Tuesday, February 16, 2021

गुरु*🙏🙏 के प्रति नमन *🙏🙏


*'गुरु के प्रति नमन का क्या तात्पर्य है।'*🙏🙏

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    *'गुरु'* शब्द की व्याख्या कई रूपों में की गई है। 'गुरु' शब्द का एक अर्थ है कि जो भारी है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से इस शब्द का अर्थ है कि जो अंधकार को दूर करने वाला है। ब्राह्मण और देवता तो प्रणम्य हैं ही, आध्यात्मिक जीवन की परिपूर्णता के लिए गुरु की सर्वाधिक आवश्यकता है। *गुरु के चरणों में शिष्य जब अपने को समर्पित करता है तो गुरुदेव उसे भक्ति तथा भगवान की प्राप्ति कराते हैं। स्वयं भगवान् श्रीराम ने अपने विविध चरित्रों के माध्यम से गुरु के स्वरूप तथा गुरु की महिमा को प्रकट किया है।*

     भगवान् श्रीराम के चरित्र में दो गुरुओं की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। प्रारम्भ में गुरु वशिष्ठ की तथा बाद में गुरु विश्वामित्र की। ईश्वर की प्राप्ति कैसे हुई तथा इसकी क्रमिक साधना का जो वर्णन किया गया है वह भगवान् श्रीराम के अवतार की पृष्ठभूमि में आपके सामने है।

     वर्णन यह आता है कि महाराज श्री दशरथ जब बूढ़े हो गए तब उनके अन्तःकरण में एक दिन ग्लानि का उदय हुआ। तात्पर्य यही है कि महाराज श्रीदशरथ ने ईश्वर को पाया तो, परन्तु पाने की पद्धति के प्रारम्भ में गुरु वशिष्ठ की भूमिका बड़े महत्त्व की है। गुरु किस तरह से साधक को अधिभूत तथा अधिदैव से उठाकर ईश्वर की ओर अभिमुख करता है, इसका सर्वश्रेष्ठ प्रमाण महाराज श्रीदशरथ तथा गुरु वशिष्ठ का चरित्र है। 

      महाराज श्रीदशरथ के जीवन में एक बड़ा विरोधाभास यह है कि वे जीवन में बुद्धिपूर्वक तो ईश्वर की प्राप्ति को आवश्यक मानते हैं लेकिन सांसारिक विषयों की आसक्ति पूरी तरह से उनके मन से नहीं गई है। यह समस्या अधिकांश श्रेष्ठ व्यक्तियों के जीवन में आती है। जब वे सत्संग करते हैं, *जब कथा सुनते हैं, ईश्वर की महिमा सुनते हैं तो ऐसा लगता है कि जीवन में एकमात्र ईश्वर को प्राप्त करना ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए। लेकिन दूसरी ओर मन में विषयों का जो आकर्षण है वह उस बौद्धिक सत्य को मन की व्याकुलता के रूप में परिणत नहीं होने देता। कोई भी सत्य मात्र बुद्धि के स्तर पर समझ लेने से ही हमारे जीवन में तब तक नहीं उतर पाता जब तक उसे उतारने की उत्कंठा हमारे मन में भी न हो। जब बुद्धि का जाना हुआ सत्य मन पूरी तरह स्वीकार कर लेता है तो वह वास्तविक जीवन में क्रियात्मक रूप में भी अभिव्यक्त हो जाता है।*

     महाराज श्रीदशरथ के अन्तःकरण में ग्लानि उत्पन्न हुई। यह ग्लानि वस्तुत: अभाव की अनुभूति है। जब अभाव का अनुभव हुआ तो मानो उनके जीवन में शरणागति की भूमिका प्रारम्भ हो गई। सब तो है पर पुत्र नहीं है। *यही जीवन का सत्य है। कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं हो सकता है कि जिसके जीवन में कोई-न-कोई अपूर्णता न रह जाय।*

