श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: दशम अध्यायः श्लोक 1-6 का हिन्दी अनुवाद
जडभरत और राजा रहूगण की भेंट श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! एक बार सिन्धु सौवीर देश का स्वामी राजा रहूगण पालकी पर चढ़कर जा रहा था। जब वह इक्षुमती नदी के किनारे पहुँचा, तब उनकी पालकी उठाने वाले कहारों के जमादार को एक कहार की आवश्यकता पड़ी। कहार की खोज करते समय दैववश उसे ये ब्राह्मण देवता मिल गये। इन्हें देखकर उसने सोचा, ‘यह मनुष्य हष्ट-पुष्ट, जवान और गठीले अंगों वाला है। इसलिये यह तो बैल या गधे के समान अच्छी तरह बोझा ढो सकता है।’ यह सोचकर उसने बेगार में पकड़े हुए अन्य कहारों के साथ इन्हें भी बलात् पकड़कर पालकी में जोड़ दिया। महात्मा भरत जी यद्यपि किसी प्रकार इस कार्य के योग्य नहीं थे, तो भी वे बिना कुछ बोले चुपचाप पालकी को उठा ले चले। वे द्विजवर, कोई जीव पैरों तले दब न जाये- इस डर से आगे की एक बाण पृथ्वी देखकर चलते थे। इसलिये दूसरे कहारों के साथ उनकी चाल का मेल नहीं खाता था; अतः जब पालकी टेढ़ी-सीधी होने लगी, तब यह देखकर राजा रहूगण ने पालकी उठाने वालों से कहा- ‘अरे कहारों! अच्छी तरह चलो, पालकी को इस प्रकार ऊँची-नीची करके क्यों चलते हो?’ तब अपने स्वामी का यह अपेक्षायुक्त वचन सुनकर कहारों को डर लगा कि कहीं राजा इन्हें दण्ड न दें। इसलिये उन्होंने राजा से इस प्रकार निवेदन किया- ‘महाराज! यह हमारा प्रमाद नहीं है, हम आपकी नियम मर्यादा के अनुसार ठीक-ठीक ही पालकी ले चल रहे हैं। यह एक नया कहार अभी-अभी पालकी में लगाया गया है, तो भी यह जल्दी-जल्दी नहीं चलता। हम लोग इसके साथ पालकी नहीं ले जा सकते’। कहारों के ये दीन वचन सुनकर राजा रहूगण ने सोचा, ‘संसर्ग से उत्पन्न होने वाला दोष एक व्यक्ति में होने पर भी उससे सम्बन्ध रखने वाले सभी पुरुषों में आ सकता है। इसलिये यदि इसका प्रतीकार न किया जाये तो धीरे-धीरे ये सभी कहार अपनी चाल बिगाड़ लेंगे।’ ऐसा सोचकर राजा रहूगण को कुछ क्रोध हो आया। यद्यपि उसने महापुरुषों का सेवन किया था, तथापि क्षत्रिय स्वभाववश बलात् उसकी बुद्धि रजोगुण से व्याप्त हो गयी और वह उन द्विजश्रेष्ठ से, जिनका ब्रह्मतेज भस्म से ढके हुए अग्नि के समान प्रकट नहीं था, इस प्रकार व्यंग से भरे वचन कहने लगा- ‘अरे भैया! बड़े दुःख की बात है, अवश्य ही तुम बहुत थक गये हो। ज्ञात होता है, तुम्हारे इन साथियों ने तुम्हें तनिक भी सहारा नहीं लगाया। इतनी दूर से तुम अकेले ही बड़ी देर से पालकी ढोते चले आ रहे हो। तुम्हारा शरीर भी तो विशेष मोटा-ताजा और हट्टा-कट्टा नहीं है और मित्र! बुढ़ापे ने अलग तुम्हें दबा रखा है।’ इस प्रकार बहुत ताना मारने पर भी वे पहले की ही भाँति चुपचाप पालकी उठाये चलते रहे। उन्होंने इसका कुछ भी बुरा न माना; क्योंकि उनकी दृष्टि में तो पंचभूत, इन्द्री और अन्तःकरण का संघात यह अपना अन्तिम शरीर अविद्या का ही कार्य था। वह विविध अंगों से युक्त दिखायी देने पर भी वस्तुतः था ही नहीं, इसलिये उसमें उनका मैं-मेरेपन का मिथ्या अध्यास सर्वथा निवृत्त हो गया था और वे ब्रह्मरूप हो गये थे।
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