Saturday, April 11, 2020

धार्मिक प्रसंग और विभिन्न कथाएं










प्रस्तुति - कृष्ण मेहता:

🙏श्री_पंचमुखी_हनुमानजी 🙏
   
 🌷भगवान_शंकर_के_पांच_अवतारों_की_शक्ति🌷*

शंकरजी के पांचमुख—तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव, अघोर व ईशान हैं; उन्हीं शंकरजी के अंशावतार हनुमानजी भी पंचमुखी हैं । मार्गशीर्ष (अगहन) मास की कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि को, पुष्य नक्षत्र में, सिंहलग्न तथा मंगल के दिन पंचमुखी हनुमानजी ने अवतार धारण किया । हनुमानजी का यह स्वरूप सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला है । हनुमानजी का एकमुखी, पंचमुखी और ग्यारहमुखी स्वरूप ही अधिक प्रचलित हैं ।

हनुमानजी के पांचों मुखों के बारे में श्रीविद्यार्णव-तन्त्र में इस प्रकार कहा गया है—

पंचवक्त्रं महाभीमं त्रिपंचनयनैर्युतम् ।
बाहुभिर्दशभिर्युक्तं सर्वकाम्यार्थ सिद्धिदम् ।।

विराट्स्वरूप वाले हनुमानजी के पांचमुख, पन्द्रह नेत्र हैं और दस भुजाएं हैं जिनमें दस आयुध हैं—‘खड्ग, त्रिशूल, खटवांग, पाश, अंकुश, पर्वत, स्तम्भ, मुष्टि, गदा और वृक्ष की डाली ।

▪️ पंचमुखी हनुमानजी का पूर्व की ओर का मुख वानर का है जिसकी प्रभा करोड़ों सूर्य के समान है । वह विकराल दाढ़ों वाला है और उसकी भृकुटियां (भौंहे) चढ़ी हुई हैं ।

▪️ दक्षिण की ओर वाला मुख नृसिंह भगवान का है । यह अत्यन्त उग्र तेज वाला भयानक है किन्तु शरण में आए हुए के भय को दूर करने वाला है ।

▪️ पश्चिम दिशा वाला मुख गरुड़ का है । इसकी चोंच टेढ़ी है । यह सभी नागों के विष और भूत-प्रेत को भगाने वाला है । इससे समस्त रोगों का नाश होता है ।

▪️ इनका उत्तर की ओर वाला मुख वाराह (सूकर) का है जिसका आकाश के समान कृष्णवर्ण है । इस मुख के दर्शन से पाताल में रहने वाले जीवों, सिंह व वेताल के भय का और ज्वर का नाश होता है।

▪️ पंचमुखी हनुमानजी का ऊपर की ओर उठा हुआ मुख हयग्रीव (घोड़े) का है । यह बहुत भयानक है और असुरों का संहार करने वाला है । इसी मुख के द्वारा हनुमानजी ने तारक नामक महादैत्य का वध किया था ।
।।पंचमुखी हनुमानजी में है भगवान के पांच अवतारों की शक्ति।।

पंचमुखी हनुमानजी में भगवान के पांच अवतारों की शक्ति समायी हुयी है इसलिए वे किसी भी महान कार्य को करने में समर्थ हैं । पंचमुखी हनुमानजी की पूजा-अर्चना से वराह, नृसिंह, हयग्रीव, गरुड़ और शंकरजी की उपासना का फल प्राप्त हो जाता है । जैसे गरुड़जी वैकुण्ठ में भगवान विष्णु की सेवा में लगे रहते हैं वैसे ही हनुमानजी श्रीराम की सेवा में लगे रहते हैं । जैसे गरुड़ की पीठ पर भगवान विष्णु बैठते हैं वैसे ही हनुमानजी की पीठ पर श्रीराम-लक्ष्मण बैठते हैं। गरुड़जी अपनी मां के लिए स्वर्ग से अमृत लाये थे, वैसे ही हनुमानजी लक्ष्मणजी के लिए संजीवनी-बूटी लेकर आए ।

 *।।हनुमानजी के पंचमुख की आराधना से मिलते हैं पांच वरदान।‌।*

हनुमानजी के पंचमुखी विग्रह की आराधना से पांच वरदान प्राप्त होते हैं । नरसिंहमुख की सहायता से शत्रु पर विजय, गरुड़मुख की आराधना से सभी दोषों पर विजय, वराहमुख की सहायता से समस्त प्रकार की समृद्धि तथा हयग्रीवमुख की सहायता से ज्ञान की प्राप्ति होती है। हनुमानमुख से साधक को साहस एवं आत्मविश्वास की प्राप्ति होती है ।

