*राधास्वामी!! 18-02-2021- आज सुबह सतसंग में पढे गये पाठ:-
(1) सुरत तू क्यों न सूने धुन नाम।।टेक।। भूलभुलइयाँ आन फँसानी क्या समझा आराम। भला तू समझ चेत चल धाम।।-(जीव निबल क्या करे बिचारा। जब लग राधास्वामी करें न सहाम।) (सारबचन-शब्द-5-पृ.सं.266,267)
(2) दयाला मोहि लीजे तारी।।टेक।। तुम्हरी दया की महिमा भारी। मैं हूँ पतित अनाडी।।-(राधास्वामी प्यारज सतगुरु पूरज। लीना मोहि उबारी।।) (प्रेमबानी-2-शब्द-4-पृ.सं.407,408)
🙏🏻राधास्वामी🙏
परम गुरु हुजूर मेहताजी महाराज-
भाग 1- कल से आगे:-( 30 )
- सत्संग में 'सत्संग के उपदेश' भाग 3 का बचन नंबर 15 पढ़ा गया जिसमें फरमाया गया है कि इसमें शक नहीं कि राधास्वामी दयाल ने यह एक नई चाल चलाई है, लेकिन जो लोग सतसंग की इस चाल के बारे में तर्क करते हैं, उनको चाहिए कि अव्वल वह इस पहलू पर अच्छी तरह से गौर कर लें।
इस बचन के पढ़े जाने के बाद हुजूर मेहताजी महाराज ने फरमाया- अगर आप साहिबान ने हुजूर साहबजी महाराज का यह बचन गौर से सुना है तो आपको मालूम हो गया होगा कि उन दयाल ने दुनियाँ के दूसरे मजहबों की तरह जिनमें या तो भोले भक्तों को धीरज देकर उनका माल लूट खसोट लिया जाता है या भीख माँग कर धन कमा कर गुजारा किया जाता है अपने सतसंगियों को जीविकार्जन व निर्वाह के लिए उपरोक्त तरीकों की हरगिज इजाजत नहीं दी। बल्कि यह फरमाया की भीख या चंदा माँग कर सत्संग की संस्थाएँ व इंस्टीट्यूशंस चलाना उतना ही दूषित व आक्षेपनीय है जितना कि दूसरों का धन लूट खसोट कर या धोखा देकर पैदा करना निषिद्ध व बुरा है।
इसलिये आँ हुजूर ने फैसला किया कि सतसंगियों के निर्वाह और तमाम संगत के सामूहिक रूप में प्रबंधों व कारोबार करने के लिए ऐसी संस्थाएँ कायम की जायँ जिससे हर सतसंगी हक व हलाल की कमाई कर सके और उन संस्थाओं की आमदनी से सतसँग का प्रबन्ध बखूबी चलाया जा सके और सतसँग को किसी दूसरे की उदारता का आश्रित न होना पड़े।
इस संबंध में इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि जो हक व हलाल की कमाई पैदा की जावे वह उस कमाने शख्स और उसके घर के लिये काफी हो।
क्रमशः
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**
**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-
[ भगवद् गीता के उपदेश]-
कल से आगे:
- और अगर तुम सब पापियों से बढ़कर पापी भी होगे तो भी ज्ञान की नौका के जरिये पाप के समुंदर से पार हो जाओगे। हे अर्जुन! जैसे जलती हुई आग ईंधन को जलाकर खाक कर देती है ऐसे ही ज्ञान की आग सब कर्मों को जलाकर भस्म कर देती है। तुम निश्चय जानो कि इस दुनिया में ज्ञान के बराबर निर्मल करने वाली दूसरी कोई चीज नहीं।
अलबत्ता जिस किसी को (कर्म) योग में सिद्धि हासिल है वह उसे आपसे आप कुछ अर्से बाद अपनी आत्मा में पा लेता है। यह ज्ञान उस शख्स को प्राप्त होता है जो पूरा श्रद्धावान् हो जिसे अपनी इंद्रियों पर काबू हासिल हो और जिसे उसकी पूरी धुन लगी हो। ज्ञान प्राप्त होने पर ऐसा शख्स जल्द ही परम शांति को प्राप्त हो जाता है।
बर्खिलाफ इसके जो ज्ञान से शून्य हैं और आशीर्वाद और संख्यात्मा ( हर बात में शुबहा करने वाले) हैं वे नाश को प्राप्त होते हैं। संशयात्मा लोगों के लिये न यही लोक हैं न परलोक और न सुख।【40】
