**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज
- रोजाना वाकियात- 14 अक्टूबर 1932- शुक्रवार:-
ख्वाजा हसन निजामी को मालिक ने अलावा और गुणों के हास्य और प्रकृति भी इनायत की हैः जिसका वह हमेशा उचित इस्तेमाल करते हैं और उसकी मार्फत अपना विषय निहायत खूबी से बयान कर देते हैं। आपके रोजनामचे में बुढ्ढों के लिए है खैरात का जिक्र हो रहा है ।आपकी राय है कि जो लोग खैरात के आदी हो जाते हैं वह कभी काम को हाथ नहीं लगाते । मेरा तजुर्बा भी यही है। मैंने कई मर्तबा ब्राह्मणों को कहते सुना, " हम तो मांगखानी जात है । हमसे कलों पर काम न हो सकेगा " इसी वजह से सत्संग में चंदा मांगने का तरीका दूषित करार दिया गया और इसी वजह से मैंने बाहरी लोगों की पेश की हुई माली आर्थिक सहायता मंजूर करने से इंकार कर दिया । भीख मांगने या खैरात लेने की ऐसी दुर्व्यसन है कि एक मर्तबा लग जाने पर मुश्किल ही से छूटती है । अगर सतसंगियों को मौका दिया जाये तो निहायत आसानी से लाख दो लाख रुपया बतौर चंदा वसूल करके भेंट कर सकते हैं। लेकिन मैं उनसे यही कहता हूं कि अपनी मेहनत के पैदा किये हुए चार आनों में से एक पैसा या धेला भेंट करो। तुम्हारा यह धेला भीख माँगे के करोड रूपये से बेहतर है। भीख माँगने कीआदत इंसान के पौरुष का खात्मा कर देती है। खैर! ख्वाजा साहब तहरीर फरमाते है:-" एक मस्जिद के सामने मुल्ला की सूखी रोटियाँ सूख रही थी एक भिश्ती के बैल ने वह रोटियाँ खा ली। मुल्ला ने बैल को मारा। भिश्ती रोने लगा। मुल्ला ने कहा मैने बैल को मारा है तुझे नही मारा । तू क्यो रोता है।भिश्ती ने कहा इसलिये रोता हूँ कि मेरा बैल भी मेरी तरह निकम्मा हो जायेगा क्योंकि उसने मुफ्त की आई हुई रोटियाँ खा ली है।"
तबीयत बदस्तूर रोगी है। लेटे लेटे काम किया जाता है। रात के सतसंग में शिरकत से वंचित हूँ। सुबह की सैर और शाम की लॉन पर बैठक स्थगित है ।आज गीता का हिंदी अनुवाद भी छपना शुरू हो गया है ।
उर्दू अनुवाद निस्फ से ज्यादा छप चुका है।
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
परम गुरु हुजूर महाराज-
प्रेम पत्र -भाग -1 कल से आगे:-(7)
इन गुरुओं से जिनका जिक्र ऊपर लिखा गया (जो वह अपने मत के पूरे निष्ठावान भी होवें) जीव का सच्चा उद्धार नहीं हो सकता है , क्योंकि उनका सिद्धांत पद पाया की हद में है । इस वास्ते अब उन महापुरुषों का जिक्र, कि जिनके वसीले से जीव सच्ची मुक्ति हासिल कर सके, किया जाता है और उनका नाम संत सतगुरु और साधगुरु है।।
संत सतगुरु उनको कहते हैं कि जो पिंडी और ब्रह्मांडी माया की हद के पार, जहां दयाल देंश अथवा निर्मल चेतन देश है,पहुंचकर सच्चे मालिक सत्तपुरुष राधास्वामी से मिले । और उनका रास्ता चलने का घटना है और सुरत शब्द योग के अभ्यास से वह रास्ता तय करके अभ्यासी उस देश में पहुंच सकता है और वहां पहुंचकर जन्म मरण से रहित होकर परम आनंद को प्राप्त होता है। वह देश भी अमर है और वहां का आनंद भी अपार और अमर है ।।
साधगुरु उनको कहते हैं कि जो संतों की दृष्टि के मुआफिक अभ्यास करते हैं मुकाम सुन्न में , जो त्रिकुटी और ओंकारपद के परे है, पहुंचे हैं और आगे संत गति को प्राप्त होने वाले हैं। इनसे मिलकर भी जीव को भी वही फायदा हो सकता है जैसा कि संत सतगुरछ से, क्योंकि साधुगुरु संत सतगुरु के बनाए हुए हैं।।