हनुमानजी के पांचों मुखों में तीन-तीन सुन्दर नेत्र आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक तापों (काम, क्रोध और लोभ) से छुड़ाने वाले हैं ।

पंचमुखी हनुमानजी सभी सिद्धियों को देने वाले, सभी अमंगलों को हरने वाले तथा सभी प्रकार का मंगल करने वाले—मंगल भवन अमंगलहारी हैं ।
 *।‌। हनुमानजी ने क्यों धारण किए पंचमुख ।।*

श्रीराम और रावण के युद्ध में जब मेघनाद की मृत्यु हो गयी तब रावण धैर्य न रख सका और अपनी विजय के उपाय सोचने लगा । तब उसे अपने सहयोगी और पाताल के राक्षसराज अहिरावण की याद आई जो मां भवानी का परम भक्त होने के साथ साथ तंत्र-मंत्र का ज्ञाता था। रावण सीधे देवी मन्दिर में जाकर पूजा में तल्लीन हो गया । उसकी आराधना से आकृष्ट होकर अहिरावण वहां पहुंचा तो रावण ने उससे कहा—‘तुम किसी तरह राम और लक्ष्मण को अपनी पुरी में ले आओ और वहां उनका वध कर डालो; फिर ये वानर-भालू तो अपने-आप ही भाग जाएंगे ।’

रात्रि के समय जब श्रीराम की सेना शयन कर रही थी तब हनुमानजी ने अपनी पूंछ बढ़ाकर चारों ओर से सबको घेरे में ले लिया । अहिरावण विभीषण का वेष बनाकर अंदर प्रवेश कर गए। अहिरावण ने सोते हुए अनन्त सौन्दर्य के सागर श्रीराम-लक्ष्मण को देखा तो देखता ही रह गया । उसने अपने माया के दम पर भगवान राम की सारी सेना को निद्रा में डाल दिया तथा राम एव लक्ष्मण का अपहरण कर उन्हें पाताललोक ले गया।

आकाश में तीव्र प्रकाश से सारी वानर सेना जाग गयी । विभीषण ने यह पहचान लिया कि यह कार्य अहिरावण का है और उसने हनुमानजी को श्रीराम और लक्ष्मण की सहायता करने के लिए पाताललोक जाने को कहा।

हनुमानजी पाताललोक की पूरी जानकारी प्राप्त कर पाताललोक पहुंचे । पाताललोक के द्वार पर उन्हें उनका पुत्र मकरध्वज मिला । हनुमानजी ने आश्चर्यचकित होकर कहा—‘हनुमान तो बाल ब्रह्मचारी हैं । तुम उनके पुत्र कैसे ?’

मकरध्वज ने कहा कि जब लंकादहन के बाद आप समुद्र में पूंछ बुझाकर स्नान कर रहे थे तब श्रम के कारण आपके शरीर से स्वेद (पसीना) झर रहा था जिसे एक मछली ने पी लिया । वह मछली पकड़कर जब अहिरावण की रसोई में लाई गयी और उसे काटा गया तो मेरा जन्म हुआ । अहिरावण ने ही मेरा पालन-पोषण किया इसलिए मैं उसके नगर की रक्षा करता हूँ । हनुमानजी का मकरध्वज से बाहुयुद्ध हुआ और वे उसे बांधकर देवी मन्दिर पहुंचे जहां श्रीराम और लक्ष्मण की बलि दी जानी थी । हनुमानजी को देखते ही देवी अदृश्य हो गयीं और उनकी जगह स्वयं रामदूत देवी के रूप में खड़े हो गए।

उसी समय श्रीराम ने लक्ष्मण से कहा—‘आपत्ति के समय सभी प्राणी मेरा स्मरण करते हैं, किन्तु मेरी आपदाओं को दूर करने वाले तो केवल पवनकुमार ही हैं। अत: हम उन्हीं का स्मरण करें ।’

लक्ष्मणजी ने कहा—‘यहां हनुमान कहां ?’ श्रीराम ने कहा—‘पवनपुत्र कहां नहीं हैं ? वे तो पृथ्वी के कण-कण में विद्यमान है । मुझे तो देवी के रूप में भी उन्हीं के दर्शन हो रहे हैं ।’