मतलब यह है कि जो शख्स योग के जरिए कर्म त्याग देता है यानी अकर्म हो जाता है और ज्ञान से अपने मन के संशय नाश कर देता है वह आत्मावान पुरुष कर्मों की कैद से आजाद रहता है। इसलिये हे अर्जुन! तुम भी ज्ञान की तलवार से अपने दिल में घुसे हुए भ्रम को, जो अज्ञान की वजह से पैदा हुआ है काट डालो और (कर्म)योग का आसरा लो बस उठो अब देर मत करो । 【42 】
क्रमशः
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
**परम गुरु हुजूर महाराज-
प्रेम पत्र- भाग 1- कल से आगे:-
इस जगह पर एक तुलसीदास जी का शब्द, जो उन्होंने ऐसे लोगों की निस्बत कहा है लिखा जाता है- 【शब्द】
ऐसी चतुरता पर छार।।टेक।।
हरत(चोरी करते) पर (दूसरे का) धन धरत रुच(प्रसन्न होकर) रुच भरत उद्र (उदर,पेट) आहार।
नेकहू नहिं प्रीति गुरु से महा लम्पट जार।।१
।।ऐसी चतुरता०
मात मरिहै पितहु मरिहै, मरिहै कुल परिवार।
जानत एक दिन हमहुँ मरिहै, तऊ न तजत बिकार।।२।
। ऐसी चतुरता०
गुरु प्रसाद में छूत लावत, करत लोकाचार।
नारि का मुख धाय चूमत अधर लिपटी लार।।३।।
ऐसी चतुरता०।
संत जन से द्रोह राखत नात साढू सार।
तुलसी ऐसे पतित जन को तजत कीजे बार।।४।।
ऐसी चतुरता०
और एक पद दूसरा भी तुलसीदास जी ने निस्बत परमार्थ के विरोधियों के लिखा है। उसकी भी दो-तीन कडी लिखी जाती है। इसमें समझाया है कि चाहे कैसे ही नजदीक के रिश्तेदार होवें और जो वे परमार्थ में विरोध करें तो उनको दुश्मन के मुआफिक जान कर कतई छोड़ देवे।। [पद]
जिनको प्रिय न राम बैदेही।।टेक।।
तजिये तिनहिं कोट बैरी सम यद्दपि परस सनेही।।१।।
पिता तुझे प्रह्लाद विभिषन बंधु भरत महतारी
बलि गुरु तजे, नाह(पति) बृज बनिता(स्त्री), भए जग मंगलकारी।।१।।
सतगुरु राधास्वामी दयाल ने ऐसे मजमून में एक शब्द फरमाया😃 है जिसमें हुक्म है कि जहाँ तक बने कुटुंबी और रिश्तेदारों से मेल रक्खे हुए भक्ति करें, तो इसमें दोनों का फायदा होगा, लेकिन जो उनमें से कोई परमार्थ में बेमतलब विघ्न डाले और सख्त विरोधी मालिक के भजन और गुरुभक्ति का होवे और किसी तरह उस पर अपना वश न चले, तो दीनता और मुलायममियत के साथ उससे अलहदा हो जाने में किसी तरह का पाप और दोष नहीं है, क्योंकि इस बात का बड़ा ख्याल रखना चाहिए कि मूर्ख जीव जो अपनी अनजानता से परमार्थ में विघ्न डालते हैं, उनके संग और सबब करके किसी तरह अपनी भक्ति में खलल न पड़े, नहीं तो जन्म जन्माजन्म पछताना पड़ेगा ।
और उनका भी ऐसे चाल चलन से भारी नुकसान होगा, यानी बजाय उनके जीव के कारज होने के सच्चे परमार्थी के संग साथ से उनके सिर पर निंदक और विघ्नकारक होने का पाप का पहाड़ चढ़ेगा और उसके एवज में बहुत दुख उनको सहने पड़ेंगे, क्योंकि जैसे एक आदमी को सच्चे परमार्थ में लगाने का भारी पुण्य होता है और उपकार करने वाले पर मालिक की दया आती है और उसका उद्धार जल्दी होता है, ऐसे ही परमार्थ से हटाने वाले या परमार्थ की करनी में विघ्न डालने वाले को ऐसा भारी पाप होता है जिसके सबब से उसको इस जन्म में और आगे के जन्म में भी दुख भोगने पड़ते हैं।
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
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