Wednesday, June 17, 2020

संत सैन भगत दर्शन मानवता के सेवक







संत सैन भगत
दर्शन

 
संपूर्ण विश्व मानव समुदाय के बीच जब अमानवीय व्यवस्था अपने चरमोंत्कर्ष पर पहूचॅ जाती है । और उसके तहत जब मानव प्राणी इस व्यवस्था से त्रस्त हो...
धोरीमन्ना पटवार संघ ने पचपदरा पटवारी के निलंबन का किया विरोध, कार्य बहिष्कार करने की दी चेतावनी।
बाड़मेर, पूर्णिमा पर ब्रह्मसर तीर्थ पर हुआ बड़ी पूजा का आयोजन।
संपूर्ण विश्व मानव समुदाय के बीच जब अमानवीय व्यवस्था अपने चरमोंत्कर्ष पर पहूचॅ जाती है । और उसके तहत जब मानव प्राणी इस व्यवस्था से त्रस्त होकर त्राही त्राही कर उटता है । जब जन कल्याण हेतू इस धारा पर संत महा पुरूषो का जन्मॅ होता है ऐसे संत महा पुरूष ऐसी मानीविय व्यवस्था का खातमा करने के लिए जन आनदोलन करतें है । और अराजकतापूर्ण वातावर्ण को समाप्त कर मानव समाज में मानवता का स्जन का पत प्रदशक का कार्य करते है इनही महा पूरूषो में श्रिरोमणि सैन जी महाराज का नाम विशेष रूप से उल्लेकनिय है सैन जी के जनम स्थान पर सभी सैन बुद्धिजीवी एकमत नही है । कुूछ लेाग उनका जन्म मध्यप्रदेश के बांधव गढ मानते है  जबकी कुछ साथी उन्है सोेहल ठठी पंजाब का बतातें है । बाकी अन्य क्रियाकलपों पर सभी सहमत है । हम यह जन्म की बहस पर न उलझते हुए उनके महान कार्यो पर प्रकाश डाल रहे है ।

समकालीन भगतः  सैन जी के साथ साथ भगत रविदास भगत कबीर भगत नामदेव भगत त्रिलोकचन्द भगत धन्ना भगत सधना भगतिणी पदमावती भगत अत्रतानंद भगणी सुरसरी भगत चोगानंद जी भगत गुलाब नन्द जी भगत भावानंदजी ने भी रामानन्द जी से दीकक्षा ग्रहण की इन भगतो द्वारा रची गई वाणी में भी सैन जी का नाम आता है । अध्यात्मिक क्षेत्र में प्रसिद्वि हासिल कर ली थी ।
यात्राए मध्य काल में सन्त महापुरूष लेाक कल्याण हेतू मानवता के प्रचार-प्रसार के लिए पूर्ण विश्व का भ्रमण करतें थें ताकी अपने विचारो से जनमानस को जाग्रत कर सकें । इस कडी में सैन जी ने भी भिन्न-भिन्न स्थानो के साथ साथ विभिन्न तीर्थ स्थानो की यात्राएं भी की । इन यात्राओ के दौरान वे भेदभाव से ऊपर उठकर जगह-जगह प्रवचन करते और भटकी हुई मानवता का सत्य की राह पर लाने का प्रयास करते। सैन जी की बुवा शोभा देवी जी लाहौर में ब्याही थी सैन जी बहुत दिनो तक इनके पास लाहौर मे रहे वहा इन्होने रहीम खॉ हकीम से भी जर्राह का काम सीखा। बांधव गढ से लाहौर जाते समय सैन जी गंगा स्नान के लिए हरिद्वार में रूके । हरिद्वार में ब्रहाम्णों के साथ छुआ छुत और जात पात के विषय में सैन जी का शास्त्रार्थ हुआ। शास्त्रार्थ में ब्राहम्णो को पराजित करके यह साबित कर दिया कि छुआ छुत और जात पात सब स्वार्थी बाहम्णो की देन हैं। भगवान की नहीं । संत कबीर के निमत्रण पर सैन जी लाहोर से मुलतान आ गये वहा उन्होने मीराबाई को भी उपदेश दिया तथा 15 दिन तक मीराबाई के यहा रहकर सत्संग करते रहें। सैन जी ने सत्संग महीमा के समस्त पंजाब वालो का मन मोह लिया और संत शिरोमणि का प्राप्त किया उन्होने पंजाब में सर्व धर्म सच्ची मानवता और अध्यातमिक शिक्षा पर जगह-जगह घूम कर प्रचार किया  । प्रतापपुरा जिला जालंधर में डेरा बाबा सैन भगत जी का दशर्नीय स्थल है।यहा प्रतिदिन सैन ग्रंथ से पाठ और विशाल भंडारे का आयोजन किया जाता है। तमाम पंजाब का भ्रमण कर सैन जी पुनः लाहौर लौट आए तथा कुछ दिन लाहौर में रहकर बांधव गढ के लिए रवाना हो गए। संत सैन जी उत्तर प्रदेष का भ्रमण करते हुए काशी पहुंच गए जहां इनकी भेट संत रविदास (रेदास) के साथ हुई। काषी में इन्हें ब्राह्राणो के भारी विरोध का सामना करना पडा जिसका इन्होने डटकर मुकाबला किया तथा अपने तर्को के आधार पर ब्राह्रणों का शास्त्रार्थ में पराजित कर यह साबित कर दिया कि कोई भी मनुश्य जाति के आधार पर छोटा बडा नहीं होता भगवान ने सबको बराबर बनाया है। ये जातियां स्वार्थी मनुष्यों की देन है। इस विजय के बाद सारी काशी जी में सैन जी की खुब जय-जयकार हुई और इनके मूल सिद्धांत को माना गया। अपने सत्संग और उपदेषों का प्रभाव छोडतें हुए सैन जी संत संत रविदास से विदा होकर बांधव गढ के लिए रवाना हो गए।

