राधास्वामी
प्रस्तुति - कृष्ण मेहता - ( मोरनी)
तुलसी का पौधा घर की नाकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक बनाता है। कुछ लोग तुलसी का इस्तेमाल हैल्थ प्रॉब्लम को दूर करने के लिए भी करते है लेकिन आज हम आपको तुलसी के बीजों से होने वाले फायदों के बारे में बताने जा रहें है। आयुर्वेदिक, प्रोटीन, फाइबर, विटामिन A, K, कार्बोहायड्रेट, ओमेगा-3 फैटी एसिड और खनिज तत्वों से भरपूर यह बीज ठंडी तासीर के होते है। बेसिल का सेवन यौन रोग, टेंशन, डिप्रेशन, दिमागी थकान और माईग्रेन जैसी बीमारियों को दूर करता है। तो आइए जानते है तुलसी के बीजों का सेवन करने से आपको क्या-क्या फायदे हो सकते है।
तुलसी बीज के फायदे 👇👇
सर्दी-खांसी:-
लौंग, तुलसी के बीज (Tulsi Ke Bij) को 1 गिलास पानी में उबाल लें। जब यह आधा रह जाए तो इसमें सेंधा नमक डालकर सेवन करें। दिन में दो बार इसका सेवन सर्दी, खांसी और जुकाम से राहत दिलाता है।
यौन रोग:-
तुलसी के बीज पुरूषों में होने वाली शारीरिक कमजोरी को दूर करने में मदद करते है। इसका नियमित रूप से सेवन यौन रोग और नपुंसकता की समस्या तक दूर हो जाती है।
सिरदर्द:-
तेज सिरदर्द होने पर तुलसी के बीज और कपूर को पीसकर मालिश करें। इससे आपका सिरदर्द तुरंत गायब हो जाएगा। इसके अलावा तुलसी के बीजों का सेवन टेंशन, डिप्रेशन, और माईग्रेन को दूर करता है।
गर्भधारण करना:-
मासिक आने पर 5 ग्राम तुलसी बीज को सुबह शाम पानी के साथ लें। जब तक मासिक चले न जाएं बेसिल का सेवन करें। पीरियड्स जाने के बाद 3 दिन तक 10 ग्राम माजूफल चूर्ण को पानी के साथ लें। इससे आपकी यह समस्या दूर हो जाएगी।
पाचन तंत्र:-
फाइबर और पाचक एंजाइमों से भरपूर तुलसी के बीजों का सेवन पाचन तंत्र को मजबूत करता है। सुबह इसका सेवन भूख को कंट्रोल करता है, जिससे आपका वजन कंट्रोल में रहता है।
यौनि में इंफेक्शन:-
तुलसी के बीज और शहद को पानी में मिलाकर दिन में 2 बार पीएं। इससे ब्लैडर, किडनी और योनि में इंफेक्शन की समस्या दूर हो जाएगी।
सोराइसिस:-
एक्जिमा सोराइसिस को दूर करने के लिए रोजाना तुलसी के बीज को पीसकर नारियल तेल में मिक्स करके लगाएं। कुछ समय में ही आपकी यह परेशानी दूर हो जाएगी।
पेट की प्रॉब्लम:-
रात को सोने से पहले 1 गिलास दूध में इन बीजों को मिलाकर पीएं। इससे कब्ज, एसिडिटी, पेट में दर्द, गैस और एसिड जैसी समस्याएं दूर होंगी।
[02/04, 08:28] Morni कृष्ण मेहता: नवरात्रि के पावन अवसर पर पढ़ें,भारत के ऐसे 17 शक्तिपीठ जिनके दर्शन हर माता के भक्त को करने चाहिए!
1. अर्बुदा देवी : - अर्बुदा देवी माउंट आबू (राजस्थान) का एक शक्तिपीठ है जो बेहद पवित्र माना जाता है। अर्बुदा पर्वत पर सती के औंठ/”अधर” गिरे थे। जिसकी वजह से इसे अधर या अरबुदा देवी का घर कहा जाने लगा। अर्बुदा देवी को बारिश देने के लिए माना जाता है। राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्र में बारिश को जीवन और शान्ति हेतु पूजा जाता है। मंदिर आबू की पहाड़ी पर स्थित है जहां पहुंचने के लिए 365 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। यहां की गुफा के भीतर एक चिराग लगातार जलता रहता है और भक्त इस प्रकाश को शक्ति का दर्शन कहते हैं। यहां चैत पूर्णिमा और विजया दशमी पर मेले का आयोजन होता है।
2. कौशिक : - अल्मोड़ा से 8 किलोमीटर की दूरी पर काशाय पर्वतों पर स्थित है यह शक्तिपीठ। देश के अलग-अलग इलाकों से दर्शनार्थी यहां पूजा-अर्चना हेतु यहां आते हैं। काठगोदाम रेलवे स्टेशन से आपको यहां पहुंचने के कई साधन मिल जाएंगे।
3. हरसिद्धि माता : - हरसिद्धि माता की चौकी राजा विक्रमादित्य की मशहूर राजधानी उज्जैन में स्थित है। यह पवित्र स्थान महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के नज़दीक स्थित है। बड़ी दूर-दूर से श्रद्धालु यहां दर्शन हेतु आते हैं. यहां के आस-पास के इलाकों में हरसिद्धि माता के चमत्कार के कई किस्से कहे-सुने जाते है।
4. सत् यात्रा : - ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग से 3 मील की दूरी पर और नर्मदा नदी के तट पर स्थित है यह शक्तिपीठ। इसे सप्तमातृका मंदिर के तौर पर भी जाना जाता है, जिसका अर्थ ब्राम्ही, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वराही, नरसिंहि और ऐन्द्री होता है. इस तीर्थ स्थल पर इन सभी देवियों के मंदिर हैं. और यहां के प्राकृतिक नज़ारे तो बस आपका मन मोह लेंगे।
5. काली : - यह शक्तिपीठ कोलकाता में स्थित है. भागीरथी नदी के तटों पर स्थापित यह मंदिर हावड़ा रेलवे स्टेशन से 5 कि.मी की दूरी पर है. मंदिर के भीतर त्रिनयना, रक्तांबरा, मुंडमालिनि और मुक्ताकेशी की चौकियां स्थापित हैं. पूरे बंगाल में इसे बड़ी श्रद्धा की नज़र से देखा जाता है और इसको लेकर कई चमत्कारिक कहानियां कही सुनी जाती हें. कहा जाता है कि रामकृष्ण परमहंस पर साक्षात मां काली की कृपा थी।
6. गुहेश्वरी : - गुहेश्वरी नामक यह अति मशहूर पीठ नेपाल की राजधानी काठमांडू में स्थित है. यह शक्तिपीठ बागमती नदी के तट पर पशुपतिनाथ मंदिर के नज़दीक है. मां गुहेश्वरी का नाम पूरे नेपाल में बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है. नवरात्र के दौरान नेपाल का राजघराना अपने पूरे परिवार के साथ बागमती नदी में स्नान के पश्चात् यहां दर्शन-पूजन हेतु यहां आता है।
7. कालिका ;- भगवती कालिका का यह शक्तिपीठ कालका जंक्शन के नज़दीक दिल्ली-शिमला रूट पर स्थित है. कहावत है कि शुम्भ-निशुम्भ से के दुराचारों से परेशान होकर सभी देवता भगवान विष्णु के पास सहायता के लिए तप करने चले गए थे।
जब मां पार्वती ने पूछा कि वे किसकी स्तुति कर रहे हैं, तभी वहां मां पार्वती का एक और रूप प्रकट हुआ और उनके अश्वेत वर्ण की वजह से उसे कालका नाम से जाना गया।
8. दुर्गा शक्तिपीठ : - मां महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती वाराणसी में त्रिकोणीय शक्ति का केंद्र हैं. इन शक्तिपीठों की स्थापना के साथ ही अलग-अलग कुंडों की भी स्थापना की गई थी, जिसमें से लक्ष्मी कुंड और दुर्गा कुंड आज भी वाराणसी में विद्यमान हैं.
इन शक्तिपीठों के अलावा वाराणसी में नवदुर्गा अर्थात् शैलपुत्री, ब्रम्हचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंद माता, कात्यायनी, काल रात्रि, महागौरी और सिद्धि रात्रि भी विराजमान हैं।
इन सारे चौकियों की व्याख्या शब्दों में करना बड़ा मुश्किल है, और पूरी दुनिया से श्रद्धालु यहां दर्शन-पूजन हेतु यहां आते हैं।
9. विद्धेश्वरी पीठ : - यह पुरातन मंदिर हिमाचल प्रदेश राज्य के कांगड़ा में स्थित है. कांगड़ा रेलवे स्टेशन पठानकोट और योगिन्दरनगर के बीच मेन रूट पर पड़ता है।
इस मंदिर को प्रमुख शक्तिपीठों में शुमार किया जाता है, और यदि पुराणों को माना जाए तो यहां माता सती का सिर गिरा था. इस मंदिर में मां सती की सिरनुमा प्रतिमा स्थापित है एवं इसके ऊपर सोने का छाता लगा हुआ है. इसके दर्शन हेतु पूरी दुनिया से श्रद्धालु यहां आते हैं. यहां मंदिर परिसर में एक कुंड भी स्थित है।
10. महालक्ष्मी पीठ : - मां महालक्ष्मी की यह चौकी कोल्हापुर में स्थित है, जहां किसी जमाने में शिवाजी के वंशज राज किया करते थे. अगर देवी भागवत और मत्स्य पुराण की मानें तो यह पवित्रतम पूजन स्थल है.पूरे महाराष्ट्र में इससे पवित्र स्थल कोई नहीं है, जहां पूरे देश से लाखो श्रद्धालु पूजन हेतु आते हैं।
11. योगमाया : - योगमाया मंदिर कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से 15 मील की दूरी पर स्थापित है, जिसे क्षीर भवानी योगमाया मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
यह मंदिर एक द्वीप पर है जो चारो तरफ पानी से घिरा है. और यहां के पानी का बदलता रंग आपकी इच्छा और कामना के पूरे होने की कहानी कहता है. जेठ मास में यहां एक बहुत बड़ा मेला लगता है।
12. अम्बा देवी : - अम्बा देवी का यह मंदिर जूनागढ़ के गिरनार पहाड़ियों पर स्थित है. यह मंदिर काफ़ी ऊंचाई पर स्थित है. यहां तक पहुंचने के लिए 6000 सीढ़ियां और तीन चोटियां चढ़नी पड़ती हैं.