 *।।श्रीराम के प्राणों की रक्षा के लिए हनुमानजी ने धारण किए पंचमुख।।*

हनुमानजी ने वहां पांच दीपक पांच जगह पर पांच दिशाओं में रखे देखे जिसे अहिरावण ने मां भवानी की पूजा के लिए जलाया था । ऐसी मान्यता थी कि इन पांचों दीपकों को एक साथ बुझाने पर अहिरावण का वध हो जाएगा । हनुमानजी ने इसी कारण पंचमुखी रूप धरकर वे पांचों दीप बुझा दिए  और अहिरावण का वध कर श्रीराम और लक्ष्मण को कंधों पर बैठाकर लंका की ओर उड़ चले ।

‘श्रीहनुमत्-महाकाव्य’ के अनुसार एक बार पांच मुख वाला राक्षस भयंकर उत्पात करने लगा। उसे ब्रह्माजी से वरदान मिला था कि उसके जैसे रूप वाला व्यक्ति ही उसे मार सकता है । देवताओं की प्रार्थना पर भगवान ने हनुमानजी को उस राक्षस को मारने की आज्ञा दी । तब हनुमानजी ने वानर, नरसिंह, वाराह, हयग्रीव और गरुड़—इन पंचमुख को धारण कर राक्षस का अंत कर दिया ।

 *।।पंचमुखी हनुमानजी का ध्यान।।*

पंचास्यमच्युतमनेक विचित्रवीर्यं
वक्त्रं सुशंखविधृतं कपिराज वर्यम् ।
पीताम्बरादि मुकुटैरभि शोभितांगं
पिंगाक्षमाद्यमनिशंमनसा स्मरामि।। (श्रीविद्यार्णव-तन्त्र)

पंचमुखी हनुमान पीताम्बर और मुकुट से अलंकृत हैं । इनके नेत्र पीले रंग के हैं । इसलिए इन्हें ‘पिंगाक्ष’ कहा जाता है । हनुमानजी के नेत्र अत्यन्त करुणापूर्ण और संकट और चिन्ताओं को दूर कर भक्तों को सुख देने वाले हैं । हनुमानजी के नेत्रों की यही विशेषता है कि वे अपने स्वामी श्रीराम के चरणों के दर्शन के लिए सदैव लालायित रहते हैं।

मन्त्र,उनका द्वादशाक्षर मन्त्र है— *‘ॐ हं हनुमते रुद्रात्मकाय हुं फट्।’*

किसी भी पवित्र स्थान पर हनुमानजी के द्वादशाक्षर मन्त्र का एक लाख जप एवं आराधना करने से साधक को सफलता अवश्य मिलती है। ऐसा माना जाता है कि पुरश्चरण पूरा होने पर हनुमानजी अनुष्ठान करने वाले के सामने आधी रात को स्वयं दर्शन देते हैं।