मध्यप्रदेश में भी सैन जी ने अधिकांश समय व्यतीत किया, यहां मंदसौर में इनकी सैन भत्कि पीठ की भव्य इमारत का निर्माण किया गया है। इसके साथ-साथ महाराष्ट में भी सैन जी ने काफी समय प्रवास किया जाहं इन्होने मराठी भाशा में 150 अभंगों की रचना की।
राजस्थान के सैन बंधु भला क्यों पीछे रहें जो ऐसे महान संत से अपना नाता न जोडे ये तो कहते है कि सैन जी राजस्थानी थें। उन्होने राजस्थान में जगह-जगह भ्रमण करके अपने शब्दों,रसों,भजनों कविताओं और रचनाओं से अवगत करवाया। आज जितनी मान्यता सैन जी की राजस्थान में है। उतनी अन्य किसी राज्य में नहीं। यहां सैन भत्कि पीठ जोधपुर  विभिन्न नगरो के तिराहों व चौराहों पर सैन प्रतिमाओं की स्थापना तथा विभिन्न मार्गो का सैन जी के नाम पर नामकरण इस बात का प्रमाण है। सैन जी ने दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश,मध्यप्रदेश,मुल्तान,पंजाब,श्रीनगर,राजस्थान,उडीसा,तथा महाराष्ट के विभिन्न स्थानों व विभिन्न तीर्थस्थानों पर अपने सत्संग का प्रवाह किया इस प्रकार इस प्रकार सैन जी का प्रवाह लगभग सभी प्रांतों में रहा। वह जहां कहीं भी रहे वहां उन्होनें जाति व धर्म से ऊपर उठकर कार्य किए और सच्ची मानवता का संदेश दिया।

पाखंडो का विरोध: श्री सैन जी महाराज को आडंबर बिल्कुल पसंद नही थे। उन्होने खुद भी ग्रहस्थ जीवन की जिम्मेवारी निभाते हुए धार्मिक कृत्यव्यों का आजीवन पालन किया। उन्होने अपनी यात्राओं के दारैरान देखा कि सभी धार्मिक स्थान पाखंड के अड्डेबन चुके थे। पंडों तथा ढोंगी ब्राह्राणें द्वारा भोली-भाली जनता का कर्म-कांड के नाम पर धार्मिक शोशण किया जा रहा था। उन्होने ब्राह्रमणों द्वारा स्थापित किए गए भ्रम मृत्यू भोज तथा श्राद्ध जैसे संस्कारो का विरोध किया और धार्मिक शोशण के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की। अपने इन कर्म कांड और पााखंडों के विरोध में अनेकों बार ब्राह्मणों से शास्त्रार्थ किया और उन्हे अपने तर्को से पराजित कर पाखंडवाद पर गहरी चोट की। आप कर्म-कांडों तथा जाल के विपरीत सरल गुणों के हिमायती थें। सैन जी सेवा, प्रेम, भक्ति व मधुर व्यवहार को संतों का प्रमुख लक्षण मानते थें।

