लगाना चाहता है , लेकिन मन नहीं लग पा रहा है .इसलिए मन नहीं लगे तो घबराओ मत और जाप करते करते मन लगाने का प्रयत्न करो .
सोते समय सभी इन्द्रिय मन में , मन बुध्दि में , बुद्धि प्रकृति में अर्थात अविद्या में लीन हो जाती है , गाढ़ी नींद में जब सभी इन्द्रियां लीन होती है उस पर भी उस व्यक्ति को पुकारा जाए तो वह अविद्या से जग जाता है . राम नाम में अपार शन्ति , आनंद और शक्ति भरी हुई है . यह सुनने और स्मरण करने में सुन्दर और मधुर है . राम नाम जप करने से यह अचेतन – मन में बस जाता है उसके बाद अपने आप से राम राम जप होने लगता है करना नहीं पड़ता है . रोम रोम उच्चारण करता है . चित्त इतना खिंच जाता है की छुडाये नहीं छुटता .।।।
राम राम राम
भगवान शरण में आने वाले को मुक्ति देते हैं लेकिन भगवान का नाम उच्चारण मात्र से मुक्ति दे देता है . जैसे छत्र का आश्रय लेने वाल छत्रपति हो जाता है , वैसे ही राम रूपी धन जिसके पास है वही असली धनपति है . सुगति रूपी जो सुधा है वह सदा के लिए तृप्त करने वाली होती है . जिस लाभ के बाद में कोई लाभ नहीं बच जाता है जहां कोई दुःख नहीं पहुँच सकता है ऐसे महान आनंद को राम नाम प्राप्त करवाता है
रावण-पुत्र ‘अक्षय कुमार’ का वध नहीं चाहते थे हनुमान, क्यों?
महर्षि वाल्मीकि द्वारा सदियों पहले रचे गए महान हिन्दू ग्रंथ ‘रामायण’ में उन्होंने ऐसे कई प्रसंग वर्णित किए जो रोचक एवं रहस्यमयी भी हैं। भगवान विष्णु के सातवें अवतार श्रीराम का जन्म, माता सीता का स्वयंवर, प्रभु राम के साथ माता सीता का अयोध्या आना, उनका वनवास तथा अंत में लंकापति रावण को पराजित कर फिर वापस अयोध्या नगरी लौटना।
यह सभी प्रसंग प्रसिद्ध एवं रोचक हैं, जिन्हें हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। इस महान ग्रंथ ने हमें महान देवी-देवताओं का स्मरण कराया है। रामायण ग्रंथ के प्रत्येक प्रसंग को महर्षि वाल्मीकि ने घटनानुसार विस्तारित किया है। परन्तु कुछ प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें वे ही लोग जानते हैं जिन्होंने पूर्ण रूप से इस ग्रंथ का एक-एक पाठ पढ़ा हो।
श्रीराम का जीवन, माता सीता के साथ उनका स्नेह, दानव राजा रावण का अंत यह सभी प्रसंग हमने बखूबी गंभीरता से पढ़े होंगे लेकिन एक प्रसंग ऐसा है जिसे जान आप भी दंग रह जाएंगे। यह है रामायण में वर्णित लंकापति रावण के सबसे छोटे पुत्र ‘अक्षय कुमार का वध’।
अक्षय कुमार लंका नरेश रावण की सबसे छोटी संतान थी, परन्तु इसके बावजूद उसमें कई देवताओं के समान शक्तियां थी। ऐसा माना जाता है कि उसकी वीरता देवों के समान थी। रावण की सेना में सबसे बलवान योद्धाओं में से एक था अक्षय कुमार।
वन में रावण द्वारा माता सीता का हरण करने के पश्चात जब श्रीराम को यह मालूम हुआ कि उनकी पत्नी लंका नरेश रावण की कैद में है तो उन्होंने मां सीता को वापस पाने का निर्णय लिया। लेकिन वे किसी भी निर्णय पर आने से पहले चाहते थे कि उनकी ओर से कोई महारथी उनका संदेश लेकर रावण के पास जाए, लेकिन कौन जाता?