महाकाय महाबल महाबाहु महानख,महानद महामुख महा मजबूत है।

भनै कवि ‘मान’ महाबीर हनुमान महा-देवन को देव महाराज रामदूत है।।   ,🙏🙏🙏
[10/04, 08:09] Morni कृष्ण मेहता: "शब्दों" की उर्जा मन को प्रभावित कर तन को गति देती है। शब्द ही हैं जो गाली का संचार करके वैमनस्य पैदा कर देते हैं और शब्द ही हैं जिनसे मन-मानस में शान्ति/शक्ति का प्रवहन होता है। सांसारिक सभी कार्य शब्दों से संचालित होते हैं। ऐसा नहीं कि हमारे शब्द केवल दूसरों को ही प्रभावित करते हैं, हम स्वयं, दूसरों के मुकाबले, उनसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। दूसरों को तो हम कभी/कहीं परिस्थितिवश कहते हैं, लेकिन *किसी को कुछ कहने से, बहुत पहले और बाद में भी, बार-बार हम उन शब्दों को मंत्रवत (मन ही मन) जुगाली करते रहते हैं। बुरे शब्दों का प्रयोग करने से हममें आसुरी शक्तियां जाग्रत होकर मानसिक उर्जा का नाश करती हैं और अच्छे शब्दों के प्रयोग से हममें ही दैविक (दिव्य) शक्तियां जाग्रत होती हैं। जिस प्रकार तीली दूसरे को जलाने से पूर्व स्वयं जलती है, इसी प्रकार हम भी अपना बुरा या भला करते हैं। साथ ही हमारा बोलना/सोचना/विचारना, यंत्रवत/नाटकीय न होकर वास्तविक और होशपूर्ण हो, क्योंकि ये हमारे तन-मन-जीवन को बनाने/बिगाड़ने में सहयोगी होते हैं।* सुप्रभात -आज का दिन शुभ व मंगलमय हो।
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हम सब करने/न करने के बोझ से भरे हैं कि हम दूसरों के लिए क्या/कैसे/कितना कर रहे हैं और दूसरे हमें समझते/मानते/महत्व नहीं देते। यह पीड़ा, हमारे करने और उसकी सुखद सन्तुष्टि से हमें वंचित कर देती है। साथ ही हमारी क्षमता भी प्रभावित होने लगती है। कभी वृद्धों/बड़े-बूढ़ों की बातों को ध्यान से सुनें, तो निष्कर्ष यही मिलेगा कि "हमने बहुत किया, पर लोग हमें मानते नहीं"। *हमारा ध्यान कृत्य करने और उसके आनन्द की ओर न होकर, दूसरों की आंख में अपनी अहमियत को ढूंढने में है, तो हम अपने को केवल दुखी/निराश/व्यथित/हारे हुए ही पायेंगे। हम कुछ भी/कैसा भी/किसी के लिए भी करते हों, निखारते/बनाते अपने ही जीवन/ऊर्जा/भविष्य को हैं। दूसरे हमारी ऊर्जा को कृत्य में बदलने (convert) करने का माध्यम भर हैं। इसका सरल शब्दों में अर्थ है कि हमने आज तक किसी के लिए कुछ नहीं किया। अपनी ऊर्जा से (किसी के नाम पर) अच्छा किया तो अपने को अच्छे की तरफ प्रवाहित किया और बुरा किया तो अपनी ऊर्जा को बुरी दिशा की ओर अग्रसर किया। दूसरे से अपने ध्यान को हटाने मात्र से, हम अपनी जीवन-शैली के प्रति जागरूक हो जाते हैं। फिर हम चाहकर भी "बुरा" कर नहीं सकते। हमारी दृष्टि यदि दूसरे पर है, तो हमारे जीवन का, सदा निराशा/हताशा में ही डूबते-उतराते रहना निश्चित है।* सुप्रभात -आज का दिन शुभ व मंगलमय हो।
[11/04, 08:03] Morni कृष्ण मेहता: राधे - राधे ॥आज का भगवद् चिंतन॥
         
शास्त्रों ने सेवा के तीन प्रकार बताये हैं।मनुष्य तीन प्रकार से समाज की सेवा कर सकता है।

तनुजा सेवा अथवा तन से सेवा -
तन से हम समाज की अनेक तरह से सेवा कर सकते हैं। कहीं कोई समाज सेवा का कार्य चल रहा हो तो वहाँ जुड़कर अपनी सामर्थ्य के अनुसार कोई भी कार्य कर सकते हैं।

किसी प्यासे को पानी पिला देना, किसी असहाय को उसके गंतव्य तक पहुँचा देना, कभी-कभी किसी सार्वजनिक स्थल पर साफ सफाई कर देना या कम से कम समय मिलने पर वृक्षारोपण ही कर देना ये सारी सेवाएं तन द्वारा की जानें वाली समाज सेवा ही है।

वित्तजा सेवा अर्थात् धन से सेवा
किसी भी सामाजिक अथवा पारमार्थिक कार्य में धन की अहम भूमिका होती है। पानी पीने के लिए प्याऊ की व्यवस्था करना, यथा सामर्थ्य अन्न दान - वस्त्र दान करना। निशुल्क चिकित्सा प्रदान करना, निशुल्क विद्यालयों का निर्माण करने के साथ-साथ धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन जैसे अनेकानेक सेवा कार्य धन से ही संभव हो पाते हैं।

       मानसी सेवा अथवा मन से सेवा
तन और धन की असमर्थता में भी हम मन से समाज की सेवा कर सकते हैं। समाज के हित का चिंतन, उचित परामर्श और सदैव समाज सेवा में निरत लोगों की प्रशंसा और उनका आत्मबल और मजबूत हो ऐसी बात करना भी आपके द्वारा की जाने वाली मानसी सेवा ही है।

साथ ही साथ अगर ज्यादा कुछ न कर सको तो प्रभु के समक्ष रोज सर्व मंगल की कामना के लिए प्रार्थना करना भी आपके द्वारा समाज की मानसी सेवा ही है।

तन से, धन से अथवा तो मन से, प्रभु ने जिस भी लायक आपको बनाया है, उसी अनुसार समाज सेवा करने का सौभाग्य अवश्य प्राप्त करना चाहिए।

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