समाज सुधार एवं मानवीय दृश्टिकोण: संत सैन जी अपने समय के गिने- चुने समाज सुधारको में से क माने जाते थे। उस समय के समाज मे वर्ण भेद ऊंच-नीच,छुआ- छुत, सती प्रथा, बाल विवाह,जैसी कुप्रथाए अपने चर्मोत्कर्स पर थी एसे में सैन जी बडी निभिक्ता के साथ आगे बढकर इन सभी कुप्रथाओं की आलोचना करते। तथा एसे को दोश पूर्ण बताकर समाज सुधार के लिए हर सम्भव प्रयास करते। उन्होने कभी भी रूढीवादी सांमतशाहों के आगे घुटने नहीं टेके उनके विचार बहुत ही स्पष्ट वादी व्यावहारिक थें। सैन जी महाराज का मानवीय दृष्टिकोण बहुत ही स्पष्ट व व्यवहारिक था। उनकी नजर में कोई भी इंसान जन्म से छोटा बडा नही होता उनके विचार से जब ईश्वर ने सबको समान बनाया है तो मानव को उन्हे छोटा बडा बनाने का कोई  अधिकार नहीं उन्होने सम्पूर्ण जाति को ब्रहमा ज्योति का स्वरूप बताया तथा मानवता के प्रति सेवा भाव दया प्रेम और भक्ति की प्रेरणा दी वह प्रेम मार्ग द्वारा ही ईष्वर को प्राप्त करना चाहते थे। तथा धर्म व जाति के आधार पर किसी को छोटा बडा न मानकर सभी से समान रूप से प्रेम करना ही उनकी सबसे बडी ईश्वर भक्ति थी।

गुरूपदः हरिद्वार , काशी व बनारस में अनेक बार ब्राह्राणों को शास्त्रार्थ में पराजित करने के पश्चात करने के पश्चात सैन जी की विद्वता की चारों तरफ धाक जम गई उोर इनकी प्रसिद्धि चारो दिशाओं में तेजी से फैल गई। परिणामस्वरूप् अन्य प्रतिभाओं के साथ साथ कई ब्राह्राण प्रतिभाएं भी इनका शिष्य बनने को लालायित हो उठी। सैन साखी के अनुसार इन्होने जसुपुर के जीवन नाई के साथ साथ कौर दास ब्राह्राण को भी अपना शिष्य बनाया। सैन सागर की साखी के अनुसार जब पंडित को दास ने सैन महाराज से अपना शिष्य बनाने की प्राथना की तब सैन जी ने कौर दास से कहा कि आप तो ऊंची जाति के ब्राह्राण हैं हम नीची जाति के नाई हम आपको क्या ज्ञान दे सकते है? तुम किसी ब्राह्मन के शिष्य क्यों नही बन जातें? तुम किसी ब्राह्राण से ही गुरू दीक्षा लीजिए। तब कौर दास ने काहा कि ऊंची जाति में जन्म लेने से कोई विद्वान नही बन जाता। विद्वान बनने के लिए अच्छे कर्म और अथक मेहनत करनी पडती है। इस प्रकार ब्राह्राण कौर दास वहीं रहकर सैन जी की सेवा करने लगा। तब उसकी सेवा से प्रसन्न होकर सैन जी ने कौर दास को अपना शिष्य बना लिया।