उनकी आंखों के सामने एक विशाल समुद्र था जिसे बिना किसी माध्यम के पार कर सकना असंभव था। ऐसे में कौन था जिसके पास समुद्र को लांघकर दूसरी ओर लंका जाने की क्षमता थी। वे थे पवन पुत्र हनुमान।
पवन देव के आशीर्वाद से वे आकाश में उड़ सकने की शक्ति रखते थे। इसके साथ ही हनुमानजी अपने शारीरिक आकार को एक पहाड़ से भी ऊंचा कर सकने की दैवीय शक्तियों से भरपूर थे। अंत में श्रीराम का आशीर्वाद पाकर हनुमानजी निकल पड़े माता सीता की खोज में।
सुनहरी लंका में रावण के महल के बीचो-बीच थी अशोक वाटिका। सुंदर बाग एवं बड़े-बड़े रसीले फलों के वृक्ष से भरा पड़ा था यह बाग। वहीं बाग की एक दिशा में राक्षसियों के बीच बैठी थीं माता सीता। उनकी सुंदरता तथा चेहरे पर एक तेज को देख हनुमानजी समझ गए कि ये प्रभु राम की अर्धांगिनी सीता ही हैं।
वे उनके पास गए तथा माता सीता को श्रीराम का संदेश दिया तथा यह आश्वासन दिलाया कि वे लोग जल्द ही उन्हें रावण की कैद से छुड़ा ले जाएंगे। अब हनुमानजी श्रीराम द्वारा सौंपा हुआ कार्य तो कर चुके थे लेकिन रावण तक पहुंचने का एक माध्यम चाहते थे। फिर क्या था, उनके दिमाग ने एक जुगत लगाई।
वे बाग के वृक्षों पर चढ़ने लगे, फल खाने लगे तथा बाग की खूबसूरती को नष्ट करने लगे। यह देख कई सैनिक उन्हें पकड़ने तो आए परन्तु हर किसी का प्रयत्न बेकार गया। कुछ सैनिकों ने तो राजा रावण को जाकर संदेश भी दिया कि बाग में एक बड़ा वानर घुस गया है, और बागीचे की चीज़ों को नष्ट कर रहा है।
तब रावण ने अपने सैनिकों को उसे पकड़ लाने का आदेश दिया, पर हनुमानजी किसी सैनिक की पकड़ में कहां आने वाले थे। राक्षसों को सबक सिखाने के लिए हनुमानजी ने सेना में से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को तो पकड़-पकड़कर धूल में मिला दिया।
जो कुछ घायल अवस्था में किसी तरह से वहां से निकलने में सफल हुए वे रावण के पास अपने जीवन की भीख मांगने पहुंचे और उसे बताया कि यह वानर बहुत बलवान है। कोई भी राक्षस उसका सामना नहीं कर सकता। क्रोध में आकर रावण ने इस बार अपने सबसे छोटे पुत्र अक्षय कुमार को हनुमानजी को सबक सिखाने के लिए भेजा। आज्ञानुसार अक्षय कुमार अपने आठ घोड़ों वाले रथ पर सवार होकर हनुमानजी से लड़ने चल पड़ा।
महर्षि वाल्मीकि द्वारा रामायण के इस प्रसंग को बेहद गंभीरता एवं स्पष्ट तस्वीर जाहिर करते हुए वर्णित किया गया है। वे बताते हैं कि रावण पुत्र अक्षय कुमार अपने पिता की आज्ञानुसार हनुमानजी का वध करने के लिए उनके सामने जैसे ही आया, तब हनुमानजी ने एक बड़ा सा वृक्ष उसके सामने फेंकते हुए उसे युद्ध करने के लिए ललकारा।
हनुमानजी को देखकर गुस्से से अक्षय कुमार की आंखें लाल हो गईं। युद्ध आरंभ करते हुए उसने हनुमानजी पर कई बाण छोड़े, लेकिन उनका हनुमानजी पर कोई असर नहीं हुआ। परन्तु वह फिर भी बाण छोड़ता चला गया। अपने शत्रु के इस प्रयास को देखते हुए हनुमानजी उसकी वीरता देखकर प्रसन्न थे।
