*परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज
- रोजाना वाकिआत -15 ,16 अक्टूबर 1932- शनिवार व रविवार:
- प्रेम प्रचारक मुद्रित 10 अक्टूबर पढ़कर लाहौर से एक नावाकिफ नौजवान ने जो इस वक्त वहां सेकंड ईयर क्लास में पढ़ता है चंद मशवरे भेजकर अपनी सेवाएं पेश की है । उनकी राय है कि आक यानी मदार का धागा बनाया जाए, मसूरी देहरादून वगैरह मकामात में डेरिया खोली जावें और सिनेमा का काम जारी किया जाए। उनका ख्याल है कि धागा बनाने की मशीन जर्मनी से मिल जाएगी और अगर उनको 5 साल के लिए सत्संग के खर्चे से जर्मनी भेज दिया जाए तो सब कुछ सीख कर लौट आएंगे और दयालबाग में मुझसे "मिलकर काम करेंगे। वगैरह-वगैरह। उस नौजवान को मालूम हो कि सत्संग उसकी इन अनुकंपा के लिए बेहद ऋणी है । लेकिन यहां के कारकून को दुनिया का काफी तजुर्बा हासिल है। इसलिये वह सिर्फ उन लोगों की बात सुनते हैं जिन्हें कोई काम करना आता है ।मिलकर काम करने के लिए मेरी तरफ से भी शुक्रिया।।
एक सतसंगिन बहन ने चिट्ठी भेजी है जिसमें लिखा है कि अपनी बीमारी मुझे दे दीजिए। मैं काफी शक्तिशाली व तंदुरुस्त हूँ। इसे आसानी से बर्दाश्त कर लूंगी । खूब ! बीमारियों का इस तरह तबादला होने लगे तो वोटिंग की तरह लोगों के लिए यह भी एक नया रोजगार निकल आवे। प्रेमिन बहन को वाजह हो कि मालिक की बख्शी हुई दात हर शख्स को प्यारी होती है और मैं इस कायदे से अपवाद नहीं हूं । मालिक हमारा पिता है। सच्चा हितकारी है । जो शख्स उसका बख्शा हुआ हलवा खाता रहा हो उसे उसके बख्शे हुए चने भी खाने चाहिए। चाहे वह चने लोहे ही के क्यों ना हो। शुक्रिया! लाहौर के अखबार प्रकाश का ताजा नंबर अवलोकन से गुजरा। उसमें डायरी 21 सितंबर से एक इन्दराज का उद्धरण नकल करके चुटकी ली गई है ।यह स्पष्ट रूप से बेइंसाफी है। पूरा पैराग्राफ नकल करके ऐतराज करना चाहिए था।।
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**
[6/3, 04:51] +91 97176 60451: *
*परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज -सत्संग के उपदेश- भाग दूसरा- कल से आगे:-.