यहां तीनों चोटियों पर अलग-अलग मां अम्बा देवी, गोरक्षानाथ और दत्तात्रेय के मंदिर स्थापित हैं. घने जंगलों के बीच मां अम्बा की यह विशाल प्रतिमा और मंदिर अद्भुत नज़ारे प्रस्तुत करता है. यहां की एक गुफा में मां काली का मंदिर स्थापित किया गया है, जहां भक्तों का तांता लगा रहता है।
13. कामाख्या पीठ : - यह अतिप्रसिद्ध और सिद्ध शक्तिपीठ आसाम में गुवाहाटी से 2 मील की दूरी पर स्थित है. कालिका-पुराण के अनुसार यहां मां सती का यौनांग गिरा था. इस पवित्र स्थल को “योनि-पीठ” के तौर पर जाना जाता है जो गुफा के भीतर स्थापित है. यहां एक कुंड भी स्थित है, जिसमें फूलों की भरमार है. इसे महाक्षेत्र के नाम से जाना जाता है।
माना जाता है कि मां भगवती को यहां मासिक धर्म की वजह से रक्तस्त्राव होता है और यह मंदिर इस दौरान बंद रहता है. यहां से 16 कि.मी की दूरी पर प्रसिद्ध “कामरूप” मंदिर स्थित है. इस इलाके में रहने वाली औरतों के मोहपाश में बांधने के किस्से दूर-दूर तक कहे सुनाए जाते हैं।
14. भवानी पीठ : - यह पवित्र पूजन स्थल चित्तागौंग से 24 मील की दूरी पर स्थित है जिसे सीताकुंड के नाम से भी जाना जाता है. यह प्रसिद्ध भवानी मंदिर नज़दीक चंद्रशेखर पर्वतों के ऊपरी भाग में स्थित है. यहां “वाराव” नाम का एक कुंड स्थित है. और यहीं नज़दीक में एक कभी न बुझने वाली ज्योति प्रज्वलित रहती है।
15. कालिका पीठ : - मां काली के मंदिर के तौर पर फेमस यह बेहद प्राचीन सिद्धपीठ ऐतिहासिक चित्तौड़गढ़ में स्थित है. यहां मंदिर के स्तंभों में आकृतियां उभारी गयी हैं और यहां एक कभी न बुझने वाला दीप भी प्रज्वलित रहता है।
इस किला परिसर में तुलजा भवानी और माता अन्नपूर्णा के भी मंदिर स्थापित हैं।
16. चिंतपूर्णी : - होशियारपुर से 30 कि.मी की दूरी पर मां चिंतपूर्णी को समर्पित यह पीठ पर्वतीय इलाकों में अद्भुत छटा बिखेरता है. कांगड़ा घाटियों में स्थित मां चिंतपूर्णी, मां ज्वालामुखी और मां विद्धेश्वरी के रूप मं स्थापित यह तीनों केंद्र हर वर्ष लाखों श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचते हैं. अब बाद बाकी आप जाइए और मां के दर्शन कर आइए।
17. मां विन्ध्यवासिनी : - उत्तरप्रदेश के चुनार रेलवे स्टेशन से 2 मील की दूरी पर स्थित यह मंदिर विन्ध्य पर्वत श्रृंखला पर स्थित है. यहां मंदिर का प्रवेश द्वार बड़ा ही संकरा है जैसे कोई खिड़की हो. यहां पूरे उत्तर भारत के लोगों के साथ-साथ कई जानी मानी हस्तियां दर्शन हेतु यहां आती हैं. यहां का दृश्य बड़ा ही मनोरम है. यहां आने वाले श्रद्धालु बताते हैं कि उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
तो भाई साब आप सोच क्या रहे हैं? निकल पड़िए मां के दरबार की ओर,दर्शन भी और रोमांच भी,आख़िर भारत ऐसे ही मंदिरों और मठों का देश थोड़े न है।
शक्तिपीठों में से एक मां पाटेश्वरी कथा
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भारत के धार्मिक स्थल विशेषकर मंदिर एक से बढ़कर एक रहस्य अपने में समेटे हुए हैं। ऐसा ही एक मंदिर है उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जनपद के पाटन गांव में सिरिया नदी के तट पर स्थित मां पाटेश्वरी का मंदिर। इस मंदिर के कारण ही इस पूरे मंडल का नाम देवीपाटन पड़ा हुआ है।
मंदिर से कई पौराणिक कहानियां तो जुड़ी ही हैं साथ ही यहां की मान्यता को हर साल यहां मां के दर्शने के लिये आने वाले लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ से समझा जा सकता है। आइये आपको बताते हैं मां पाटेश्वर के इस पौराणिक इतिहास की गाथा कहते मंदिर की कहानी।
मां पाटेश्वरी की यह मंदिर अपने अंदर कई पौराणिक कहानियों को समेटे हुए है। एक कथा भगवान श्री राम और माता सीता से जुड़ी है।
कहते हैं कि त्रेतायुग में जब भगवान राम, रावण का संहार कर देवी सीता को अयोध्या लाये तो देवी सीता को अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा लेकिन कुछ समय पश्चात किसी धोबी ने अपनी पत्नी को अपनाने से इंकार करते हुए भगवान राम पर कटाक्ष किया तो भगवान राम ने गर्भवती सीता को घर से निकाल दिया।
वन में सीता महर्षि वाल्मिकी के आश्रम में रहने लगी जहां उन्होंने लव-कुश को जन्म दिया इसके बाद लव-कुश ने अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को रोककर भगवान राम को युद्ध की चुनौति दी जिसके बाद उनका परिचय हुआ।
पिता पुत्र के मिलन के बाद सीता को वापस अयोध्या ले जाने को भगवान राम इसी शर्त पर तैयार थे कि माता सीता पुन: अग्नि परीक्षा से गुजरें।
यह बात सीता सहन न कर सकी और उन्होंनें धरती माता को पुकारा और अपनी गोद में समा लेने की प्रार्थना की। फिर क्या था देखते ही देखते धरती का सीना फटा और धरती माता सीता को अपनी गोद में लेकर वापस पाताल लोक को गमन कर गईं।
कहा जाता है कि पाताल से धरती माता निकलने के कारण इसका नाम आरंभ में पातालेश्वरी था जो बाद में पाटेश्वरी हो गया। मान्यता है कि आज भी वहां पाताल लोक तक जाने वाली एक सुरंग मौजूद है जो चांदी के चबूतरे के रूप में दिखाई देती है।
वहीं मां पाटेश्वरी के इस मंदिर से एक कथा देवी सती की शक्तिपीठों से भी जुड़ी है। जब देवी सती के पिता दक्ष प्रजापति ने यज्ञ में माता सती के पति भगवान भोलेनाथ शिवशंकर को आमंत्रित नहीं किया तो देवी ने यज्ञ में जाने की जिद की।
देवी यज्ञ में अपने पिता से निमंत्रण न देने का कारण जानने लगी तो उनके पिता दक्ष भगवान शंकर का अपमान करने लगे जिसे देवी सहन कर सकी और हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी। भगवान शंकर को क्रोध आ गया और वो सती शव को लेकर तांडव करने लगे। दुनिया नष्ट होने की कगार पर पंहुच गई। देवताओं के सिंहासन डोलने लगे।
तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन से देवी सती के शव को खंडित किया जहां जहां देवी के अंग व वस्त्र पड़े वहां शक्तिपीठ स्थापित हुईं। मां पाटेश्वरी के इस मंदिर के बारे में माना जाता है कि मां का वाम स्कंद यानि बायां कंधा वस्त्र सहित यहां गिरा था। स्कंदपुराण में इसका वर्णन भी मिलता है।
भगवान परशुराम की तपस्थली तो कर्ण ने सीखी शस्त्र विद्या मंदिर से एक और पौराणिक कथा जुड़ी है माना जाता है कि यहीं पर भगवान परशुराम ने अपनी तपस्या की थी। उसके बाद महाभारत काल में इसी स्थान पर स्थित सरोवर जो आजकल सूर्यकुंड है, में स्नान कर दानवीर कर्ण ने भगवान परशुराम से शस्त्र विद्या ग्रहण की थी।
माना यह भी जाता है कि सूर्यकुंड के जल में स्नान कर इसी जल से देवी की पूजा करने की परंपरा की शुरुआत भी करण से ही चली आ रही है उन्होंने ही इसकी शुरुआत की थी। साथ ही यह भी माना जाता है कि मंदिर का जीर्णोद्धार भी राजा करण ने कराया था।
कहा जाता है कि कालांतार में विक्रमादित्य ने फिर से मंदिर का जीर्णोद्धार किया लेकिन बाद में मुगल शासक औरंगजेब ने मीर समर को मंदिर को नष्ट भ्रष्ट करने भेजा जो देवी प्रकोप का शिकार हुआ मीर समर का समाधिस्थल मंदिर के पूर्व में आज भी है। लेकिन कहा जाता है औरगंजेब ने स्वयं मंदिर को धवस्त किया जिसे बाद में फिर से बनाया गया।
गुरु गोरखनाथ ने की थी पीठ की स्थापना मां पाटेश्वरी के इस मंदिर को सिद्ध योगपीठ एवं शक्तिपीठ दोनों माना जाता है। कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ व पीर रत्ननाथ ने यहीं पर सिद्धियां प्राप्त की जिसके बाद उन्होंनें नाथ संप्रदाय को शुरु किया।
मान्यता है कि भगवान शिव की आज्ञा से महायोगी गुरु गोरखनाथ ने सिद्ध शक्तिपीठ देवीपाटन में पाटेश्वरी पीठ की स्थापना कर मां पाटेश्वरी की आराधना एवं योगसाधना की थी। इसका उल्लेख यहां एक शिलालेख से भी मिलता है।
मंदिर में देवी की प्रतिमा मां पाटेश्वरी के इस मंदिर के भीतरी कक्ष में कोई प्रतिमा नहीं बल्कि चांदी से जड़ा हुआ एक चबूतरा है जिस पर कपड़ा बिछा रहता है इसी चबूतरे के ऊपर एक ताम्रछत्र है जिस पर पूरी दुर्गा सप्तशती के श्लोक छपे हुए हैं।
यहां घी की अखंड दीपज्योति जलती रहती है माना जाता है कि यह जोत शक्तिपीठ के स्थापना काल से ही लगातार जल रही है। भीतरी कक्ष में देवी की प्रतिमा नहीं है लेकिन मंदिर में दुर्गा माता के नौ स्वरुप मां शैलपुत्री, मां ब्रह्मचारिणी, मां चंद्रघंटा, मां कूष्मांडा, स्कंदमाता, मां कात्यायनी, मां कालरात्रि, मां महागौरी एवं मां सिद्धीदात्री की प्रतिमायें स्थापित हैं।
यहां होता है कुष्ठरोगों का निवारण मां पाटेश्वरी मंदिर के उत्तर में सूर्यकुंड है। वही सूर्यकुंड जिसके जल से दानवीर कर्ण स्नान कर मां की आराधना किया करते थे। मान्यता है कि रविवार के दिन षोडशोपचार से पूजन किया जाये तो कुष्ठरोग का निवारण हो जाता है।
नवरात्र के दिनों में वैसे तो माता के हर मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगने लगती है लेकिन मां पाटेश्वरी के मंदिर में भारत से लेकर नेपाल तक के श्रद्धालु आते हैं। क्योंकि गुरु गोरखनाथ के शिष्य पीर रत्ननाथ की तपस्या से खुश होकर मां ने उनकी पूजा होने का वरदान दिया था। नेपाल में पीर रत्ननाथ को मानने वाले बहुत लोग हैं।
वसंती नवरात्र की पंचमी को यहां नेपाल से उनकी शोभायात्रा पंहुचती है और पांच दिन तक नेपाल से आये पुजारी मां की पूजा के साथ-साथ रत्ननाथ की पूजा भी करते हैं। वहीं नवरात्र के दौरान यहां मेला भी लगता है जिसमें लाखों की संख्या में पूरे भारतवर्ष से श्रद्धालु आते हैं। मां पाटेश्वरी के मंदिर में मां के नौ रुपों की प्रतिमाएं भी यहां स्थापित हैं इस कारण भी नवरात्र के दिनों में यहां भीड़ रहती है।
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*भगवान कृष्ण के पिता वसुदेव की कथा!!