(8) जब तक कि जीव को इन दोनों महापुरुषों में से कोई ना मिलेगा और वह उनको अपना गुरु या सतगुरु धारण करके प्रेम सहित सुरत शब्द योग की कमाई ना करेगा , तब तक सच्चा उद्धार या सच्ची में किसी तरह हासिल नहीं हो सकती है । इस वास्ते सब जीवों को , जो अपना सच्चा कल्याण चाहते हैं , मुनासिब और जरूरी है कि संत सद्गुरु या साधगुरु की खोज उनकी शरण लेवें और उन्ही का पाठ और उनके भेद और किसी मत में नहीं है।
क्रमशः
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**
*परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-
सत्संग के उपदेश -भाग 2-
कल से आगे:-
मगर जैसा कि ऊपर इशारा किया गया यह एतराज चेतन जौहर व स्थूल मसाले के बाहमी फर्क को नजरअंदाज करने से पैदा होता है ।अगर अंश का अनुमान करते वक्त बजाय लकड़ी के टुकड़ों व पानी के कतरों के सूर्य की किरणों की जानिब तवज्जुह मुखातिब की जाए और सूर्य (जो कि अंशी भंडार रूप है) और सूर्य की किरणों की( जो कि अंश रूप है ) का बाहमी रिश्ता निगाह में रक्खा जावे तो सुरतों की हस्ती से मालिक के लातादाद टुकड़ों में तक्सीम हो जाने का भ्रम आसानी से दूर हो सकता है । लेकिन मालूम हो कि चेतन जोहर सूर्य की किरणों से भी बदर्जहा लतीफ यानी सूक्ष्म है और जब तक किसी शख्स को रूहानी मंडल का वाकई तजुर्बा ना हो जाए उसका इस जोहर की निस्बत अनुमान लाजमी तौर पर गलत होगा ।इसलिए यह समझ में आना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि सूरत मालिक का अंश कहलाते हुए मालिक से किसी हालत में जुदा नहीं होती और रचना होने से सिर्फ यह सूरत पैदा हुई है कि सुरत का रुख बाहर की तरफ से यानी प्रकृति की जानिब हो गया है लेकिन अंतर में सुरत का मालिक के साथ झीना रिश्ता बराबर कायम है और अखंडित है और उद्धार व मोक्ष के मानी यही है कि किरणरुपी सुरत का रुख बाहर की जानिब से हटकर अपने सूर्यरुपी निज भंडार की जानिब कियम हो। संतमत की इस तालीम को सुनकर दुखी से दुखी और कंगाल से कंगाल को बड़ी जबरदस्त तकवियत हासिल होती है और शरीर व मन संबंधी सभी क्लैश निहायत बदहैसियत व कमजोर दिखलाई देने लगते हैं और.शौक व हिम्मत पैदा होती है कि मुनासिब साधन करके मौजूदा जीवावस्था के पार होकर और दरमियानी मंजिलें तय करके जहां तक मुमकिन जल्द निर्मल चेतन यानी खालिस रुहानी अवस्था या गति 'जो सूरत की असलु हालत है" हासिल की जावे। नीज समझ में आ जाता है कि संतमत यानी राधास्वामी मत में साध व संत व सतगुरु की जो इस कदर महिमा की गई है वह निहायत जायज व दुरुस्त हैं क्योंकि जिस पुरुष ने शरीर व मन के बंधनों पर फतह हासिल करके मन के बंधनो पर फतह हासिल करके मन के घाट की जागृति के बजाय सूरत के घाट की जागृति हासिल कर ली है या दूसरे लफ्जों में जो नाला समुद्र में दाखिल हो गया है या जो किरण बजाय बाहर मुखी चमकने के अपने सूर्य में लोट गई है, उसमें और सच्चे मालिक में कोई भेद नहीं है
क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
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