(गणेश कथा)
प्रस्तुति-कृष्ण मेहता
(यह कथा मेरे बाल्यकाल की स्मृतियो की सबसे प्रिय कथा है क्योंकि इस के कारण मेरी श्रद्धा गणपति जी मे आरम्भ हुई ,
हमारी संस्कृति में जब भी हमारे परिजन हमे कोई कथा सुनाते तो उसका पात्र कोई धर्मिक या उच्च आदर्शों वाला ही होता था जिसके द्वारा बालक भी उन्ही आदर्शों पर चलने का प्रयास करते है और उन धार्मिक चरित्रों के विषय मे ज्ञान की वृद्धि भी होती है।
ये कथा सभी ने एक बार अवश्य सुनी होगी और मुझे इस कथा में वही आनन्द मिलता है जो बालपन में मिलता था।)
दयालु स्त्री
एक स्त्री थी उसके पति और सात पुत्र काल के ग्रास बन गए अतः वो ग्राम के बाहर एक कुटिया में रहने लगी और उसके समीप कोई न था अतः उसने एक पत्थर को अपना पुत्र मान लिया था उसको नहलाती धुलाती प्रेम से दूर्वा के आसन पर बिठाती।
ग्रामवासी जो भी दयापूर्वक दे देते वही प्रथम उस पत्थर को खिलाती और स्वयं ग्रहण करती थी इसी प्रकार उसका जीवन व्यतीत हो रहा था।
गणेश जी को एक दिन उस स्त्री के दुःख हरने की इच्छा हुई अतः वो एक बार एक बालक का रूप धर कर पृथ्वी लोक आते है और पृथ्वी के समस्त भक्तों की परीक्षा लेने का विचार करते हैं।
एक चुटकी चावल और एक दीपक में दुग्ध लेकर सभी के समीप जाते है और उनसे खीर बनाने का अनुरोध करते हैं ।
एक चुटकी चावल और दीपक से दुग्ध की खीर बनाने की बात सुनकर सब उन पर हंसने लगे, बहुत भटकने के पश्चात भी किसी ने खीर नहीं बनाई।
वही स्त्री कुटिया के बाहर बैठी थी , तभी गणेश जी वहां से पुकारते हुए निकले कि "कोई मेरी खीर बना दे, कोई मेरी खीर बना दे...".
वो बहुत कोमल ह्रदय वाली स्त्री थी उसने सोचा बालक को बहलाने के लिए स्वयं के घर से दुग्ध और चावल की खीर बना दूँगी अतः उसने कहा "पुत्र, मैं तेरी खीर बना देती हूं."
गणेश जी ने कहा, "माता, अपने घर में से दुग्ध और चावल लेने के लिए बर्तन ले आओ."
स्त्री एक कटोरी लेकर जब झोपड़ी बाहर आई तो गणेश जी ने कहा अपने घर का सबसे बड़ा पात्र लेकर आओ।
स्त्री ने सोचा कि चलो ! बालक का हॄदय रख लेती हूं और भीतर जाकर वह घर सबसे बड़ा पात्र लेकर बाहर आई.
गणेश जी ने दीपक में से दुग्ध पात्र में उडेलना आरम्भ किया तब, स्त्री के आश्चर्य की सीमा न रही, जब उसने देखा दुग्ध से सम्पूर्ण पात्र भर गया है.
एक के पश्चात एक वह पात्र झोपड़ी बाहर लाती गई और उसमें गणेश जी दुग्ध भरते चले गए।
इस प्रकार समस्त पात्र दुग्ध और चावल से सम्पूर्ण रूप से भर गए. गणेश भगवान ने बुढ़िया से कहा, "मैं स्नान करके आता हूं तब तक तुम खीर बना लो. मैं लौटकर आकर खाऊँगा."
उस स्त्री ने पूछा "मैं इतनी अधिक खीर का क्या करूंगी ?" इस पर गणपति जी बोले, "समस्त ग्रामवासियों को खिला दो."