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वसुदेव मथुरा के राजा उग्रसेन के मंत्री,शूरसेन तथा मारिषा के पुत्र और श्रीकृष्ण के पिता थे। पाण्डवों की माता कुन्ती इनकी बहन थीं। इनका विवाह देवक अथवा आहुक की सात कन्याओं से हुआ था, जिनमें देवकी सर्वप्रमुख थीं। वसुदेव के नाम पर ही श्रीकृष्ण को 'वासुदेव' कहते हैं।
पूर्वकल्प में प्रजापति सुतपा तथा उनकी पत्नी पृश्नि ने बहुत दिनों तक तपस्या करके भगवान को संतुष्ट किया। जब भगवान ने उन्हें दर्शन देकर वरदान मांगने को कहा, तब उन लोगों ने भगवान को ही अपने पुत्ररूप में पाने की इच्छा प्रकट की। प्रभु ने तीन बार उनसे ‘दिया, दिया, दिया’ कहा। उस कल्प में भगवान का अवतार माता पृश्नि से हुआ और वे ‘पृश्निगर्भ’ कहलाये। दूसरे कल्प में प्रजापति सुतपा हुए कश्यप जी और पृश्नि हुई देवमाता अदिति।
भगवान ने ‘वामन’ रूप से उनके यहाँ अवतार लिया। क्योंकि तीन बार भगवान ने ‘दिया, दिया, दिया’ कहा था, अतः तीसरी बार प्रजापति सुतपा यदुवंश में शूरसेन के पुत्र वसुदेव हुए। इनके जन्म के समय देवताओं की दुन्दुभियां स्वयं बज उठी थीं, इसलिये इनको लोग 'आनकदुन्दुभि' कहते थे। माता पृश्नि मथुरा नरेश उग्रसेन के भाई देवक की सबसे छोटी कन्या देवकी हुईं।
वसुदेव जी के कुल अट्ठारह विवाह हुए, जबकि कहीं-कहीं इनकी 12 पत्नियाँ कही जाती हैं। वसुदेव की पत्नियों के ज्ञात नाम इस प्रकार हैं- देवकी, रोहिणी, पौरवी, मदिरा, कौशल्या, रोचा, इला, धृतदेवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता और सहदेवा। वसुदेव ने अपनी इन सभी पत्नियों से संतानें प्राप्त की थीं। सभी संतानों का जन्म मथुरा में ही हुआ था। इनमें से अनेकों की आयु में कुछ दिनों का ही अंतर था। वसुदेव का भवन उनकी पत्नियों की संतानों से भर गया। उनके भाइयों की पत्नियों के भी कई पुत्र हुए।
दीर्घ काल तक पौत्रों का मुख देखने को तरसती रही थीं देवी मारिषा और फिर उनको पितामही का गौरव देने वाले बहुत अधिक एक साथ आ गए उनके पुत्रों के गृहों में। उनकी अभिलाषा भली प्रकार पूर्ण हो गई। देवक की छः कन्याएं तो वसुदेव जी को ब्याही जा रही थीं; जब देवकी का भी विवाह उनसे हो गया, तब उग्रसेन का ज्येष्ठ पुत्र कंस अपनी छोटी चचेरी बहिन के स्नेहवश स्वयं वसुदेव-देवकी के रथ का सारथि बनकर उन्हें घर पहुँचाने लगा। मार्ग में आकाशवाणी ने उससे कहा- "मूर्ख ! तू जिसे पहुँचाने जा रहा है, उसकी आठवीं सन्तान के हाथ से तेरी मृत्यु होगी।
" इतना सुनते ही कंस ने तलवार खींच ली और वह देवकी को मारने के लिये उद्यत हो गया। वसुदेव जी ने उसे बहुत समझाया। "शरीर तो नश्वर है। मृत्यु एक-न-एक दिन होगी ही। मनुष्य को कोई ऐसा काम इस दो क्षण के जीवन के लिये नहीं करना चाहिये कि मरने पर लोग उसकी निंदा करें। जो प्राणियों को मोहवश कष्ट देता है, मरने पर यम के दूत घोर नरक में डालकर युगों तक उसे भयंकर पीड़ा देते हैं।"
कंस के ऊपर ऐसी बातों का कोई प्रभाव पड़ता न देखकर अन्त में वसुदेव जी ने कहा- "तुम्हें इस देवकी से तो कोई भय है नहीं। तुमको मात्र इसकी संतानों से भय है। मैं वचन देता हूँ कि इसकी सन्तानों को जन्म लेते ही मैं तुम्हारे पास पहुँचा दिया करूंगा।" कंस जानता था कि वसुदेव इतने धर्मात्मा हैं, इतने सत्यनिष्ठ हैं कि वे अपनी बात टाल नहीं सकते। उसने देवकी को मारने का प्रयत्न छोड़ दिया और देवकी तथा वसुदेव को आजीवन कारावास में डाल दिया।
समय आने पर देवकी के पुत्र हुआ। वसुदेव जैसे संत, सत्पुरुष के लिये कोई भी त्याग दुष्कर नहीं। अपने प्राणप्रिय पुत्र को वे जन्मते ही कंस के पास उठा ले गये। पहले तो कंस ने उनकी सत्यनिष्ठा देखकर बालक को लौटा दिया; पर पीछे से नारद ने जब उसे उल्टा-सीधा समझा दिया, तब उस बालक को उसने मार डाला। देवकी के पुत्र उत्पन्न होते ही कंस उसे मार डालता था। छः पुत्र उसने इसी प्रकार मार दिये। सातवें गर्भ में बलराम थे। योगमाया ने उन्हें देवकी के गर्भ से संकर्षित करके रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया।
इसी से बलराम का एक नाम संकर्षण भी हुआ। भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आधी रात में स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र ही प्रकट हुए। भगवान के आदेश से वसुदेव रात्रि में ही उन्हें गोकुल नन्द के यहाँ पहुँचा आये और वहाँ से यशोदा की नवजात बालिका ले आये। कंस जब उस बालिका को मारने चला तो वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी। अष्टभुजा देवी के रूप में प्रकट होकर उसने कंस से कहा- "तेरा वध करने वाला शत्रु कहीं प्रकट हो गया है।" कंस ने यह सुनकर वसुदेव-देवकी को कारागार से छोड़ दिया।
दुरात्मा कंस जान गया कि उसे मारने वाला नन्दगृह में ही आया है। उसके जो असुर ब्रज में गये, वे सभी श्रीकृष्ण के हाथों सद्गति पा गये। जब नारद से पता लगा की कृष्ण-बलराम तो वसुदेव जी के ही पुत्र हैं, तब तो कंस बहुत रुष्ट हुआ। उसने हथकड़ी-बेड़ी से वसुदेव-देवकी को जकड़कर पुनः बंदीगृह में डाल दिया। अन्ततः श्रीकृष्णचन्द्र मथुरा आये। कंस को उन्होंने मारकर मुक्त कर दिया। पिता-माता की बेडि़यां काटकर जब राम-श्याम उनके पदों में प्रमाण करने लगे, वसुदेव जी आश्चर्य से खडे़ रह गये।
वे जानते थे कि श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात परमात्मा हैं। परन्तु लीलामय श्यामसुन्दर ने माता-पिता से क्षमा मांगी, मीठी बातें कीं और उनमें वात्सल्य-भाव जाग्रत कर दिया। वासुदेव की महिमा, उनके सौभाग्य का कोई अनुमान भी कैसे कर सकता है। जगन्नाथ बलराम-श्याम उन्हें पिता कहकर सदा आदर देते थे। नित्य प्रातःकाल उनके पास जाकर उनको प्रमाण करते थे। उनकी सब प्रकार की सेवा करते थे।
कुरुक्षेत्र में सूर्य-ग्रहण के समय वसुदेव ने ऋषियों से कर्म के द्वारा संसार से मुक्त होने का मार्ग पूछा। ऋषियों ने उनसे यज्ञानुष्ठान कराया। वहाँ ऋषियों ने उनसे कहा था- "श्रीकृष्ण ही साक्षात् ब्रह्म हैं।" द्वारका में वसुदेव जी ने उस श्यामसुन्दर से यही बात कही, तब उन मयूर मुकुटधारी ने पिता को तत्त्वज्ञान का उपेदश किया।
इसके पश्चात देवर्षि नारद ने वसुदेव को अध्यात्मज्ञान तथा भक्ति का तत्त्व बताया। तब प्रभास क्षेत्र में श्रीकृष्णचन्द्र ने लीला संवरण कर ली और दारुक से यह संवाद प्राप्त हुआ, तब वसुदेव भी शंखोद्धार-तीर्थ से प्रभास गये और वहाँ उन्होंने भी श्रीकृष्ण का अनुगमन किया।
'भागवत' तथा अन्य पुराणों के अनुसार वसुदेव कृष्ण के वास्तविक पिता, देवकी के पति और कंस के बहनोई थे। जिस प्रकार यशोदा की तुलना में देवकी का चरित्र भक्त कवियों को आकर्षित नहीं कर सका, उसी प्रकार नन्द की तुलना में वसुदेव का चरित्र भी गौण ही रहा। कृष्ण जन्म पर कंस के वध के भय से आक्रान्त वसुदेव की चिन्ता, सोच और कार्यशीलता से उनके पुत्र-स्नेह की सूचना मिलती है। यद्यपि उन्हें कृष्ण अलौकिक व्यक्तित्व का ज्ञान है फिर भी उनकी पितृसुलभ व्याकुलता स्वाभाविक ही है।
मथुरा में पुनर्मिलन के पूर्व ही वसुदेव को स्वप्न में उसका आभास मिल जाता है। वे अपनी दुखी पत्नी देवकी से इस शुभ अवसर की आशा में प्रसन्न रहने के लिए कहते हैं।
वसुदेव का चरित्र भागवत-भाषाकारों के अतिरिक्त सूरदास के समसामायिक एवं परवर्ती प्राय: सभी कवियों की दृष्टि में उपेक्षित ही रहा। आधुनिक युग में केवल 'कृष्णायन' के अन्तर्गत उसे परम्परागत रूप में ही स्थान मिल सका।
नवरात्रि के पावन अवसर पर पढ़ें,करणी माता मंदिर एक अद्भुत रहस्यमय स्थान???????