रचनाएं:- संत शिरोमणि सैन जी महाराज आध्यात्मिक गुरू और समाज सुधारक के साथ साथ उच्च कोटि के कवि भी थे। उन्होने अनेक भाषाओं में रचनाए लिखी जिनमें पंजाबी, हिन्दी, मराठी, तथा राजस्थानी भाशाए शामिल है। पंजाबी भाषा (गुरूमुखी) में हस्तलिखित सैन सागर ग्रंथ उपलब्ध है। इसकी एक फोटो प्रतिलिपि देहरा बाबा सैन भगत प्रतापपुरा जिला जालंधर पंजाब में सुरक्षित रखी है। इसमें दो प्रकार की रचनाए दर्ज है। पहली रचनाओं में संत सैन जी की वाणिया दर्ज है।जिनकी मूल संख्या 62 है। दूसरी वे रचनाए हैं जो सैन जी के जीवन से संबंधित है जो उनके किसी श्रद्धालु भक्त या किसी परिवार के सदस्य ने लिखी है। यही सैन सागर इनका सबसे प्राचीन ग्रंथ है।

इतिहासकार एच0एस0 विलियम ने अनपे शब्दों को अभिव्यक्त करते अुए कहा है कि सैन जी उच्च कोटि के कवि थें। उन्होनें अलग अलग भाषाओं में रचना की जो उनकी विद्वता प्रमाणित करती है। उनकी रचनाओं मे बडी मधुरता थी। उनके भजन बडे मनमोहक व भावपूर्ण थे। सैन जी ने समकालीन संतों की वाणी को भली भांति समझा असलिए उनकी वाणियों में भी समकालीन संतों व भगतों के नाम दर्ज है। सैन जी अपनी वाणी में लिखते हैः-
               ‘‘ सब जग ऊंचा, हम नीचे सारे।
               नाभा, रविदास, कबीर, सैन नीच उसारे।।
अपनी वाणी में सैन जी ने मानवीय परिवेश का इतना सशक्त प्रस्तुतीकरण किया है जैसे गागर में सागर भर दिया गया हो। सैन सागर ग्रंथ में सैन जी भगत रविदास जी साखी सैन भगतावली में लिखतें हैः-
                    ‘‘ रविदास भगत ने ऐसी कीनी
                      ठाकुर पाया पकड अधीनी
                      तुलसी दल और तिलक चढाया
                       भोग लपाया हरि धूप दवायां
                       सैन दास हरिगुरू सेवा कीनी
                       राम नाम गुण गाया।।‘‘
श्री सैन सागर ग्रंथ के अतिरिक्त भिन्न भिन्न राज्यों में संत सैन के साहित्य ने महत्वपूर्ण लोकप्रियता प्राप्त की। आपका साहित्य महाराष्ट, राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात जैसे प्रांतों में था। लेकिन सवर्ण जातियो का बोलबाला होने के कारण आपके साहित्य का अधिक प्रचार प्रसार न हो सका। आपके साहित्य की सबसे बडी उपलब्धि भी गुरूग्रंथ साहिब में आपकी वाणी का दर्ज होना है। जिससे आपको बहुत बडा सम्मान प्राप्त हुआ। और सौन समाज का भी गौरव बढा है।

                  गुरूग्रथं साहिब में सैन वाणीः-  गुरूग्रथं साहिब में जहां सिक्खों के सभी गुरूओं की वाणिया दर्ज है। वही सभी संतों को इसमें सम्मान दिया गया है। जिसमे रविदास व कवीरदास के साथ साथ सैन जी महाराज भी एक है। सैन जी द्वारा रचित बहुत सी रचनाए गुरूग्रथं साहिब में संग्रहित है जिनमें गगन बिच थालू प्रमुख है। श्री गुरू अर्जुनदेव जी महाराज अनका सत्कार करते हुए गुरू ग्रंथ साहिब में लिखते हैः-
                      सैन नाई बुत करिया, वह धरि धरि सुनया।
                      हिरदै बसिया पार ब्रहमि भक्तों वि गिनिया।।

गुरू अर्जुन देव जी ने आपकी वाणी को री गुरू ग्रंथ साहिब में शामिल करके आपको गुरूओं व संतो के योग्य स्थान पर बिठाया। चौथे पातशाह री गुरू राम दास जी महाराज द्वारा रचित श्री गुरू ग्रंथ साहिब पृष्ट संख्या 835 पर निम्नलिखित पंक्ति में लिखतें हैः-

                   ‘‘ नामा जे देऊ कबीर कबीर त्रिलोचन आऊ।
                    जाति रविदास चमियार चमीईया।।
                   जे जो मिलै साधु जन संगिति धन।
                  धन्ना जट सैन मिलिया हरि दईया।।
                 स्ंात जन की हरि पैज रखाई।
                भगत बछल अंगीकार करईया।
               नानक सरनि परे जग जीवन।
              हरि किरपा धरि रखईया।