खुद को शत्रु के बाणों से बचाते हुए हनुमानजी मन ही मन खुद से एक सवाल पूछ रहे थे। वे सोच रहे थे कि यह शत्रु बेहद शक्तिशाली है, यह एक वीर योद्धा है और ऐसे योद्धा को मारना क्या सच में सही होगा।
किन्तु अंत में उन्होंने यह फैसला किया कि धर्म के मार्ग पर कुछ भी सही-गलत नहीं होता, जो धर्म है वही सही मार्ग है। अभी हनुमानजी अपना विचार दृढ़ कर ही रहे थे कि अक्षय कुमार का बल बढ़ता जा रहा था।
अतः हनुमानजी ने अक्षय कुमार को मारने का निर्णय कर लिया। वह वायु की तेज गति से उसके रथ पर कूदे और उसे पूरी तरह नष्ट कर दिया। इसके बाद दोनों के बीच द्वंद युद्ध हुआ और अंततः अक्षय कुमार मृत्यु को प्राप्त हो गया।
अक्षय कुमार की मृत्यु का संदेश जैसे ही रावण तक पहुंचा वह हताश हो गया। यह उसके लिए एक बड़ा अपमान भी था, क्योंकि कोई वानर उसी के क्षेत्र में दाखिल होकर उसी की संपत्ति को हानि पहुंचा रहा था। लेकिन रावण ने फिर भी हार ना मानने का फैसला किया।
उसने तुरन्त अपने पुत्र मेघनाद को दरबार में बुलाया और उससे उस वानर को पकड़कर दरबार में लाने का हुक्म दिया। रावण ने खासतौर से मेघनाद से कहा कि तुम उस वानर को मारोगे नहीं, बल्कि बांधकर मेरे सामने लाओगे।
पिता की आज्ञा का पालन करते हुए शीघ्र ही मेघनाद रथ पर बैठा और हनुमानजी से युद्ध करने चल पड़ा। उसका रथ चार सिंह खींच रहे थे। हनुमानजी ने जैसे ही मेघनाद को अपनी ओर आता देखा तो वे बागीचे के दूसरी ओर भागने लगे। उन्होंने एक विशाल वृक्ष उखाड़ा और जोर से मेघनाद की ओर फेंका। ऐसा करने से मेघनाद का रथ टूट गया और वह नीचे आ गिरा। मेघनाद के साथ आए अन्य राक्षसों को हनुमानजी ने एक-एक करके मसलना शुरू कर दिया।
राक्षसों को खत्म कर अब हनुमानजी मेघनाद की ओर बढ़े। दोनों में घमासान युद्ध हुआ। इस बीच मेघनाद ने अपनी माया शक्ति का इस्तेमाल भी करना चाहा लेकिन इसका हनुमानजी पर कोई असर नहीं हो रहा था। अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, तब हनुमानजी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूं तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी।
उसने हनुमानजी को ब्रह्मबाण मारा, जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिर पड़े। जब उसने देखा कि हनुमानजी मूर्छित हो गए हैं, तब वह उनको नागपाश से बांधकर रावण के सामने ले गया।
ब्रह्माजी के एक वरदान के अनुसार एक नागपाश हनुमानजी को एक मुहूर्त के लिए ही बंधक बना सकता था, इसलिए वह घबराए नहीं। दूसरी ओर मेघनाद को लगा कि वह हनुमानजी को बंदी बनाने में सफल हुआ और बेहद प्रसन्न हो गया।
किन्तु हनुमानजी के दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था। वे लंका तो गए थे किन्तु लंका का दहन करने के लिए और इससे अच्छा अवसर उन्हें शायद ही प्राप्त होता। अंत में भारी संख्या में सैनिकों की कड़ी सुरक्षा होते हुए भी हनुमानजी लंका दहन कर वहां से वापस लौट आए।