यदि आपके घर में आपको एक भी चूहा नज़र आ जाए तो आप बेचैन हो उठेंगे। आप उसको अपने घर से भगाने की तमाम तरकीबे लगाएंगे क्योकि चूहों को प्लेग जैसी कई भयानक बीमारियों का कारण माना जाता है।
लेकिन क्या आपको पता है की हमारे देश भारत में माता का एक ऐसा मंदिर भी है जहाँ पर 20000 चूहे रहते है और मंदिर में आने वालो भक्तो को चूहों का झूठा किया हुआ प्रसाद ही मिलता है।
आश्चर्य की बात यह है की इतने चूहे होने के बाद भी मंदिर में बिल्कुल भी बदबू नहीं है, आज तक कोई भी बीमारी नहीं फैली है यहाँ तक की चूहों का झूठा प्रसाद खाने से कोई भी भक्त बीमार नहीं हुआ है। इतना ही नहीं जब आज से कुछ दशको पूर्व पुरे भारत में प्लेग फैला था तब भी इस मंदिर में भक्तो का मेला लगा रहता था और वो चूहों का झूठा किया हुआ प्रसाद ही खाते थे।
यह है राजस्थान के ऐतिहासिक नगर बीकानेर से लगभग 30 किलो मीटर दूर देशनोक में स्तिथ करणी माता का मंदिर जिसे चूहों वाली माता, चूहों वाला मंदिर और मूषक मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
माना जाता है माँ जगदम्बा का साक्षात अवतार,,,,,,,, करणी माता, जिन्हे की भक्त माँ जगदम्बा का अवतार मानते है, का जन्म 1387 में एक चारण परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम रिघुबाई था। रिघुबाई की शादी साठिका गाँव के किपोजी चारण से हुई थी लेकिन शादी के कुछ समय बाद ही उनका मन सांसारिक जीवन से ऊब गया इसलिए उन्होंने किपोजी चारण की शादी अपनी छोटी बहन गुलाब से करवाकर खुद को माता की भक्ति और लोगों की सेवा में लगा दिया।
जनकल्याण, अलौकिक कार्य और चमत्कारिक शक्तियों के कारण रिघु बाई को करणी माता के नाम से स्थानीय लोग पूजने लगे। वर्तमान में जहाँ यह मंदिर स्तिथ है वहां पर एक गुफा में करणी माता अपनी इष्ट देवी की पूजा किया करती थी।
यह गुफा आज भी मंदिर परिसर में स्तिथ है। कहते है करनी माता 151 वर्ष जिन्दा रहकर 23 मार्च 1538 को ज्योतिर्लिन हुई थी। उनके ज्योतिर्लिं होने के पश्चात भक्तों ने उनकी मूर्ति की स्थापना कर के उनकी पूजा शुरू कर दी जो की तब से अब तक निरंतर जारी है।
राजा गंगा सिंह ने करवाया था मंदिर का निर्माण,,,,, करणी माता बीकानेर राजघराने की कुलदेवी है। कहते है की उनके ही आशीर्वाद से बीकानेर और जोधपुर रियासत की स्थापना हुई थी। करणी माता के वर्तमान मंदिर का निर्माण बीकानेर रियासत के महाराजा गंगा सिंह ने बीसवी शताब्दी के शुरुआत में करवाया था।
इस मंदिर में चूहों के अलावा, संगमरमर के मुख्य द्वार पर की गई उत्कृष्ट कारीगरी, मुख्य द्वार पर लगे चांदी के बड़े बड़े किवाड़, माता के सोने के छत्र और चूहों के प्रसाद के लिए रखी चांदी की बहुत बड़ी परात भी मुख्य आकर्षण है।
यदि हम चूहों की बात करे तो मंदिर के अंदर चूहों का एक छत्र राज है। मदिर के अंदर प्रवेश करते ही हर जगह चूहे ही चूहे नज़र आते है। चूहों की अधिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की मंदिर के अंदर मुख्य प्रतिमा तक पहुंचने के लिए आपको अपने पैर घसीटते हुए जाना पड़ता है।
क्योकि यदि आप पैर उठाकर रखते है तो उसके नीचे आकर चूहे घायल हो सकते है जो की अशुभ माना जाता है। इस मंदिर में करीब बीस हज़ार काले चूहों के साथ कुछ सफ़ेद चूहे भी रहते है। इस चूहों को ज्यादा पवित्र माना जाता है। मान्यता है की यदि आपको सफ़ेद चूहा दिखाई दे गया तो आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी।
इस मंदिरो के चूहों की एक विशेषता और है की मंदिर में सुबह 5 बजे होने वाली मंगला आरती और शाम को 7 बजे होने वाली संध्या आरती के वक़्त अधिकांश चूहे अपने बिलो से बाहर आ जाते है।
इन दो वक़्त चूहों की सबसे ज्यादा धामा चौकड़ी होती है। यहां पर रहने वाले चूहों को काबा कहा जाता कहां जाता है। माँ को चढ़ाये जाने वाले प्रसाद को पहले चूहे खाते है फिर उसे बाटा जाता है। चील, गिद्ध और दूसरे जानवरो से इन चूहों की रक्षा के लिए मंदिर में खुले स्थानो पर बारीक जाली लगी हुई है।
करणी माता के बेटे माने जाते है चूहे, करणी माता मंदिर में रहने वाले चूहे माँ की संतान माने जाते है करनी माता की कथा के अनुसार एक बार करणी माता का सौतेला पुत्र ( उसकी बहन गुलाब और उसके पति का पुत्र ) लक्ष्मण, कोलायत में स्तिथ कपिल सरोवर में पानी पीने की कोशिश में डूब कर मर गया।
जब करणी माता को यह पता चला तो उन्होंने, मृत्यु के देवता याम को उसे पुनः जीवित करने की प्राथना की। पहले तो यम राज़ ने मन किया पर बाद में उन्होंने विवश होकर उसे चूहे के रूप में पुनर्जीवित कर दिया।
हालॉकि बीकानेर के लोक गीतों में इन चूहों की एक अलग कहानी भी बताई जाती है जिसके अनुसार एक बार 20000 सैनिकों की एक सेना देशनोक पर आकर्मण करने आई जिन्हे माता ने अपने प्रताप से चूहे बना दिया और अपनी सेवा में रख लिया।
[02/04, 08:29] Morni कृष्ण मेहता: नवरात्रि के पावन अवसर पर पढ़ें,श्री दुर्गा नवरात्रि व्रत कथा!
एक समय बृहस्पति जी ब्रह्माजी से बोले- हे ब्रह्मन श्रेष्ठ! चैत्र व आश्विन मास के शुक्लपक्ष में नवरात्र का व्रत और उत्सव क्यों किया जाता है? इस व्रत का क्या फल है, इसे किस प्रकार करना उचित है? पहले इस व्रत को किसने किया? सो विस्तार से कहिये। बृहस्पतिजी का ऐसा प्रश्न सुन ब्रह्माजी ने कहा- हे बृहस्पते! प्राणियों के हित की इच्छा से तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है।
एक समय बृहस्पति जी ब्रह्माजी से बोले- हे ब्रह्मन श्रेष्ठ! चैत्र व आश्विन मास के शुक्लपक्ष में नवरात्र का व्रत और उत्सव क्यों किया जाता है? इस व्रत का क्या फल है, इसे किस प्रकार करना उचित है? पहले इस व्रत को किसने किया? सो विस्तार से कहिये।
बृहस्पतिजी का ऐसा प्रश्न सुन ब्रह्माजी ने कहा- हे बृहस्पते! प्राणियों के हित की इच्छा से तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है। जो मनुष्य मनोरथ पूर्ण करने वाली दुर्गा, महादेव, सूर्य और नारायण का ध्यान करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं।
यह नवरात्र व्रत संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इसके करने से पुत्र की कामना वाले को पुत्र, धन की लालसा वाले को धन, विद्या की चाहना वाले को विद्या और सुख की इच्छा वाले को सुख मिलता है। इस व्रत को करने से रोगी मनुष्य का रोग दूर हो जाता है। मनुष्य की संपूर्ण विपत्तियां दूर हो जाती हैं और घर में समृद्धि की वृद्धि होती है, बन्ध्या को पुत्र प्राप्त होता है। समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है और मन का मनोरथ सिद्ध हो जाता है।
जो मनुष्य इस नवरात्र व्रत को नहीं करता वह अनेक दुखों को भोगता है और कष्ट व रोग से पीड़ित हो अंगहीनता को प्राप्त होता है, उसके संतान नहीं होती और वह धन-धान्य से रहित हो, भूख और प्यास से व्याकूल घूमता-फिरता है तथा संज्ञाहीन हो जाता है। जो सधवा स्त्री इस व्रत को नहीं करती वह पति सुख से वंचित हो नाना दुखों को भोगती है। यदि व्रत करने वाला मनुष्य सारे दिन का उपवास न कर सके तो एक समय भोजन करे और दस दिन बान्धवों सहित नवरात्र व्रत की कथा का श्रवण करे।
हे बृहस्पते! जिसने पहले इस महाव्रत को किया है वह कथा मैं तुम्हें सुनाता हूं तुम सावधान होकर सुनो। इस प्रकार ब्रह्मा जी का वचन सुनकर बृहस्पति जी बोले- हे ब्राह्माण मनुष्यों का कल्याम करने वाले इस व्रत के इतिहास को मेरे लिए कहो मैं सावधान होकर सुन रहा हूं। आपकी शरण में आए हुए मुझ पर कृपा करो।
ब्रह्माजी बोले- प्राचीन काल में मनोहर नगर में पीठत नाम का एक अनाथ ब्राह्मण रहता था, वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके संपूर्ण सद्गुणों से युक्त सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई। वह कन्या सुमति अपने पिता के घर बाल्यकाल में अपनी सहेलियों के साथ क्रीड़ा करती हुई इस प्रकार बढ़ने लगी जैसे शुक्ल पक्ष में चंद्रमा की कला बढ़ती है।
उसका पिता प्रतिदिन जब दुर्गा की पूजा करके होम किया करता, वह उस समय नियम से वहां उपस्थित रहती। एक दिन सुमति अपनी सखियों के साथ खेल में लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और वह पुत्री से कहने लगा अरी दुष्ट पुत्री! आज तूने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मैं किसी कुष्ट रोगी या दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूंगा।
पिता का ऐसा वचन सुन सुमति को बड़ा दुख हुआ और पिता से कहने लगी- हे पिता! मैं आपकी कन्या हूं तथा सब तरह आपके आधीन हूं जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही करो। राजा से, कुष्टी से, दरिद्र से अथवा जिसके साथ चाहो मेरा विवाह कर दो पर होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है, मेरा तो अटल विश्वास है जो जैसा कर्म करता है उसको कर्मों के अनुसार वैसा ही फल प्राप्त होता है क्योंकि कर्म करना मनुष्य के आधीन है पर फल देना ईश्वर के आधीन है।
जैसे अग्नि में पड़ने से तृणादि उसको अधिक प्रदीप्त कर देते हैं। इस प्रकार कन्या के निर्भयता से कहे हुए वचन सुन उस ब्राह्मण ने क्रोधित हो अपनी कन्या का विवाह एक कुष्टी के साथ कर दिया और अत्यन्त क्रोधित हो पुत्री से कहने लगा-हे पुत्री! अपने कर्म का फल भोगो, देखें भाग्य के भरोसे रहकर क्या करती हो? पिता के ऐसे कटु वचनों को सुन सुमति मन में विचार करने लगी- अहो! मेरा बड़ा दुर्भाग्य है जिससे मुझे ऐसा पति मिला। इस तरह अपने दुख का विचार करती हुई वह कन्या अपने पति के साथ वन में चली गई और डरावने कुशायुक्त उस निर्जन वन में उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।
उस गरीब बालिका की ऐसी दशा देख देवी भगवती ने पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रगट हो सुमति से कहा- हे दीन ब्राह्मणी! मैं तुझसे प्रसन्न हूं, तुम जो चाहो सो वरदान मांग सकती हो। भगवती दुर्गा का यह वचन सुन ब्राह्मणी ने कहा- आप कौन हैं वह सब मुझसे कहो? ब्राह्मणी का ऐसा वचन सुन देवी ने कहा कि मैं आदि शक्ति भगवती हूं और मैं ही ब्रह्मविद्या व सरस्वती हूं। प्रसन्न होने पर मैं प्राणियों का दुख दूर कर उनको सुख प्रदान करती हूं। हे ब्राह्मणी! मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूं।
तुम्हारे पूर्व जन्म का वृतांत सुनाती हूं सुनो! तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और अति पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद ने चोरी की। चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ लिया और ले जाकर जेलखाने में कैद कर दिया। उन लोगों ने तुझको और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया।
इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न जल ही पिया इस प्रकार नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया। हे ब्राह्मणी! उन दिनों में जो व्रत हुआ, इस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर मैं तुझे मनोवांछित वर देती हूं, तुम्हारी जो इच्छा हो सो मांगो।
इस प्रकार दुर्गा के वचन सुन ब्राह्मणी बोली अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो हे दुर्गे। मैं आपको प्रणाम करती हूं कृपा करके मेरे पति का कोढ़ दूर करो। देवी ने कहा- उन दिनों तुमने जो व्रत किया था उस व्रत का एक दिन का पुण्य पति का कोढ़ दूर करने के लिए अर्पण करो, उस पुण्य के प्रभाव से तेरा पति कोढ़ से मुक्त हो जाएगा।
ब्रह्मा जी बोले- इस प्रकार देवी के वचन सुन वह ब्राह्मणी बहुत प्रसन्न हुई और पति को निरोग करने की इच्छा से जब उसने तथास्तु (ठीक है) ऐसा वचन कहा, तब उसके पति का शरीर भगवती दुर्गा की कृपा से कुष्ट रोग से रहित हो अति कान्तिवान हो गया। वह ब्राह्मणी पति की मनोहर देह को देख देवी की स्तुति करने लगी- हे दुर्गे! आप दुर्गति को दूर करने वाली, तीनों लोकों का सन्ताप हरने वाली, समस्त दु:खों को दूर करने वाली, रोगी मनुष्य को निरोग करने वाली, प्रसन्न हो मनोवांछित वर देने वाली और दुष्टों का नाश करने वाली जगत की माता हो।
हे अम्बे! मुझ निरपराध अबला को मेरे पिता ने कुष्टी मनुष्य के साथ विवाह कर घर से निकाल दिया। पिता से तिरस्कृत निर्जन वन में विचर रही हूं, आपने मेरा इस विपदा से उद्धार किया है, हे देवी। आपको प्रणाम करती हूं। मेरी रक्षा करो।
ब्रह्मा जी बोले- हे बृहस्पते! उस ब्राह्मणी की ऐसी स्तुति सुन देवी बहुत प्रसन्न हुई और ब्राह्मणी से कहा- हे ब्राह्मणी! तेरे उदालय नामक अति बुद्धिमान, धनवान, कीर्तिवान और जितेन्द्रिय पुत्र शीध्र उत्पन्न होगा। ऐसा वर प्रदान कर देवी ने ब्राह्मणी से फिर कहा कि हे ब्राह्मणी! और जो कुछ तेरी इच्छा हो वह मांग ले। भगवती दुर्गा का ऐसा वचन सुन सुमति ने कहा कि हे भगवती दुर्गे! अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे नवरात्र व्रत की विधि और उसके फल का विस्तार से वर्णन करें।
महातम्य- इस प्रकार ब्राह्मणी के वचन सुन दुर्गा ने कहा- हे ब्राह्मणी! मैं तुम्हें संपूर्ण पापों को दूर करने वाले नवरात्र व्रत की विधि बतलाती हूं जिसको सुनने से मोक्ष की प्राप्ति होती है- आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक विधिपूर्वक व्रत करें यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय भोजन करें।
ब्राह्मणों से पूछकर घट स्थापन करें और वाटिका बनाकर उसको प्रतिदिन जल से सींचें। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती देवी की मूर्तियां स्थापित कर उनकी नित्य विधि सहित पूजा करें और पुष्पों से विधिपूर्वक अर्घ्य दें।
बिजौरा के फल से अर्घ्य देने से रूप की प्राप्ति होती है। जायफल से अर्घ्य देने से कीर्ति, दाख से अर्घ्य देने से कार्य की सिद्धि होती है, आंवले से अर्घ्य देने से सुख की प्राप्ति और केले से अर्घ्य देने से आभूषणों की प्राप्ति होती है। इस प्रकार पुष्पों व फलों से अर्घ्य देकर व्रत समाप्त होने पर नवें दिन यथा विधि हवन करें।
खांड, घी, गेहूं, शहद, जौ, तिल, बिल्व (बेल), नारियल, दाख और कदम्ब आदि से हवन करें। गेहूं से होम करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, खीर एवं चम्पा के पुष्पों से धन की और बेल पत्तों से तेज व सुख की प्राप्ति होती है।
आंवले से कीर्ति की और केले से पुत्र की, कमल से राज सम्मान की और दाखों से संपदा की प्राप्ति होती है। खांड, घी, नारियल, शहद, जौ और तिल तथा फलों से होम करने से मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है। व्रत करने वाला मनुष्य इस विधि विधान से होम कर आचार्य को अत्यन्त नम्रता के साथ प्रणाम करे और यज्ञ की सिद्धि के लिए उसे दक्षिणा दे।
इस प्रकार बताई हुई विधि के अनुसार जो व्यक्ति व्रत करता है उसके सब मनोरथ सिद्ध होते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। इन नौ दिनों में जो कुछ दान आदि दिया जाता है उसका करोड़ों गुना फल मिलता है। इस नवरात्र व्रत करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। हे ब्राह्मणी! इस संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले उत्तम व्रत को तीर्थ, मंदिर अथवा घर में विधि के अनुसार करें।
ब्रह्मा जी बोले- हे बृहस्पते! इस प्रकार ब्राह्मणी को व्रत की विधि और फल बताकर देवी अर्न्तध्यान हो गई। जो मनुष्य या स्त्री इस व्रत को भक्तिपूवर्क करता है वह इस लोक में सुख प्राप्त कर अन्त में दुर्लभ मोक्ष को प्राप्त होता है। हे बृहस्पते! यह इस दुर्लभ व्रत का महात्म्य है जो मैंने तुम्हें बतलाया है।
यह सुन बृहस्पति जी आनन्द से प्रफुल्लित हो ब्राह्माजी से कहने लगे कि हे ब्रह्मन! आपने मुझ पर अति कृपा की जो मुझे इस नवरात्र व्रत का महात्6य सुनाया। ब्रह्मा जी बोले कि हे बृहस्पते! यह देवी भगवती शरक्ति संपूर्ण लोकों का पालन करने वाली है, इस महादेवी के प्रभाव को कौन जान सकता है? बोलो देवी भगवती की जय।
व्रत की विधि प्रात: नित्यकर्म से निवृत हो, स्नान कर, मंदिर में या घर पर ही नवरात्र में दुर्गा जी का ध्यान करके यह कथा करनी चाहिए। कन्याओं के लिए यह व्रत विशेष लाभदायक है। श्री जगदम्बा की कृपा से सब विध्न दूर हो जाते हैं तथा सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है।
हे परमेश्वरी! मेरे द्वारा रात दिन सहस्त्रों अपराध होत हैं 'यह मेरा दास है' समझ कर मेरे अपराधों को क्षमा करो। हे परमेश्वरी! मैं आह्वान, विसर्जन और पूजन करना नहीं जानता, मुझे क्षमा करो। हे सुरेश्वरी! मैंने जो मंत्रहीन, क्रियाहीन, भक्तयुक्त पूजन किया है वह स्वीकार करो। हे परमेश्वरी! अज्ञान से, भूल से अथवा बुद्धि भ्रान्ति से जो न्यूनता अथवा अधिकता हो गई है उसे क्षमा करिये तथा प्रसन्न होईये।
जाप मंत्र- ऊं ऐं हीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै नम:।मनोकामना सिद्धि के लिए इस मंत्र को 108 बार या सुविधा अनुसार जाप करें।
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*🙏श्री गणेशाय नम:🙏* :
*((रात्रि कथा))*
*>>विश्वास<<*
एक राजा की पुत्री के मन में वैराग्य की भावनाएं थीं।
जब राजकुमारी विवाह योग्य हुई तो राजा को उसके विवाह के लिए योग्य वर नहीं मिल पा रहा था।
राजा ने पुत्री की भावनाओं को समझते हुए बहुत सोच-विचार करके उसका विवाह एक गरीब संन्यासी से करवा दिया।
राजा ने सोचा कि एक संन्यासी ही राजकुमारी की भावनाओं की कद्र कर सकता है।
विवाह के बाद राजकुमारी खुशी-खुशी संन्यासी की कुटिया में रहने आ गई।
कुटिया की सफाई करते समय राजकुमारी को एक बर्तन में दो सूखी रोटियां दिखाई दीं। उसने अपने संन्यासी पति से पूछा कि रोटियां यहां क्यों रखी हैं?
संन्यासी ने जवाब दिया कि ये रोटियां कल के लिए रखी हैं, अगर कल खाना नहीं मिला तो हम एक-एक रोटी खा लेंगे।
संन्यासी का ये जवाब सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी।
राजकुमारी ने कहा कि मेरे पिता ने मेरा विवाह आपके साथ इसलिए किया था, क्योंकि उन्हें ये लगता है कि आप भी मेरी ही तरह वैरागी हैं, आप तो सिर्फ भक्ति करते हैं और कल की चिंता करते हैं।
सच्चा भक्त वही है जो कल की चिंता नहीं करता और भगवान पर पूरा भरोसा करता है।
अगले दिन की चिंता तो जानवर भी नहीं करते हैं, हम तो इंसान हैं।
अगर भगवान चाहेगा तो हमें खाना मिल जाएगा और नहीं मिलेगा तो रातभर आनंद से प्रार्थना करेंगे।
ये बातें सुनकर संन्यासी की आंखें खुल गई। उसे समझ आ गया कि उसकी पत्नी ही असली संन्यासी है।
उसने राजकुमारी से कहा कि आप तो राजा की बेटी हैं, राजमहल छोड़कर मेरी छोटी सी कुटिया में आई हैं, जबकि मैं तो पहले से ही एक फकीर हूं, फिर भी मुझे कल की चिंता सता रही थी। सिर्फ कहने से ही कोई संन्यासी नहीं होता, संन्यास को जीवन में उतारना पड़ता है। आपने मुझे वैराग्य का महत्व समझा दिया।।।।।।।
*रात्रि कथा का तात्पर्य*: अगर हम भगवान की भक्ति करते हैं तो विश्वास भी होना चाहिए कि भगवान हर समय हमारे साथ है!
उसको (भगवान्) हमारी चिंता हमसे ज्यादा रहती हैं!
कभी आप बहुत परेशान हो, कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा हो!
आप आँखे बंद कर के विश्वास के साथ पुकारे, सच मानिये
थोड़ी देर में आप की समस्या का समाधान मिल जायेगा..!!
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. *"卐 ज्योतिषी और हस्तरेखाविद 卐"*
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1."A mind caught in words is incapable of being free."
निशब्द मन का हमें अनुभव नहीं हमें सिर्फ ऐसे मन का अनुभव है जो निरंतर शब्दों से
जकडा हुआ है।उससे मुक्त होने के लिए हम पुनः सहारा शब्दों का ही लेते हैं।चाहे अच्छे शब्दों का परंतु उससे कोई फर्क नहीं पडता।इसे केवल समझ लेना काफी है कि शब्दों में जकडा मन स्वतंत्र होने में असमर्थ है।यह समझते ही मन निशब्द हो जाता है,स्वतंत्र हो जाता है।बंधन-मुक्ति जैसे द्वंद्वसूचक शब्द सदा के लिए विलीन हो जाते हैं।
2."Beauty is not in the face,beauty is a light in the heart."
चेहरे की सुंदरता दिखाने के पीछे दूसरों को प्रभावित करने का उद्देश्य रहता है।इस मानसिकता के,इस कर्तापन के चलते कुरुपता ही घटती है ।अभिमानी कर्ता असुंदरता ही ला सकता है।असली सुंदरता हृदय की होती है जिसमें अकर्तापन होने से नैसर्गिक सौंदर्य अपने स्वाभाविक रुप में विराजता है।
3."When there is a division between the observer and the observed there is conflict but when the observer is the observed there is no control,no suppression.The self comes to an end.conflict comes to an end."
जब तक हम दृश्य को देखते हैं तब तक द्वंद्व है,संघर्ष है,रागद्वेष है लेकिन जब हम खुद दृश्य बन जाते हैं,अर्थात् जब हम स्वयं को ही देखते हैं तब कोई द्वंद्व, संघर्ष नहीं होते।फिर किससे होगा रागद्वेष, स्वयं से तो होने से रहा?अतः आत्मा न बन पायें तो अपना शरीर बन जायें,अपना चेहरा बन जायें,अपने नेत्र बन जाएं और ध्यान दें स्वयं पर तो आप अपने आपको अपने आपके ज्यादा पास महसूस करेंगे।इससे भीतर स्रोत में विलय प्रक्रिया की शुरुआत होगी।कल्याण इसी में है।'पर थी खस।स्व मां वस।आटलुं बस।'
4."The problem arises only when desire is made into pleasure by thought."
