दो प्रसंग
*कभी दरिया समुद्र में गिरते हैं और कभी कभी समुद्र दरिया में चला आता है इसी तरह सतगुरु मनुष्यों और मालिक के बीच मिलाप करने वाली कड़ी हैं। सतगुरु की सुरत में रचनात्मक और बोधनात्मक अंग दोनों क्रियाशील होते हैं और उनका मालिक से सीधा सम्बन्ध होता है। वह इस लोक और कुल मालिक से संबंध रखते हैं। यही आला (यंत्र) सतगुरु कहलाते हैं।यह शब्द बतलाता है कि सतगुरु की इस मण्डल में क्या पोज़ीशन है अब हम एक एक कड़ी का भावार्थ वर्णन करेंगे-*
*(1) सतगुरु क्या है? यह प्रत्येक मनुष्य में समझने या अनुभव करने की योग्यता नहीं पायी जाती।वही इसे ठीक ठीक समझ सकता है जिस पर वह दया करें और जिसको वह रोशनी बख़्शें।**
*(2) जिसको हम सतगुरु कहते हैं वह बनावटी रूप और रंग से रहित है वह बन्धन से रहित हैं।।* *
(3) सतगुरु सर्व व्यापक हैं, वह सब मनुष्यों के अन्तर में निवास करते हैं, कोई घाट उनके बिना नहीं है परन्तु फिर भी वह दूर से दूर हैं। वह त्रिलोकी के परे चौथे लोक में रहते हैं। जैसे सूर्य हर जगह है अगर्चे वह बहुत दूर है ऐसे ही सतगुरु की शक्ति हर जगह पाई जाती है यद्यपि वह त्रिलोकी के परे रहते हैं।*
*(4) सतगुरु का अनादि धाम त्रिलोकी के परे है लेकिन जब कभी उन्हें मंज़ूर होता है वह इस देश में उतर कर जीवों की सहायता फ़रमाते हैं और उन्हें संसार से छुटकारा दिलाते हैं, वह दूसरे जीवों की तरह कर्मवश इस लोक में जन्म धारण नहीं करते बल्कि वह अपनी मर्ज़ी से जन्म धारण करके मनुष्य जाति को मन और प्रकृति से मुक्ति दिलाते हैं।
एक क़ैदी और जेल डाक्टर के दृष्टान्त से हमारा अभिप्राय स्पष्ट हो जायगा। एक क़ैदी गिरफ़्तार होकर जेल जाता है न कि ख़ुशी से लेकिन जेल का डाक्टर भी जेल के अंदर जाता है लेकिन वह गिरफ़्तार होकर नहीं जाता बल्कि वह अपनी मर्ज़ी से जाता है और वह इस मतलब के लिये जाता है ताकि बीमार क़ैदियों का इलाज कर सके लेकिन कुछ ऐसे बेफक़ूफ़ हो सकते हैं जो डाक्टर को जेल में देखकर उसे क़ैदी समझ लें। ऐसे ही मूर्ख जीव सतगुरु को साधारण मनुष्य समझ सकते हैं कि वह शरीर व मन की चारदीवारी में क़ैद हैं लेकिन सतगुरु जेल डाक्टर के समान हैं जो ख़ुशी से जेल के अंदर और बाहर जा सकते हैं। सतगुरु इस संसार में रोगी आत्माओं को आराम देने के लिये तशरीफ़ लाते हैं।
(5) जब वह इस मंडल में उतरते हैं तो तुम उन्हें साधारण मनुष्यों से विशेष नहीं पा सकते हो। उनका जीवन संसारी भोग का नहीं होता, वह सुख दुख की ज़िंदगी बिना किसी उद्देश्य के गुज़ारते हैं बल्कि वह ख़ास उद्देश्य से संसार में आते हैं, वह इस संसार में भक्ति मार्ग चलाते हैं, वह जीवों को कुल मालिक की भक्ति व प्रेम सिखलाते हैं। जैसे तुम देखते हो कि कुछ पहाड़ों से निर्मल जल की धारा बहकर मैदानों में आती है ऐसे ही सतगुरु से भक्ति नदी बहकर प्रेमीजनों के हृदयों को प्रफुल्लित करती है। इस तरह इस तपी हुई दुनियाँ में प्रेम की नदी बहती है।
*(6) वह अपने ऊपर ज़िम्मेवारियाँ लेते हैं, जिनका प्राकृतिक फल चिन्ता होता है परन्तु वह निश्चिन्त रहते हैं। सच्ची बात यह है कि वह सुख दुख से परे हैं और दोनों से उपरत हैं।
*(7) वह भक्त जनों को अपने चरणों में शरण देते हैं, वह उन्हें अपनी नज़दीकी बख़्शते हैं और उनके अंदर प्रेम व भक्ति के संचार से उनकी चिंताएँ दूर करते हैं।
*(8) वह कर्म करते हैं, वह अपनी ज़िम्मेवारियाँ पूरी करने के लिये हर तरह का काम करते हैं लेकिन तो भी वह बिल्कुल कर्म-रहित हैं, उनका किसी से मोह नहीं है, सतगुरु की महिमा अपार है, वह कर्म करते हुए बन्धन से रहित होते हैं।
*(9) सतगुरु को प्रतिदिन की जाग्रत अवस्था के अनुभव के प्रकाश में समझना असंभव है। न किसी मनुष्य की मानसिक योग्यता या चतुरता उनके समझने में सहायक बन सकती है योग से भी उन्हें नहीं समझा जा सकता। इन तमाम साधनों के द्वारा उन्हें नहीं समझा जा सकता। संसार के बुद्धिमान और मानसिक योग्यता रखने वाले और योगी सब के सब उनका असली स्वरूप और गति समझने में बिल्कुल लाचार और बेबस हैं।
(10) सतगुरु की असली गति को कौन समझ सकता है? जिस पर राधास्वामी दयाल दया फ़रमावें वही समझ सकता है, या वही समझ सकता है जिसके अन्तर वह अपना स्वरूप प्रकट करें।* **हम सतगुरु को उसी समय देख सकते हैं जब वह अपना स्वरूप हमारे अंदर प्रकट करते हैं सौ अंधे एक सुझाके को नहीं देख सकते परन्तु वह (अपने को) सबको पकड़ा सकता है।
*इसलिए हमको प्रार्थना करनी चाहिये कि वह दया करके हमारे अंदर अपने को प्रकट करें जिससे कि हम उन्हें देख सकें।।**
*(प्रेम प्रचारक 17 सितम्बर सन् 1934,पुनः प्रकाशित- 25 फ़रवरी, 2008)*
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