संगत का प्रभाव*
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एक राजा का तोता मर गया। उन्होंने कहा-- मंत्रीप्रवर! हमारा पिंजरा सूना हो गया। इसमें पालने के लिए एक तोता लाओ। तोते सदैव तो मिलते नहीं। राजा पीछे पड़ गये तो मंत्री एक संत के पास गये और कहा-- भगवन्! राजा साहब एक तोता लाने की जिद कर रहे हैं। आप अपना तोता दे दें तो बड़ी कृपा होगी। संत ने कहा- ठीक है, ले जाओ।
राजा ने सोने के पिंजरे में बड़े स्नेह से तोते की सुख-सुविधा का प्रबन्ध किया। ब्रह्ममुहूर्त में तोता बोलने लगा-- ओम् तत्सत्....ओम् तत्सत् ... उठो राजा! उठो महारानी! दुर्लभ मानव-तन मिला है। यह सोने के लिए नहीं, भजन करने के लिए मिला है।
'चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर। तुलसीदास चंदन घिसै तिलक देत रघुबीर।।'
कभी रामायण की चौपाई तो कभी गीता के श्लोक उसके मुँह से निकलते। पूरा राजपरिवार बड़े सवेरे उठकर उसकी बातें सुना करता था। राजा कहते थे कि सुग्गा क्या मिला, एक संत मिल गये।
हर जीव की एक निश्चित आयु होती है। एक दिन वह सुग्गा मर गया। राजा, रानी, राजपरिवार और पूरे राष्ट्र ने हफ़्तों शोक मनाया। झण्डा झुका दिया गया। किसी प्रकार राजपरिवार ने शोक संवरण किया और राजकाज में लग गये। पुनः राजा साहब ने कहा-- मंत्रीवर! खाली पिंजरा सूना-सूना लगता है, एक तोते की व्यवस्था हो जाती!
मंत्री ने इधर-उधर देखा, एक कसाई के यहाँ वैसा ही तोता एक पिंजरे में टँगा था। मंत्री ने कहा कि इसे राजा साहब चाहते हैं। कसाई ने कहा कि आपके राज्य में ही तो हम रहते हैं। हम नहीं देंगे तब भी आप उठा ही ले जायेंगे। मंत्री ने कहा-- नहीं, हम तो प्रार्थना करेंगे। कसाई ने बताया कि किसी बहेलिये ने एक वृक्ष से दो सुग्गे पकड़े थे। एक को उसने महात्माजी को दे दिया था और दूसरा मैंने खरीद लिया था। राजा को चाहिये तो आप ले जायँ।
अब कसाईवाला तोता राजा के पिंजरे में पहुँच गया। राजपरिवार बहुत प्रसन्न हुआ। सबको लगा कि वही तोता जीवित होकर चला आया है। दोनों की नासिका, पंख, आकार, चितवन सब एक जैसे थे। लेकिन बड़े सवेरे तोता उसी प्रकार राजा को बुलाने लगा जैसे वह कसाई अपने नौकरों को उठाता था कि उठ! हरामी के बच्चे! राजा बन बैठा है। मेरे लिए ला अण्डे, नहीं तो पड़ेंगे डण्डे!
राजा को इतना क्रोध आया कि उसने तोते को पिंजरे से निकाला और गर्दन मरोड़कर किले से बाहर फेंक दिया।
दोनों सुग्गे, सगे भाई थे। एक की गर्दन मरोड़ दी गयी, तो दूसरे के लिए झण्डे झुक गये, भण्डारा किया गया, शोक मनाया गया। आखिर भूल कहाँ हो गयी? अन्तर था तो संगति का! सत्संग की कमी थी।
'संगत ही गुण होत है, संगत ही गुण जाय।
बाँस फाँस अरु मीसरी, एकै भाव बिकाय।।'
सत्य क्या है और असत्य क्या है? उस सत्य की संगति कैसे करें?