यह जानकर आश्चर्य होगा कि इच्छा का सुख से कोई संबंध नहीं है।इच्छा का संबंध केवल विचार से है।विचार विचार में यह भ्रम होता है कि इच्छा सुख की है और इच्छा पूर्ति से सुख मिलेगा।यह सुख नहीं दुख ही है।सुखदुख एक ही चीज के दो नाम हैं।सच्चा, स्थायी,आधारभूत सुख तभी संभव है जब आदमी इच्छारहित अर्थात् निर्विचार हो जाय।जब तक विचार,इच्छा को सुख से जोड रहा है तब तक केवल द्वंद्व है।अतः "मैं"रुपी विचार से सोचने के बजाय इच्छारहित, निर्विचार अवस्था में आने के लिए ही प्रयत्न करते रहना चाहिए।
5."प्रार्थना का पहला कदम है-बोलना।दूसरा कदम है-सुनना।"
मन से चाहे कुछ भी प्रार्थना करें लेकिन फिर मौन हो जाएं और सुनें हृदय को।थोडा समय लगेगा पर वह कुछ कहेगा अपने अनुभव की भाषा में।हृदय की भाषा अनुभव की भाषा है।शब्द और अर्थ की भाषा में सोचना मन का काम है।
6."मैं ना रहे तो तू मिट जाता है।तू ना रहे तो मैं मिट जाता है।"
दोनों मिटें तभी शांति है।जब तक एक को बनाये रखते हैं यह असंभव है।जब तक एक भी रहेगा,दूसरा भी अवश्य रहेगा ही।लेकिन इसका रास्ता भी एक में ही है।या तो केवल "मैं" में ही रहें तब गहराई में मैं और तू दोनों चले जायेंगे।या तू के प्रेम में डूब जायें तब भी दोनों शब्द चले जायेंगे।'जो है' वह रह जायेगा।
7."Patience has no time.Impatience has time."
कहीं घूमने गये थोडे दिन के लिए।वापस लौटने की तैयारी भी थी और बर्फबारी होगयी।सूचना मिली अभी कुछ दिन लगेंगे सफाई होने में।मन मारकर थोडा धैर्य रख लिया।लेकिन वह अवधि पूरी होने पर सूचना मिलती है कि अभी थोडे दिन और लगेंगे तो धीरज टूट जाता है।कारण?
धैर्य था ही नहीं, अधीरता ही थी।हम सब अधीर लोग हैं।समय से बंधे हुए हैं।समय का मतलब अधीरता।जब प्रकृति हमें रुकने का संदेश देती हैं तब हम रुकना जरूरी नहीं समझते किंतु उसके आगे हमारी चलती नहीं है।इसमें धीरगंभीर आदमी टिक पाता है।उसके लिए समय नाम की कोई चीज नहीं है।धीरता समयरहित है तो ही वह धीरता है।बाकी अधीरता तो समय से बंधी हुई है ही।
8."शक्ति निरंतर बाहर की ओर जाती है।"
यह हम सभी लोगों की दशा है।हमें लगता है ध्यान बाहर जाता है।यह ध्यान नहीं, यह 'शक्ति' है जो निरंतर बाहर जाती है और हमें भी घसीट कर ले जाती है।ध्यान जाना साधारण बात है।'शक्ति' का जाना सावधान करनेवाला है।हम बिना जाने इसका साथ देते हैं क्योंकि बाहरी सुरक्षा, बाहर से मिलनेवाली सुरक्षा हमारे लिए बडा महत्व रखती है।हमें पता नहीं कि यह निरंतर बाहर जाने वाली शक्ति जब हमारे भीतर आने लगती है,भीतर स्रोत में समाहित होने लगती है तब कितनी ताकत,कितनी ऊर्जा अनुभव होती है!यही वह बल है जिससे महापुरुष सदा आनंद में रहते हैं और किसी दुखकष्ट से विचलित नहीं होते।
9."हम दोनों हाथों की उंगलियां एकदूसरे में बांधकर दस मिनट यह भावना करें कि ये उंगलियां एक दूसरे से छूट ही नहीं सकती तो दस मिनट बाद यही होगा।"
यह मन की भ्रामक शक्ति है।जो आदमी बारबार यह सोचता है कि मैं असमर्थ हूं तो उसे पता नहीं चलता कि वह कितनी बडी भूल कर रहा है।वह अपने मन को सुझाव दे रहा है अपनी असमर्थता का बिना जाने कि मन भी फिर यही करनेवाला है।असमर्थता घर कर जायेगी अपने भीतर।इसकी जगह सामर्थ्य का ही विचार करें,सुझाव दें मन को तो मन फिर वैसा ही व्यवहार करेगा।हम मन से अलग कहां हैं?मन के रुप में ही तो रहते हैं अतः मन को सही सुझाव देना अत्यावश्यक है।यह ध्यान रखना चाहिए कि हम बारबार किसी बिमारी या रोग का नाम लेते रहेंगे,अपने और दूसरे लोगों को उसकी परवशता का स्मरण कराते रहेंगे तो सभी के मन नकारात्मक होकर वैसा ही सोचेंगे।वे उससे बाहर नहीं निकलने देंगे।जबकि बाहर निकला जा सकता है।बाहर निकलने की जरूरत भी न पडेगी यदि हम मन को सदैव सही,रचनात्मक, सकारात्मक सुझाव ही दे रहे हैं बजाय दिनरात एक ही दुष्प्रचार में जुटे रहने के।
जरूरत है सही समझ की और आत्मसंयम की।सर्वोत्तम सुझाव है-'धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परम आत्मा में स्थित करके उसके अलावा कुछ भी चिंतन न करे।शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।आत्मसंस्थं मन:कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्।।गीता।६।२५।।
[03/04, 08:50] Morni कृष्ण मेहता: मोक्ष (भाग−१) :—
एक प्रश्न आया है —
“मोक्ष कैसे होता है ?”
उत्तर —
सारी ईच्छाओं से पिण्ड छूट जाने पर ।
पहले तामसिक ईच्छाओं से,फिर राजसिक से,अन्त में सात्विक ईच्छाओं से भी ।
जबतक तामसिक और राजसिक ईच्छायें हैं तबतक सात्विक ईच्छाओं को त्यागना उचित नहीं । सात्विक ईच्छा का अर्थ है धार्मिक कर्म करने की ईच्छा । पुण्य का फल स्वर्ग होता है,मोक्ष नहीं । स्वर्ग का अर्थ है चार दिन की चाँदनी,फिर मर्त्यलोक का अँधियारा!नरक का अर्थ है चार दिन का कष्ट,फिर मर्त्यलोक का अँधियारा!अतः स्वर्ग और नरक का अन्तिम फल समान है —
मर्त्यलोक का “अरघट्ट−घटी−यन्त्र” ।
प्राचीन भारत में “अरघट्ट−घटी−यन्त्र” द्वारा खेतों की सिंचाई होती थी । कूँए से अनेक घड़ों की श्रृङ्खला जल भरकर ऊपर लाती और नाले में उड़ेलकर खाली घड़े पुनः नीचे जल लेने जाते,बैलों द्वारा घड़ों की श्रृङ्खला घूमती रहती थी । इसी तरह जीव कर्मों का फल भोगने के लिये नीचे मर्त्यलोक में गिरता,और उन फलों के समाप्त होने पर मर्त्यलोक से निकलता,किन्तु मर्त्यलोक में नये कर्म करने के कारण पुनः मर्त्यलोक में जाता । प्राचीन अद्वैतवादी ग्रन्थों में “अरघट्ट−घटी−यन्त्र” के उदाहरण द्वारा जन्म−मरण की अनवरत श्रृङ्खला को समझाया जाता था । इस अनवरत श्रृङ्खला को केवल ईच्छाओं के त्याग द्वारा ही तोड़ा जा सकता है । ईच्छायें नहीं रहेंगी तो नये सकाम कर्म भी नहीं किये जायेंगे,तब उनका फल भोगने के लिये जन्म−मरण के चक्र में बारम्बार फँसना नहीं पड़ेगा ।
ईच्छाओं का त्याग हो जाय तो निष्काम कर्म द्वारा शेष जीवन बिताना चाहिए ।
ईच्छाओं का त्याग केवल दो साधनों द्वारा ही सम्भव है — अभ्यास तथा वैराग्य । वैराग्य का अर्थ है ऐन्द्रिक तुष्टि वाले विषयों की ओर मन के आकर्षित होने का अभाव,और अभ्यास का अर्थ है ऐसा हर उपाय करना जिसके द्वारा वैराग्य मन की स्वाभाविक अवस्था बन जाय ।
सकाम कर्म के दो फल होते हैं । पहला फल तो वह है जिसे पाने के लिये वह कर्म किया गया,भले ही वह फल मिल सके या न मिले । दूसरा फल है उस प्रकार के नये सकाम कर्म करने की ईच्छा का बलवान होना । यह दूसरा फल ही पिछले समस्त कर्मफलों के उस भण्डार में जुड़ता है जिसे “संस्कार” कहते हैं ।
वैदिक संस्कारों अर्थात् अच्छे संस्कारों के अनुसार कर्म करने को “धर्म” कहते हैं । कर्म करने की सही विधि ही “कर्मकाण्ड” है जिसे कलियुग में धूर्तों ने धन्धा बना रखा है । कर्मकाण्ड द्वारा कर्तव्य कर्मों के उचित फल भी प्राप्त होते हैं और उनके फल बन्धन में बाँधते भी नहीं । कर्मकाण्ड को सकाम कर्म का साधन बनाना कलियुग की बीमारी है जिस कारण सनातन धर्म अशक्त हुआ है । संसारिक वासनाओं की पूर्ति के लिये कर्मकाण्ड नहीं हैं । कर्मकाण्ड का प्रयोग केवल कर्तव्यपालन और धर्मरक्षा हेतु ही करना चाहिये,वरना वैदिक यज्ञ भी सकाम बनकर बन्धन में डालेंगे ।
“संस्कार” के सम्पूर्ण समुच्चय के पूर्णतया भस्म होने पर ही मोक्ष मिलता है । किसी मनुष्य में यह सामर्थ्य नहीं कि चौरासी लाख योनियें में अनन्त जन्मों के दौरान किये गये समस्त कर्मों के फलों को अपने जप−तप आदि द्वारा भस्म कर सके ।
किन्तु आधे संस्कार भस्म हो जाने पर सात्विकता बढ़ जाती है । मन की स्वाभाविक प्रवृति सात्विक हो जाने पर ईश्वर जीव को खींचने लगते हैं । बिना ईशकृपा के संस्कारों के अनन्त प्रवाह वाली वैतरणी की विपरीत−तरणी को तैरना जीव के वश की बात नहीं । सही ज्ञान,सही कर्म और सच्ची भक्ति — तीनों अनिवार्य हैं,तब जीव अपने वास्तविक ज्ञान में स्थिर रहना सीख पाता है । ज्ञान ही मोक्ष है,कर्म और भक्ति साधन हैं,किन्तु साधन के बिना साध्य सम्भव नहीं ।
अपने सच्चे स्वरूप से जुड़ना ही “योग” है जिसके ‘अभ्यास’ का सर्वोत्तम साधन है महर्षि पतञ्जलि का “योगसूत्र”,जिसपर सर्वोत्तम भाष्य है महर्षि वेदव्यास का । हिन्दी में इसकी संक्षिप्त और सर्वोत्तम टीका है स्वामी ओमानन्द तीर्थ द्वारा लिखित और गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित “पातञ्जल योग प्रदीप” जिसमें मूल योगसूत्र का अर्थ तथा व्यासभाष्य को समझने का पूरा प्रयास करें और स्वामी ओमानन्द तीर्थ द्वारा जोड़ी गयी सारी बातों का महत्व न दें — हालाँकि वे भी उपयोगी हैं परन्तु उक्त दोनों महर्षियों के सामने स्वामी ओमानन्द तीर्थ अथवा हमलोग कुछ नहीं ।
रामदेव,रावणदेव,रहीमदेव आदि से पूरी दूरी बनाकर रखें,वे लोग योगी नहीं हैं,स्वयं भी भटक गये हैं और आपको भी भटका देंगे । उनको मोक्ष नहीं,यश या धन चाहिए । आपको यश या धन चाहिए तो वैदिक कर्मकाण्ड का सही प्रयोग करें,योग या धर्म या कर्मकाण्ड की दूकान न खोलें । आलू−बैंगन बेचना पाप नहीं है,अध्यात्म बेचना पाप है ।
[03/04, 08:51] Morni कृष्ण मेहता: नित्य पाठ के लिए मां भवानी का शरणागति स्तोत्र भवान्यष्टकस्तोत्रम !