इन पंक्तियों में श्री गुरू रामदास जी ने अपने से पहले हो चुके भगत नामदेव भगत जै देव भगत कबीर भगत रविदास  भगत धन्ना भगत सैन जी ने बारे में पवित्र वचन कहते हुए कहा कि ये सब प्रभु की असीम कृपा से सांसारिक भव वंदन से मुक्त होकर प्रभु रूप् बन गए। सैन जी की उपमा पहली बार गुरू घर से श्री गुरू रामदास जी ने उनका नाम उच्चारण करके की है।

पंचम गुरू श्री अर्जुन देव जी ने महाराज श्री गुरू ग्रंथ साहिब के पृष्ट संख्या 1192 पर इस प्रकार लिखते है कि अन्य भगतों के साथ.साथ सैन भगत जी सेवा भावना से साथ इस इस जग से तर गए है इस पवित्र शब्द के अंत में गुरू नानक देव जी को प्रभु का रूप कहा गया है। इस प्रकार भगतों व गुरूओं की सूची में सैन जी का नाम बडे आदरपूर्वक लिया जाता है। श्री गुरू ग्रंथ साहिब के पृष्ट संख्या 1207.1208 पर गुरू अर्जुन देव द्वारा पचित पंकितया इस प्रकार है ।
               ऊंकार सतिगुरू प्रसादि।
               ऊंआ असऊर कै हऊ बलिजार्इ।।
               आठ पहर अपना प्रभु सिमारन बडभागी हरि पार्इ।
               रहाऊ भले कबीर दास दासन को अत्तम सैन जन नार्इ।।
               ऊंच ते ऊंच नामदेऊ समदरसी रविदास ठाकर बनि आर्इ।
               जीऊ पिंड तनु धनु साधनु का इह मन संत रेनार्इ।।
               संत प्रिताप भ्रम सभि नासै नानक मिले गुसार्इ।।

 उपरोक्त वाणी संतों एवं भक्तों की वाणी हैं। इस वाणी को एकत्रित कर श्री गुरू ग्रंथ साहिब में षामिल करके इन पवित्र वचनों को युगों.युगों तक संभाल कर रख लिया गया है। गुरू श्री अर्जुन देव जी साहिबानों तथा भठटों की वाणी के अलावा 15 भक्तों की वाणी को भी इस विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ में संभाल कर रखा है उपरोक्त वाणी में गुरू अर्जुन देव जी भगतों की महिमा गाते हुए सबसे पहले कबीर का नाम लेते हुए कहते है कि कबीर बहुत भले भगत थे वह तो रासों के भी दास थें। उनका महागान करते हुए दूसरा नाम गुरूजी सैन जी का लेते है। इन्होने भगत सैन जी का उत्तम भगत की पदवी के साथ प्रशंसा की है। गुरू जी द्वारा सैन जी मो उत्तम भगत की पदवी के साथ प्रशंसा की है। गुरू जी द्वारा सैन जी को उत्तम भगत की पदवी देने से हमे सैन जी की महानता का पता चलता है। भगत सैन जी प्रभू से ओत.प्रोत थे। वह अपने आपको भगतों को चरणो की घूल समझते थे।