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✍🏻अंतिम *सांस* गिन रहे *जटायु* ने कहा कि मुझे पता था कि मैं *रावण* से नही *जीत* सकता लेकिन तो भी मैं *लड़ा* ..यदि मैं *नही* *लड़ता* तो आने वाली *पीढियां* मुझे *कायर* कहती
🙏जब *रावण* ने *जटायु* के *दोनों* *पंख* काट डाले... तो *काल* आया और जैसे ही *काल* आया ...
तो *गिद्धराज* *जटायु* ने *मौत* को *ललकार* कहा, --
" *खबरदार* ! ऐ *मृत्यु* ! आगे बढ़ने की कोशिश मत करना... मैं *मृत्यु* को *स्वीकार* तो करूँगा... लेकिन तू मुझे तब तक नहीं *छू* सकता... जब तक मैं *सीता* जी की *सुधि* प्रभु " *श्रीराम* " को नहीं सुना देता...!
*मौत* उन्हें *छू* नहीं पा रही है... *काँप* रही है खड़ी हो कर...
*मौत* तब तक खड़ी रही, *काँपती* रही... यही इच्छा मृत्यु का वरदान *जटायु* को मिला।
किन्तु *महाभारत* के *भीष्म* *पितामह* *छह* महीने तक बाणों की *शय्या* पर लेट करके *मौत* का *इंतजार* करते रहे... *आँखों* में *आँसू* हैं ... रो रहे हैं... *भगवान* मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं...!
कितना *अलौकिक* है यह दृश्य ... *रामायण* मे *जटायु* भगवान की *गोद* रूपी *शय्या* पर लेटे हैं...
प्रभु " *श्रीराम* " *रो* रहे हैं और जटायु *हँस* रहे हैं...
वहाँ *महाभारत* में *भीष्म* *पितामह* *रो* रहे हैं और *भगवान* " *श्रीकृष्ण* " हँस रहे हैं... *भिन्नता* *प्रतीत* हो रही है कि नहीं... *?*
अंत समय में *जटायु* को प्रभु " *श्रीराम* " की गोद की *शय्या* मिली... लेकिन *भीष्म* *पितामह* को मरते समय *बाण* की *शय्या* मिली....!
*जटायु* अपने *कर्म* के *बल* पर अंत समय में भगवान की *गोद* रूपी *शय्या* में प्राण *त्याग* रहा है....
प्रभु " *श्रीराम* " की *शरण* में..... और *बाणों* पर लेटे लेटे *भीष्म* *पितामह* *रो* रहे हैं....
ऐसा *अंतर* क्यों?...
ऐसा *अंतर* इसलिए है कि भरे दरबार में *भीष्म* *पितामह* ने *द्रौपदी* की इज्जत को *लुटते* हुए देखा था... *विरोध* नहीं कर पाये थे ...!
*दुःशासन* को ललकार देते... *दुर्योधन* को ललकार देते... लेकिन *द्रौपदी* *रोती* रही... *बिलखती* रही... *चीखती* रही... *चिल्लाती* रही... लेकिन *भीष्म* *पितामह* सिर *झुकाये* बैठे रहे... *नारी* की *रक्षा* नहीं कर पाये...!
उसका *परिणाम* यह निकला कि *इच्छा* *मृत्यु* का *वरदान* पाने पर भी *बाणों* की *शय्या* मिली और ....
*जटायु* ने *नारी* का *सम्मान* किया...
अपने *प्राणों* की *आहुति* दे दी... तो मरते समय भगवान " *श्रीराम* " की गोद की शय्या मिली...!
जो दूसरों के साथ *गलत* होते देखकर भी आंखें *मूंद* लेते हैं ... उनकी गति *भीष्म* जैसी होती है ...