भगवान आद्य शंकराचार्य निर्गुण-निराकार अद्वैत परब्रह्म के उपासक थे। एक बार वे काशी आए तो वहां उन्हें अतिसार (दस्त) हो गया जिसकी वजह से वे अत्यन्त दुर्बल हो गए। अत्यन्त कृशकाय होकर वे एक स्थान पर बैठे थे। उन पर कृपा करने के लिए भगवती अन्नपूर्णा एक गोपी का वेष बनाकर दही का एक बहुत बड़ा पात्र लिए वहां आकर बैठ गयीं। कुछ देर बाद उस गोपी ने कहा–’स्वामीजी! मेरे इस घड़े को उठवा दीजिए।’
स्वामीजी ने कहा–’मां! मुझमें शक्ति नहीं है, मैं इसे उठवाने में असमर्थ हूँ।’ मां ने कहा–’तुमने शक्ति की उपासना की होती, तब शक्ति आती। शक्ति की उपासना के बिना भला शक्ति कैसे आ सकती है?’ यह सुनकर शंकराचार्यजी की आंखें खुल गयीं। उन्होंने शक्ति की उपासना के लिए अनेक स्तोत्रों की रचना की। भगवान शंकराचार्यजी द्वारा स्थापित चार पीठ हैं। चारों में ही चार शक्तिपीठ हैं।
भवान्यष्टक श्रीशंकराचार्यजी द्वारा रचित मां भवानी (शिवा, दुर्गा) का शरणागति स्तोत्र है। माँ भवानी शरणागतवत्सला होकर अपने भक्त को भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं। देवी की शरण में आए हुए मनुष्यों पर विपत्ति तो आती ही नहीं बल्कि वे शरण देने वाले हो जाते हैं।
भवानी अष्टक!!!!!!!
न तातो न माता न बन्धुर्न दाता
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥१॥
हे भवानि! पिता, माता, भाई, दाता, पुत्र, पुत्री, भृत्य, स्वामी, स्त्री, विद्या और वृत्ति–इनमें से कोई भी मेरा नहीं है, हे देवि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्ही मेरी गति हो।
भवाब्धावपारे महादुःखभीरुः
पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः।
कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥२॥
मैं अपार भवसागर में पड़ा हूँ, महान दु:खों से भयभीत हूँ, कामी, लोभी, मतवाला तथा घृणायोग्य संसार के बन्धनों में बँधा हुआ हूँ, हे भवानि! अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
न जानामि दानं न च ध्यानयोगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम्।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगम्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥३॥
हे देवि! मैं न तो दान देना जानता हूँ और न ध्यानमार्ग का ही मुझे पता है, तन्त्र और स्तोत्र-मन्त्रों का भी मुझे ज्ञान नहीं है, पूजा तथा न्यास आदि की क्रियाओं से तो मैं एकदम कोरा हूँ,
अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित्।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातर्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥४॥
न पुण्य जानता हूँ, न तीर्थ, न मुक्ति का पता है न लय का। हे माता! भक्ति और व्रत भी मुझे ज्ञात नहीं है, हे भवानि! अब केवल तुम्हीं मेरा सहारा हो।
कुकर्मी कुसंगी कुबुद्धिः कुदासः
कुलाचारहीनः कदाचारलीनः।
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहम्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥५॥
मैं कुकर्मी, बुरी संगति में रहने वाला, दुर्बुद्धि, दुष्टदास, कुलोचित सदाचार से हीन, दुराचारपरायण, कुत्सित दृष्टि रखने वाला और सदा दुर्वचन बोलने वाला हूँ, हे भवानि! मुझ अधम की एकमात्र तुम्हीं गति हो।
प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं
दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित्।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥६॥
मैं ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य किसी भी देवता को नहीं जानता, हे शरण देने वाली भवानि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥७॥
हे शरण्ये! तुम विवाद, विषाद, प्रमाद, परदेश, जल, अनल, पर्वत, वन तथा शत्रुओं के मध्य में सदा ही मेरी रक्षा करो, हे भवानि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो
महाक्षीणदीनः सदा जाड्यवक्त्रः।
विपत्तौ प्रविष्टः प्रणष्टः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥८॥
हे भवानि! मैं सदा से ही अनाथ, दरिद्र, जरा-जीर्ण, रोगी, अत्यन्त दुर्बल, दीन, गूंगा, विपदा से ग्रस्त और नष्ट हूँ, अब तुम्हीं एकमात्र मेरी गति हो।
इति श्रीमच्छड़्कराचार्यकृतं भवान्यष्टकं सम्पूर्णम्।
[03/04, 08:51] Morni कृष्ण मेहता: दस पवित्र पक्षी और उनका रहस्य
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आइये जाने उन दस दिव्य और पवित्र पक्षीयों के बारे मैं जिनका हिंदू धर्म में बहुत ही महत्व माना गया है...
हंस👉 जब कोई व्यक्ति सिद्ध हो जाता है तो उसे कहते हैं कि इसने हंस पद प्राप्त कर लिया और जब कोई समाधिस्थ हो जाता है, तो कहते हैं कि वह परमहंस हो गया। परमहंस सबसे बड़ा पद माना गया है।
हंस पक्षी प्यार और पवित्रता का प्रतीक है। यह बहुत ही विवेकी पक्षी माना गया है। आध्यात्मिक दृष्टि मनुष्य के नि:श्वास में 'हं' और श्वास में 'स' ध्वनि सुनाई पड़ती है। मनुष्य का जीवन क्रम ही 'हंस' है क्योंकि उसमें ज्ञान का अर्जन संभव है। अत: हंस 'ज्ञान' विवेक, कला की देवी सरस्वती का वाहन है। यह पक्षी अपना ज्यादातर समय मानसरोवर में रहकर ही बिताते हैं या फिर किसी एकांत झील और समुद्र के किनारे।
हंस दांपत्य जीवन के लिए आदर्श है। यह जीवन भर एक ही साथी के साथ रहते हैं। यदि दोनों में से किसी भी एक साथी की मौत हो जाए तो दूसरा अपना पूरा जीवन अकेले ही गुजार या गुजार देती है। जंगल के कानून की तरह इनमें मादा पक्षियों के लिए लड़ाई नहीं होती। आपसी समझबूझ के बल पर ये अपने साथी का चयन करते हैं। इनमें पारिवारिक और सामाजिक भावनाएं पाई जाती है।
हिंदू धर्म में हंस को मारना अर्थात पिता, देवता और गुरु को मारने के समान है। ऐसे व्यक्ति को तीन जन्म तक नर्क में रहना होता है।
मोर👉 मोर को पक्षियों का राजा माना जाता है। यह शिव पुत्र कार्तिकेय का वाहन है। भगवान कृष्ण के मुकुट में लगा मोर का पंख इस पक्षी के महत्व को दर्शाता है। यह भारत का राष्ट्रीय पक्षी है।
अनेक धार्मिक कथाओं में मोर को बहुत ऊंचा दर्जा दिया गया है। हिन्दू धर्म में मोर को मार कर खाना महापाप समझा जाता है।
कौआ👉 कौए को अतिथि-आगमन का सूचक और पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। इसकी उम्र लगभग 240 वर्ष होती है। श्राद्ध पक्ष में कौओं का बहुत महत्व माना गया है। इस पक्ष में कौओं को भोजना कराना अर्थात अपने पितरों को भोजन कराना माना गया है। कौए को भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पहले से ही आभास हो जाता है।
उल्लू 👉 उल्लू को लोग अच्छा नहीं मानते और उससे डरते हैं, लेकिन यह गलत धारणा है। उल्लू लक्ष्मी का वाहन है। उल्लू का अपमान करने से लक्ष्मी का अपमान माना जाता है। हिन्दू संस्कृति में माना जाता है कि उल्लू समृद्धि और धन लाता है।
भारत वर्ष में प्रचलित लोक विश्वासों के अनुसार भी उल्लू का घर के ऊपर छत पर स्थित होना तथा शब्दोच्चारण निकट संबंधी की अथवा परिवार के सदस्य की मृत्यु का सूचक समझा जाता है। सचमुच उल्लू को भूत-भविष्य और वर्तमान में घट रही घटनाओं का पहले से ही ज्ञान हो जाता है।
वाल्मीकि रामायण में उल्लू को मूर्ख के स्थान पर अत्यन्त चतुर कहा गया। रामचंद्र जी जब रावण को मारने में असफल होते हैं और जब विभीषण उनके पास जाते हैं, तब सुग्रीव राम से कहते हैं कि उन्हें शत्रु की उलूक-चतुराई से बचकर रहना चाहिए। ऋषियों ने गहरे अवलोकन तथा समझ के बाद ही उलूक को श्रीलक्ष्मी का वाहन बनाया था।
गरूड़👉 इसे गिद्ध भी कहा जाता है। पक्षियों में गरूढ़ को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। यह समझदार और बुद्धिमान होने के साथ-साथ तेज गति से उड़ने की क्षमता रखता है। गरूड़ के नाम पर एक पुराण भी है गरूड़ पुराण। यह भारत का धार्मिक और अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी है।
गरूड़ के बारे में पुराणों में अनेक कथाएं मिलती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु की सवारी और भगवान राम को मेघनाथ के नागपाश से मुक्ति दिलाने वाले गरूड़ के बारे में कहा जाता है कि यह सौ वर्ष तक जीने की क्षमता रखता है।
नीलकंठ👉 नीलकंड को देखने मात्र से भाग्य का दरवाजा खुल जाता है। यह पवित्र पक्षी माना जाता है। दशहरा पर लोग इसका दर्शन करने के लिए बहुत ललायित रहते हैं।
तोता👉 तोते का हरा रंग बुध ग्रह के साथ जोड़कर देखा जाता है। अतः घर में तोता पालने से बुध की कुदृष्टि का प्रभाव दूर होता है। घर में तोते का चित्र लगाने से बच्चों का पढ़ाई में मन लगता है।
आपने बहुत से तोता पंडित देखें होंगे जो भविष्यवाणी करते हैं। तोते के बारे में बहुत सारी कथाएं पुराणों में मिलती है। इसके अलवा, जातक कथाओं, पंचतंत्र की कथाओं में भी तोते को किसी न किसी कथा में शामिल किया गया है।
कबूतर👉 इसे कपोत कहते हैं। यह शांति का प्रतीक माना गया है। भगवान शिव ने जब अमरनाथ में पार्वती को अजर अमर होने के वचन सुनाए थे तो कबतरों के एक जोड़े ने यह वचन सुन लिए थे तभी से वे अजर-अमर हो गए। आज भी अमरनाथ की गुफा के पास ये कबूतर के जोड़े आपको दिखाई दे जाएंगे। कहते हैं कि सावन की पूर्णिमा को ये कबूतर गुफा में दिखाई पड़ते हैं। इसलिए कबूतर को महत्व दिया जाता है।
बगुला👉 आपने कहावत सुनी होगी बगुला भगत। अर्थात ढोंगी साधु। धार्मिक ग्रंथों में बगुले से जुड़ी अनेक कथाओं का उल्लेख मिलता है। पंत्रतंत्र में एक कहानी है बगुला भगत। बगुला भगत पंचतंत्र की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा हैं।