गुरू जी की उपाधीरू. सैन जी बाधव गढ के राजा बीर सिह जी के यहां क्षौर कर्मी थे ये अतिथि सतकार साधू संतों की सेवा और सत्संग करना ही अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य समझते थे। आध्यातिमक शिक्षा सच्चे मानवता के गुणों को आम जनता तक पहुचाने एवं मानव सेवा को ही र्इश्वर सेवा के ज्ञान का बोध कराना ही उनका परम धर्म था। सैन जी ने जहां भी कल्याण यात्राए की वहीं अपने सत्संग का प्रभाव छोडते चले गये। बांधव गढ में भी आपके सत्संग की महिमा ने धूम मचां दी। आने सत्संग में उन नीची जातियों को भी स्थान दिया जिनसे लोग घृणा करते थे। इससे ब्राह्रामणों ने र्इश्र्यवश राजा बीर सिंह ने सैन जी की शिकायत की कि सैन जी अछूतों का साथ लेकर मंदिर में सत्संग करके उनकी पवित्रता को भ्रष्ट कर रहे है जिससे हमारा धर्म नष्ट हो रहा हैं । राजा बीर सिंह ने ब्राह्राणों की बात सुनकर बडे क्रोधित हुए  और कुछ सिपाहियों को अपने साथ लेकर मंदिर पहुचे जहां सैन जी एक कुष्ट रोगी के जख्मों पर मरहम लगा रहे थे और साथ ही साथ र्इश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि हे भगवान इस रोगी पर अपनी कृपा करों। इसे स्वस्थ कर दो चाहे इसके सारे कष्ट मुझे दे दो। इस तरह कल्याण की बात सुनकर महाराजा बीर सिंह बहुत अचंभित हुए और उनका सारा क्रोध शांत हो गया। तब शांत भाव से महाराजा ने सैन जी से पुछा कि आपने अछूतो को मंदिर में लाकर मंदिर की मर्यादा को क्यों भंग किया तब सैन जी ने महाराज से प्रश्न किया कि सवार्थी ब्राह्राणों व अडूतों मे क्या फर्क है क्या ये एक ही भगवान के बनाए इंसान हैं इनको किसी को छूत.अछूत बनाने का क्या अधिकार है । इन स्वार्थी ब्राह्राणों ने ही अपने स्वार्थ के लिए इन्हें ऊंच.नीच और छूत.अछूत बनाया है। उनके विचारो से प्रभावित होकर राजा ने कहा धन्य हैं आप जो महान कार्य कर रहे है। मै आपका सम्मान करता हू।

तत्पष्चात राजा बीर सिंह ने हाथ जोडकर सैन जी से प्रार्थना की कि मैने आपका यश सुना था और आज आंखों से देख भी लिया आप भगत के साथ.साथ एक कुशल वैधराज भी है। आपने अनगिनत लोगो का कल्याण किया है। क्या आप मेरी पीठ के फोडे को ठीक करके मेरा भी कल्याण कर सकते है तब सैन जी ने शांत चित्त से जवाब दिया राजन ठीक करने वाला भला मैं कौन हूं मेरा काम तो भगवान से प्रार्थना करना है। ठीक करना तो भगवान के हाथ में है। यह सैन जी की महानता ही थी कि वो अपने आपको तुच्छ समझते थें। तब राजा ने सैन जी से अपने फोडे का इलाज शुरू करने का आग्रह किया तब सैन जी ने उनका इलाज कर फोडे को ठीक कर पूर्ण रूप् से स्वस्थ कर दिया जिससे राजा बहुत प्रभावित हुआ।

जिस प्रकार अनेक संत.महात्माओं के साथ कोर्इ न कोर्इ चमत्करिक घटना जुडी हुर्इ है। ठीक उसी प्रकार अधिकांश लेखक साहित्यकार भी सैन जी के बारे में एक ऐसी ही चमतकारिक घटना का मोह नही त्याग पाए है। उन्होने भी सैन जी के बारे में ऐसी ही घटना का जिक्र किया है जिसमे सैन जी राजा बीर सिह की सेवा करने के लिए प्रतिदिन महल मे जाते थे। लेकिन एक दिन साधु संतों की सेवा के कारण वह राज के पास न गए और उनके रूप् में भगवान ने राजा बीर सिह की सेवा की जब सैन जी राजा के पहुचे तो राजा ने उन्हे दोबारा आने का कारण पूछते हुए कहा कि आप तो अभी.अभी गए थे और मैने आपको सोने की अशरफियां भेट  दी थी। सैन जी द्वारा अपनी पेटी खोलकर देखने पर उसमे अशरफियां पाकर सैन जी चकित रह जाते हैं । सैन जी राजा को सच्ची बात बताते है तो राजा बीर सिह भी आष्चर्यचकित होते है।  और इस चमत्कारिक घटना से प्रभावित होकर वे सैन जी को सिहासन पर पर बिठाकर राजगुरू की उपाधि से सुशोभित करते है।