जो अपना *परिणाम* जानते हुए भी...औरों के लिए *संघर्ष* करते है, उसका माहात्म्य *जटायु* जैसा *कीर्तिवान* होता है।
🙏 सदैव *गलत* का *विरोध* जरूर करना चाहिए। " *सत्य* परेशान जरूर होता है, पर *पराजित* नहीं। 🙏🏻🙏🏻🙏🏻*
[06/04, 08:02] Morni कृष्ण मेहता: एक गांव में कृष्णा बाई नाम की बुढ़िया रहती थी वह भगवान श्रीकृष्ण की परमभक्त थी। वह एक झोपड़ी में रहती थी। कृष्णा बाई का वास्तविक नाम सुखिया था पर कृष्ण भक्ति के कारण इनका नाम गांव वालों ने कृष्णा बाई रख दिया।
घर घर में झाड़ू पोछा बर्तन और खाना बनाना ही इनका काम था। कृष्णा बाई रोज फूलों का माला बनाकर दोनों समय श्री कृष्ण जी को पहनाती थी और घण्टों कान्हा से बात करती थी। गांव के लोग यहीं सोचते थे कि बुढ़िया पागल है।
एक रात श्री कृष्ण जी ने अपनी भक्त कृष्णा बाई से यह कहा कि कल बहुत बड़ा भूचाल आने वाला है तुम यह गांव छोड़ कर दूसरे गांव चली जाओ।
अब क्या था मालिक का आदेश था कृष्णा बाई ने अपना सामान इकट्ठा करना शुरू किया और गांव वालों को बताया कि कल सपने में कान्हा आए थे और कहे कि बहुत प्रलय होगा पास के गाव में चली जा।
अब लोग कहाँ उस बूढ़ी पागल का बात मानने वाले जो सुनता वहीं जोर जोर ठहाके लगाता। इतने में बाई ने एक बैलगाड़ी मंगाई और अपने कान्हा की मूर्ति ली और सामान की गठरी बांध कर गाड़ी में बैठ गई। और लोग उसकी मूर्खता पर हंसते रहे।
बाई जाने लगी बिल्कुल अपने गांव की सीमा पार कर अगले गांव में प्रवेश करने ही वाली थी कि उसे कृष्ण की आवाज आई - अरे पगली जा अपनी झोपड़ी में से वह सुई ले आ जिससे तू माला बनाकर मुझे पहनाती है। यह सुनकर बाई बेचैन हो गई तड़प गई कि मुझसे भारी भूल कैसे हो गई अब मैं कान्हा का माला कैसे बनाऊंगी?
उसने गाड़ी वाले को वहाँ रोका और बदहवास अपने झोपड़ी की तरफ भागी। गांव वाले उसके पागलपन को देखते और खूब मजाक उडाते।
बाई ने झोपड़ी में तिनकों में फंसे सुई को निकाला और फिर पागलो की तरह दौडते हुए गाड़ी के पास आई। गाड़ी वाले ने कहा कि माई तू क्यों परेशान हैं कुछ नही होना। बाई ने कहा अच्छा चल अब अपने गांव की सीमा पार कर। गाड़ी वाले ने ठीक ऐसे ही किया।
अरे यह क्या? जैसे ही सीमा पार हुई पूरा गांव ही धरती में समा गया। सब कुछ जलमग्न हो गया।
गाड़ी वाला भी अटूट कृष्ण भक्त था।येन केन प्रकरेण भगवान ने उसकी भी रक्षा करने में कोई विलम्ब नहीं किया।
इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि प्रभु जब अपने भक्त की मात्र एक सुई तक की इतनी चिंता करते हैं तो वह भक्त की रक्षा के लिए कितना चिंतित होते होंगे। जब तक उस भक्त की एक सुई उस गांव में थी पूरा गांव बचा था
इसीलिए कहा जाता है कि
भरी बदरिया पाप की बरसन लगे अंगार
संत न होते जगत में जल जाता संसार।
🙏🏻🙏🏻🙏🏻जय श्रीकृष्ण🙏🏻🙏🏻🙏🏻
😀😀😀😉😉😉😚😚😚👩🎓
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