प्रेममयी मीराबाई
मीरा नाम ही अपने आप में पुर्ण है प्रेम के लिए, मीरा ने ये ज़माने को बताया की विरह कोई तकलीफ या चिंता नहीं ये तो वो अवस्था है प्रेम का जब ह्रृदय के रोम-रोम में प्रेमी उतर जाता है। मीरा का नृत्य भी प्रेममयी था, उसका गान भी अमर हो गया।वो जो सिर्फ एक श्याम नाम की दिवानी थी लोग उसे मीरा दिवानी बुलाने लगे।
संसार का ये दुर्भाग्य रहा है की वो हमेशा से महान आत्माओं को पहचानने में भूल करता रहा है।
मीरा जब तक रही श्याम नाम का प्रेम बांटती रही लेकिन बदले में संसार ने उन्हे क्या दिया,हलाहल विष का प्याला!भूखे नाहर को भेज दिया मीरा को खाने के लिए, विषैले सर्प को डसने के लिए छोड़ दिया लेकिन प्रेम की ताकत नफरत,ईष्या से बहुत बड़ी होती है।
हलाहल विष को जब नाम चरणामृत दिया गया तो श्याममयी मीरा वो भी हंसते हंसते पी गयी और कहानी कहती है की विष का प्रभाव इतनी तेज थी की द्वारिकाधीश के मुर्ति से झाग निकलने लगी।
प्रेम में ये विश्वास हो की प्रेमी के नाम से दिया गया विष भी चरणामृत समझ के पी लिया जाए तो वो प्रेमी जो सर्वप्रकार का समर्थ है कैसे देर करता।
मीरा के पास जब टोकरी में भर के विषैला सर्प भेजा गया ये कहलवा कर की इसमें ठाकुर जी है तो मीरा दौड़ पड़ी उस टोकरी की तरफ़,अहा कितना अद्भुत नजारा होगा वो सर्प की जगह वहां साक्षात शालिग्राम थे।
वो शालिग्राम आज भी आपको वृंदावन के मीरा मंदिर में देखने को मिल जाएगा। जिसमें शालिग्राम स्वयं विराजमान है।
राणा जब थक गया लाख प्रयत्न करने के बाद भी तो भूखे शेर को मीरा के महल में भिजवा दिया।सारी दासियां लोग भागने लगे उसके भय से।
एक दासी मीरा से भी कहती है आप भी यहां से तुरंत निकल जाइए आपके लिए भूखे शेर को भेजा गया है ये सुनते ही प्रेम की मतवाली मीरा आरती और फूल का थाल लिए भूखे शेर की तरफ़ दौड़ पड़ी ये कहते कि अहो भाग्य मेरे जो भगवान नृसिंह स्वयं यहां पधारें।शेर चुपचाप मीरा के सामने खड़ा रहा और मीरा उसका सत्कार करती रही।
मीरा जैसे सिर्फ़ और सिर्फ़ मीरा हो सकती थी।उसके प्रेम की महिमा अपरंपार है जिसे किसी भी शब्दों में,शास्त्रों में कहा नहीं जा सकता।
मीरा के तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोय
प्रेम विश्वास के साथ त्याग भी मांगता है,दुनिया लाख कहे मीरा बावरी हो गयी है, मीरा कुलनाशी है लेकिन प्रेम का शब्द प्रेम का रस सिर्फ और सिर्फ प्रेम करने वाला ही समझ सकता है।
राणा हर तरफ़ से जब मीरा को नुकसान नहीं पहुंचा पाया तो परपुरूष से बात करने का इल्जाम लगा, घूस गया मीरा के कक्ष में लेकिन वहा श्याम मुर्ति और मीरा के सिवाय और कौन हो सकता था। राणा ने अंहकार में भर कर जब मीरा से पूछा की
"किससे बाते कर रही थी कहा है तुम्हारा वो आशिक? जिसके लिए तुम कूल की मर्यादा भी भूल बैठी हो नाचती रहती हो गाती रहती हो सबके सामने"
मीरा हंसी बस एक इशारा ही काफी था ,ऊंगली श्याम मुर्ति की तरफ घूमा दी,राणा ये देख आपा खो बैठा उठाया वो श्याम मुर्ति और फेक दिया खिड़की से बाहर बगल में बहने वाली झील की तरफ़ और हाय रे वो प्रेम की परिकाष्ठा, मीरा ने एक क्षण भी नहीं गंवाया, कूद पड़ी उसी खिड़की से मुर्ति की ओर ,वो दुनिया के लिए बस एक साधारण मुर्ति हो सकता था लेकिन मीरा के लिए तो वही पति, वही प्रेमी वही सब कुछ था।
कहानी कहती है की मीरा कुदी तो मेवाड़ के राजमहल के झील में लेकिन जब बाहर निकली तो प्रेम स्थली श्रीधाम वृंदावन के युमना से।
मीरा की प्रेम की यही परिकाष्ठा थी ,जो वृंदावन 4500 सालों से उजाड़ थी उसमें फ़िर से रौनक आ गयी।प्रेमी तो जहां भी जाता है अपने प्रेम से कण-कण में प्रेम भर देता है
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