       अब प्रश्न यह है कि अपूर्णता को पूर्ण करने के लिए व्यक्ति सांसारिक उपायों का आश्रय ले, जैसा कि अधिकांश व्यक्ति लेते हैं या अपूर्णता की अनुभूति होने पर गुरु का आश्रय लें। महाराज श्री दशरथ इस स्थिति में आ गए हैं कि जिसमें उन्होंने अभाव की पूर्ति के लिए गुरुजी का आश्रय लिया और तब --

    *गुर गृह गयउ तुरत महिपाला ।*

    *चरन लागि करि बिनय बिसाला॥*

    *निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ।*

      गुरुदेव ! मेरे जीवन में क्या-क्या दुःख और सुख हैं। पर अभी भी पुत्र के अभाव का ही वर्णन हो रहा है। तब यदि गुरुजी चाहते तो यह कह सकते थे कि तुम पुत्र की कामना छोड़ दो, पुत्र की प्राप्ति से क्या लाभ ? क्या बिना पुत्र के व्यक्ति का कल्याण नहीं होता है ? क्या पुत्र प्राप्त करने वाला प्रत्येक व्यक्ति सुखी ही होता है ? पर गुरु वशिष्ठ ने ऐसा नहीं कहा।

     यहाँ गुरु वशिष्ठ की बड़ी विलक्षण भूमिका है। यद्यपि साधक के अन्तःकरण में अभी भी पुत्र पाने की लालसा है लेकिन गुरु की विलक्षणता यह है कि उन्होंने इस लालसा को सांसारिक वस्तुओं से उठाकर भगवान की दिशा में मोड़ने का अत्यन्त सुन्दर उपाय सोचा। दृष्टान्त के माध्यम से इसे यों कह लीजिए कि जैसे वैद्य के पास अगर कोई रोगी जाए और वैद्य उसे कड़वी-से-कड़वी दवा दे तो रोगी को वह लेनी तो पड़ती है लेकिन मन से नहीं अपितु बाध्यतावश। पर *वैद्य मिठाई को ही दवा बनाकर दे दे तब तो क्या कहना। ऐसी स्थिति में उसे मिठाई का स्वाद भी आ जाएगा तथा दवाई का लाभ भी मिल जाएगा।* गुरुजी ने सोचा कि यह पुत्र चाहता है पर पुत्रों की कामना और प्राप्ति से भी जीवन में पूर्णता नहीं होगी। क्योंकि पहले भी मनु के रूप में इन्होंने अनेक पुत्रों को जन्म दिया था किन्तु पुत्रों की प्राप्ति से समग्रता की अनुभूति नहीं हुई। इसलिए उन्होंने बड़ा अनोखा उपाय निकाला कि अगर कहीं भगवान ही इसके पुत्र बन जायं तो उसका परिणाम यह होगा कि इसे भगवान भी मिल जाएंगे तथा पुत्र भी। इसके स्वार्थ और परमार्थ दोनों एक ही साथ पूर्ण हो जाएँगे। मानो साधक की रागात्मिका बुद्धि को थोड़ा भोजन देते हुए, उनके राग का सदुपयोग करते हुए अन्त में गुरु उन्हें ईश्वर को ही पुत्र के रूप में प्राप्त करा देता है। इस तरह से गुरु की एक भूमिका गुरु वशिष्ठ के रूप में आती है जो साधक की विषय-लालसा को एक अनोखी पद्धति से ईश्वर की ओर मोड़ते हैं। 

      *साधक अगर गुरु के पास सांसारिक कामनाओं को लेकर जाय और गुरु केवल उसकी उन कामनाओं को ही पूर्ण कर दे तो यह गुरु का गुरुत्व नहीं है। अपितु गुरु का गुरुत्व यही है कि वह सांसारिक कामनाओं की पूर्ति करके साधक के अन्तःकरण में ईश्वर के प्रति अनुराग उत्पन्न कर दे।* 👏

         💞 जय गुरुदेव जय सियाराम 🙏

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