प्राचीन काल में संत.महात्माओं के प्रति अपनी आस्था दर्शाने हेतु कुछ लोग ऐसी ही चमत्कारिक घटनाओं को उनके साथ जोड देते थे। जो आज वर्तमान वैज्ञानिक युग में संभव नही है। आज का शिक्षित मानव प्रत्येक विषय का गहरार्इ से अध्ययन करता है और उस पर चिंतन और मनन करने के पश्चात ही कोई निष्कर्श पर पहुचता है। उपरोक्त घटना से आप यह निष्कर्श निकाल सकते है। कि बांधव गढ के राजा बीर सिह के मन पर संत सैन की अमिट छाप थी। सैन जी की सेवा कार्य शैली व व्यवहार कुशलता से राजा इतना प्रभावित था कि उसे प्रत्येक सेवा कार्य करने वाले व्यकित में सैन जी का ही प्रतिबिम्ब चमकता था। संभवतया इसी प्रभाव मे राजा बीर सिह ने पहले सेवक को ही संत सैन समझकर अशरफियां इनाम में दे दी थी और सैन ने राजदंड के भय से राजा की बात को बडी करते हुए अशरफियां वाली बात स्वीकार की हो जिसके परिणामस्वरूप सैन जी को राजगुरू का सम्मान प्राप्त हुआ।

अंतिम समय . सैन समाज की महान विभुति परम श्रद्धेय परम संत सच्ची मानवता के पुजारी रूहानियत के मसीहा संत शिरोमणि सैन जी महाराज का अंतिम समय काशी में गुजरा जो उस समय संत महात्माओं का बहुत बडा केन्द्र था। यही पर सैन जी ने भी अपने आश्रम की स्थापना की तथा यहीं भक्ति में लीन रहने लगे। अंतिम समय में इनके कुछ समकालीन भगत भी इनके पास पहुंच गए जहां वह इनके साथ विचार मंथन करते थे। जब अपने अंतिम समय में सैन जी अपने पुत्र नार्इ को याद किया तब साथियों ने पूछा कि आज अपने बेटे को क्यों याद किया तब उन्होने कहा कि माधी को साहिब का हुक्म आने वाला है। उस समय सैन जी के पास भक्त धन्ना भक्त त्रिलाकचन भक्त नामदेव भक्त साधना जी भक्त सूरदास और भक्त रविदास जी थे। इस प्रकार सैन सागर के अनुसार सैन जी माघ मास की एकादशी संवत विक्रमी 1490 को जोती ज्योत मे समा गए।
                संवत चौदा सैइ नभवाए जोती जोत रली पूर्ण होय काम।
                राम नाम गुरू पाइए हरि सैना भजू नाम।।
                धन्नाते रविदास जी त्रिलोकचन सधना जानु।
                नाम देव और सूरदास कीर्तन किया जापनी चारे धाम।।
                     
सैन जी के अदर्श से प्ररणा . सैन जी ने समानता जाति.पाति का उन्मूलन ऊंच नीच के भेद.भाव सांप्रदायिकता का विरोध तथा भार्इचारा सच्ची मानव सेवा प्रेम भाव आपसी मेल.जोल आदि आज की मांग है का जोर शोर से प्रचार किया हैं सैन जी का जीवन चरित्र हमेशा  समाज का प्रेरणा श्रोत रहेगा। सैन भक्त रचित शब्द इसका प्रमाण है ।
                नाऊ के नाम रछौनी दीजै।
                पानी प्रेम श्रऊ क्षमा कतरनी केष कल्पना भीजे।।
                सत्संगी का देहु उस्तरा मनमुख बाल मुडीजे।
                किरपा करिकर देहु नहरनी पंच नखवा कटि लीजे।।
                हरि के नाम दहु मोचना वे मुख केष उठीजे।
                मगन रूप मिकराज बनार्इ काम मूछ कतरीजे।।
सैन समाज बुढाना उनकें आदर्शो को अपनाकर वर्तमान समाज मे फैली कुरीतियों छुआ.छूत ऊंच नीच पाखंडवाद अंधविष्वास र्इश्र्या द्वेश नशाखोरी मृत्यू भोज एव दहेज प्रथा जैसी कुरीतियो का प्ररित्याग कर उन्हे समाज से जडमूल उखाडने का संकल्प दोहराता है। ताकि आने वाली पीढियों का भविष्य उज्जवल बन सके। यही संत सैन जी के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजली होगी।

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