लेकिन साथ ही एक किस्म की बात सुनकर और असलियत को ना समझ कर बहुत से भाई बड़े जोर शोर के साथ एतराज करते हैं कि आत्मा किसी हालत में परमात्मा नहीं बन सकता। मगर यह कौन कहता है कि आत्मा परमात्मा बन जाता है। संतमत की तालीम यह है कि कतरा समुंद्र में दाखिल होकर कतरा नहीं रहता बल्कि समुंदर से मिल जाता है और यह नहीं है कि कतरा खुद समुद्र बन जाता है। डाक्टर थीबो व मैक्समूलर ने वेदांत सूत्रों पर विचार करते वक्त यह नतीजा निकाला कि दूसरे अध्याय के तीसरे पद के 43 वें सूत्र के वही मानी दुरुस्त हैं जो श्रीरामानुज जी ने बयान किए हैं और रामानुज जी यह के मायने यह है कि आत्म यानी जीव ब्रह्म का अंश है।। अलावा इसके श्रीमद्भागवत गीता में कृष्ण महाराज ने इस नुक्ते पर रोशनी डाली है। आप अध्याय 15 श्लोक 7 में फरमाते हैं कि खुद मेरा ही अंश इस जीवलोक में अविनाशी जीव बनकर इंद्रियों को , जिनमें छठा( यानी छठी इंद्रिय) मन है और जो प्रकृति म़े कायम है, अपनी और आकर्षित करता है । इस श्लोक में कृष्ण महाराज ने अपने तई अंशी ब्रह्म और जीव को अपना अंश या जुज बयान किया है ।। इसके अतिरिक्त जिन भाइयों ने उपनिषदों के' तत्वमसि' सिद्धांत पर विचार किया है या इस सिद्धांत पर ऋषियों के विचारों का मुताला किया है वे बजोर जो कह सकेंगे कि पुराने जमाने में वैदिक धर्म के मानने वाले और वैदिक धर्म का अनुशासन करने वाले और वेदज्ञ यानी वेदों का अर्थ जानने वाले ऋषियों का भी यही मत था। क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
**परम गुरु हुजूर महाराज -
प्रेम पत्र -भाग्-1 कल से आगे
:-(9)जो कोई कहे कि हम एक बार गुरु कर चुके हैं (और वह उसी किस्म में से है जिनका जिक्र पहले हो चुका है ) अब दोबारा संत सतगुरु या साधगुरछ गुरु को कैसे गुरु धारण करें ,इसका जवाब यह है कि जो गुरु की बाहरमुखी पूजा का, जैसे मूरत और तीर्थ का, उपदेश करते हैं या ईष्ट ब्रह्म या ईश्वर या देवताओं का बँधवाते हैं या अंतर में नाम का सुमिरन या दृष्टि का साधन या ध्यान ,बिना पता और भेद उस स्वरूप के जिसका ध्यान किया जावे , बताते हैं पर घट का भेद और जुगत अंतर में चलने की नहीं जानते और सच्चे मालिक और उसके धाम की ओर उससे मिलने के रास्ते की जिनको खबर भी नहीं है, ऐसो का नाम साधगुरु या सतगुरू नहीं हो सकता है।फिर जब कि किसी ने इनसे उपदेश लिया है और इनको भरम करके और अनसमझता से गुरु माना - और असल में वे गुरु नहीं है -तो फिर इनके छोड़ने में किसी तरह का दोष या पाप या नुकसान नहीं हो सकता ।यह लोग तो अकसर करके मान और धन के लोभी है और सच्चे प्रमार्थ से न आप वाकिफ हैं और न दूसरों को समझा सकते हैं और ना कभी अपने चेलों से परमार्थ की कमाई का हाल पूछते हैं और ना जिक्र करते हैं । फिर उनके छोड़ने में किसी तरह का हर्ज नहीं हो सकता है, अलबत्ता उनका पूजा और भेंट बंद न करनी चाहिए यानी जब वे आवें तो उनके दस्तूर के मुआफिक पूजा भेंट बंद कर देनी चाहिए इतना ही वह चाहते हैं। संतों का बचन है-
झूठे गुरु की टेक को तजत न कीजै बार।। द्वार न पावे शब्द का भटके बारंबार ।।
अलबत्ता जिसको पहले ही भाग से सच्चे और पूरे गुरु मिल जावें तो उसको फिर कोई जरूरत दूसरे गुरु के खोजने और धारण करने की ना होगी , क्योंकि वे सब भेद और जुगत बता कर पूरु दो शांति सेवक की कर देंगे और हमें उसके अभ्यास में मदद देते रहेंगे। और जो कि मूर्खता से हठ करके ओछे गुरु को नहीं छोड़ेगा और जब स़त सतगुरू भाग से मिले उनकी सरन नहीं लेगा, तो उसका भारी अकाल होगा यानी उसका हरगिज़ नहीं होवेडा। क्रमशः.
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**
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