उस ने बहुत प्रेम से, मन लगाकर खीर बनाई. खीर की भीनी-भीनी, मीठी-मीठी सुगंध चारों दिशाओं में फैल गई।
खीर बनने के पश्चात बालक गणेश जी को खिलाने के पश्चात वह प्रत्येक ग्रामवासियों को खीर खाने के लिए बुलाने गयी ।
सभी को कौतूहल हुआ कि उस स्त्री के घर एक एक दाना अन्न का नही और वो सभी को बुला रही है सभी आये और उन्होंने उतनी स्वादिष्ट खीर कभी नही खाई थी।
अब वो स्त्री गणेश जी से कहती है पुत्र अब तो सन्ध्या हो गई प्रातःकाल चले जाना यही सो जाओ।
गणेश जी के लिए नर्म दूर्वा का बिछौना बना कर सुला देती हैं।
रात्रि में गणेशजी पुनः एक लीला करते हैं कि माता मेरे पेट मे दर्द है क्या करूँ???
वो स्त्री कहती है, " बाहर बहुत अंधकार है कोई हिंसक पशु भी आ सकता है पुत्र तुम किसी कोने में कर लो मैं सुबह स्वच्छ कर दूँगी"
गणेश जी ऐसा ही करते हैं और उस स्त्री के सो जाने पर अंतर्ध्यान हो जाते हैं।
प्रातः वो स्त्री उठी तो देखा तो गणेश जी नही थे और पूरी कुटिया स्वर्ण रत्नों से प्रकाशित हैजिन पात्रों में खीर बनाई थी उनमें धन संपदा थी जहाँ गणेश जी सोए वहाँ रत्न थे, जहाँ रात्रि में गए वहां धन का पर्वत बना हुआ था, वो बाहर आई।
जहां वो पत्थर को रखती थी वहां एक सिंहासन था उस पर बाल गणेश जी की सुन्दर मूर्ति स्थापित थी।
तो उसके पति स्वर्ण हल को बैलों से बांध रहे थे उसके सातों पुत्र विभिन्न क्रीड़ाये कर रहे थे और उसकी कुटिया के स्थान पर एक स्वर्णमहल बना हुआ था।
लालची स्त्री
उसी ग्राम की एक महिला उस स्त्री को दान देने आई तो वहां स्वर्णमहल देख कर हतप्रभ रह गयी।
उसने उस स्त्री से सम्पूर्ण कथा का विवरण लिया उसे बहुत लालच हुआ अतः वो भी गणेश जी की प्रतीक्षा में अबसे बडा पात्र ले।कर अपने घर के द्वार पर बैठी।
गणेश जी ने उसका लालच ज्ञात कर लिया और वो आ गए कि मेरी कोई खीर बना दे।
वो स्त्री झट से बनाने भागी और खीर जल गई समस्त स्थानों पर दुर्गंध हो गई उसने सोचा चलो खीर व्यर्थ हुई रात्रि में तो धन संपदा मिलेगी।
उसने गणेश जी को सबसे बड़े कक्ष में सुलाया कि अधिक धन प्राप्त होगा।
गणेश जी के दिया, " पुत्र रात्रि में बाहर न जाना चारो कोनो में कर लेना"
रात्रि भर जाग कर सोचती रही उस धन से क्या क्या करेगी
प्रातःकाल गणेशजी अंतर्ध्यान हो गए और सभी स्थान पर मल विष्ठा की दुर्गंध भरी हुई थी
समस्त ग्रामवासी उस को अपशब्द कहने लगे कि तुम्हारे लालच से हमे ये दुर्गंध मिली है।
वो रो रो कर समस्त स्थलों को स्वच्छ करती हैं।
अंततः
ये कथा जो पढ़ता या लिखता है कहता या सुनता है गणपति महाराज उसे समस्त सुख दे।
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