बगुला के नाम पर एक देवी का नाम भी है जिसे बगुलामुखी कहते हैं। बगुला ध्यान भी होता है अर्थात बगुले की तरह एकटक ध्यान लगाना। बगुले के संबंध में कहा जाता है कि ये जिस भी घर के पास के किसी वृक्ष आदि पर रहते हैं वहां शांति रहती है और किसी प्रकार की अकाल मृत्यु नहीं होती।
गोरैया👉 भारतीय पौराणिक मान्यताओं अनुसार यह चिड़ियां जिस भी घर में या उसके आंगन में रहती है वहां सुख और शांति बनी रहती है। खुशियां उनके द्वार पर हमेशा खड़ी रहती है और वह घर दिनोदिन तरक्की करता रहता है।
आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र
[03/04, 08:51] Morni कृष्ण मेहता: माता वैष्णो देवी की अमर कथा
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वैष्णो देवी उत्तरी भारत के सबसे पूजनीय और पवित्र स्थलों में से एक है। यह मंदिर पहाड़ पर स्थित होने के कारण अपनी भव्यता व सुंदरता के कारण भी प्रसिद्ध है। वैष्णो देवी भी ऐसे ही स्थानों में एक है जिसे माता का निवास स्थान माना जाता है। मंदिर, 5,200 फीट की ऊंचाई और कटरा से लगभग 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
हर साल लाखों तीर्थ यात्री मंदिर के दर्शन करते हैं।यह भारत में तिरुमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला धार्मिक तीर्थस्थल है। वैसे तो माता वैष्णो देवी के सम्बन्ध में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं लेकिन मुख्य 2 कथाएँ अधिक प्रचलित हैं।
माता वैष्णो देवी की प्रथम कथा, मान्यतानुसार एक बार पहाड़ों वाली माता ने अपने एक परम भक्तपंडित श्रीधर की भक्ति से प्रसन्न होकर उसकी लाज बचाई और पूरे सृष्टि को अपने अस्तित्व का प्रमाण दिया। वर्तमान कटरा कस्बे से 2 कि.मी. की दूरी पर स्थित हंसाली गांव में मां वैष्णवी के परम भक्त श्रीधर रहते थे। वह नि:संतान होने से दु:खी रहते थे। एक दिन उन्होंने नवरात्रि पूजन के लिए कुँवारी कन्याओं को बुलवाया। माँ वैष्णो कन्या वेश में उन्हीं के बीच आ बैठीं।
पूजन के बाद सभी कन्याएं तो चली गई पर माँ वैष्णो देवी वहीं रहीं और श्रीधर से बोलीं- ‘सबको अपने घर भंडारे का निमंत्रण दे आओ।’ श्रीधर ने उस दिव्य कन्या की बात मान ली और आस – पास के गाँवों में भंडारे का संदेश पहुँचा दिया। वहाँ से लौटकर आते समय गुरु गोरखनाथ व उनके शिष्य बाबा भैरवनाथ जी के साथ उनके दूसरे शिष्यों को भी भोजन का निमंत्रण दिया।
भोजन का निमंत्रण पाकर सभी गांववासी अचंभित थे कि वह कौन सी कन्या है जो इतने सारे लोगों को भोजन करवाना चाहती है? इसके बाद श्रीधर के घर में अनेक गांववासी आकर भोजन के लिए एकत्रित हुए। तब कन्या रुपी माँ वैष्णो देवी ने एक विचित्र पात्र से सभी को भोजन परोसना शुरू किया।
भोजन परोसते हुए जब वह कन्या भैरवनाथ के पास गई। तब उसने कहा कि मैं तो खीर – पूड़ी की जगह मांस भक्षण और मदिरापान करुंगा। तब कन्या रुपी माँ ने उसे समझाया कि यह ब्राह्मण के यहां का भोजन है, इसमें मांसाहार नहीं किया जाता। किंतु भैरवनाथ ने जान – बुझकर अपनी बात पर अड़ा रहा।
जब भैरवनाथ ने उस कन्या को पकडऩा चाहा, तब माँ ने उसके कपट को जान लिया। माँ ने वायु रूप में बदलकरत्रिकूट पर्वत की ओर उड़ चली। भैरवनाथ भी उनके पीछे गया। माना जाता है कि माँ की रक्षा के लिए पवनपुत्र हनुमान भी थे। मान्यता के अनुसार उस वक़्त भी हनुमानजी माता की रक्षा के लिए उनके साथ ही थे।
हनुमानजी को प्यास लगने पर माता ने उनके आग्रह पर धनुष से पहाड़ पर बाण चलाकर एक जलधारा निकाला और उस जल में अपने केश धोए। आज यह पवित्र जलधारा बाणगंगा के नाम से जानी जाती है, जिसके पवित्र जल का पान करने या इससे स्नान करने से श्रद्धालुओं की सारी थकावट और तकलीफें दूर हो जाती हैं।
इस दौरान माता ने एक गुफा में प्रवेश कर नौ माह तक तपस्या की। भैरवनाथ भी उनके पीछे वहां तक आ गया। तब एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे एक कन्या समझ रहा है, वह आदिशक्ति जगदम्बा है। इसलिए उस महाशक्ति का पीछा छोड़ दे।
भैरवनाथ साधु की बात नहीं मानी। तब माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं। यह गुफा आज भी अर्धकुमारी या आदिकुमारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है। अर्धक्वाँरी के पहले माता की चरण पादुका भी है।
यह वह स्थान है, जहाँ माता ने भागते – भागते मुड़कर भैरवनाथ को देखा था। गुफा से बाहर निकल कर कन्या ने देवी का रूप धारण किया। माता ने भैरवनाथ को चेताया और वापस जाने को कहा। फिर भी वह नहीं माना। माता गुफा के भीतर चली गई। तब माता की रक्षा के लिए हनुमानजी ने गुफा के बाहर भैरव से युद्ध किया।
भैरव ने फिर भी हार नहीं मानी जब वीर हनुमान निढाल होने लगे, तब माता वैष्णवी ने महाकाली का रूप लेकर भैरवनाथ का संहार कर दिया। भैरवनाथ का सिर कटकर भवन से 8 किमी दूर त्रिकूट पर्वत की भैरव घाटी में गिरा।
उस स्थान को भैरोनाथ के मंदिर के नाम से जाना जाता है। जिस स्थान पर माँ वैष्णो देवी ने हठी भैरवनाथ का वध किया, वह स्थान पवित्र गुफा’ अथवा ‘भवन के नाम से प्रसिद्ध है। इसी स्थान पर माँ काली (दाएँ), माँ सरस्वती (मध्य) और माँ लक्ष्मी (बाएँ) पिंडी के रूप में गुफा में विराजित हैं।
इन तीनों के सम्मिलत रूप को ही माँ वैष्णो देवी का रूप कहा जाता है। इन तीन भव्य पिण्डियों के साथ कुछ श्रद्धालु भक्तों एव जम्मू कश्मीर के भूतपूर्व नरेशों द्वारा स्थापित मूर्तियाँ एवं यन्त्र इत्यादी है। कहा जाता है कि अपने वध के बाद भैरवनाथ को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और उसने माँ से क्षमादान की भीख माँगी।
माता वैष्णो देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की थी, उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान की, बल्कि उसे वरदान देते हुए कहा कि मेरे दर्शन तब तक पूरे नहीं माने जाएँगे, जब तक कोई भक्त मेरे बाद तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा।
उसी मान्यता के अनुसार आज भी भक्त माता वैष्णो देवी के दर्शन करने के बाद 8 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़कर भैरवनाथ के दर्शन करने को जाते हैं। इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं। इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो गए।
वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था, अंततः वे गुफ़ा के द्वार पर पहुंचे, उन्होंने कई विधियों से ‘पिंडों’ की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली, देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं, वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया। तब से, श्रीधर और उनके वंशज देवी मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं।
माता वैष्णो देवी की अन्य कथा, हिन्दू पौराणिक मान्यताओं में जगत में धर्म की हानि होने और अधर्म की शक्तियों के बढऩे पर आदिशक्ति के सत, रज और तम तीन रूप महासरस्वती, महालक्ष्मी और महादुर्गा ने अपनी सामूहिक बल से धर्म की रक्षा के लिए एक कन्या प्रकट की। यह कन्या त्रेतायुग में भारत के दक्षिणी समुद्री तट रामेश्वर में पण्डित रत्नाकर की पुत्री के रूप में अवतरित हुई।
कई सालों से संतानहीन रत्नाकर ने बच्ची को त्रिकुता नाम दिया, परन्तु भगवान विष्णु के अंश रूप में प्रकट होने के कारण वैष्णवी नाम से विख्यात हुई। लगभग 9 वर्ष की होने पर उस कन्या को जब यह मालूम हुआ है भगवान विष्णु ने भी इस भू-लोक में भगवान श्रीराम के रूप में अवतार लिया है। तब वह भगवान श्रीराम को पति मानकर उनको पाने के लिए कठोर तप करने लगी।
जब श्रीराम सीता हरण के बाद सीता की खोज करते हुए रामेश्वर पहुंचे। तब समुद्र तट पर ध्यानमग्र कन्या को देखा। उस कन्या ने भगवान श्रीराम से उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करने को कहा। भगवान श्रीराम ने उस कन्या से कहा कि उन्होंने इस जन्म में सीता से विवाह कर एक पत्नीव्रत का प्रण लिया है।
किंतु कलियुग में मैं कल्कि अवतार लूंगा और तुम्हें अपनी पत्नी रूप में स्वीकार करुंगा। उस समय तक तुम हिमालय स्थित त्रिकूट पर्वत की श्रेणी में जाकर तप करो और भक्तों के कष्ट और दु:खों का नाश कर जगत कल्याण करती रहो।
संजय गुप्ता
जब श्री राम ने रावण के विरुद्ध विजय प्राप्त किया तब मां ने नवरात्रमनाने का निर्णय लिया। इसलिए उक्त संदर्भ में लोग, नवरात्र के 9 दिनों की अवधि में रामायण का पाठ करते हैं।
श्री राम ने वचन दिया था कि समस्त संसार द्वारा मां वैष्णो देवी की स्तुति गाई जाएगी, त्रिकुटा, वैष्णो देवी के रूप में प्रसिद्ध होंगी और सदा के लिए अमर हो जाएंगी।
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[03/04, 08:53] Morni कृष्ण मेहता: वास्तुशास्त्र के अनुसार 8 गलतियां जिनसे होता है धन का नुकसान, रहते हैं लोग परेशान
कभी अचानक से ही धन की हानि होने लगती है। तो कभी सबकुछ अच्छा-भला चल रहा होता है कि किसी दिन कोई अचानक ही बीमार पड़ जाए तो फिर पता हीं नहीं चलता कि धन कहां खर्च हो रहा है लेकिन संग्रह के नाम पर केवल खर्च ही खर्च नजर आता है। आपने सोचा है कि ये सारी परेशानियां क्यों अचानक से आ जाती हैं? दरअसल कुछ भी अचानक से नहीं होता। वास्तुशास्त्र के मुताबिक अंजाने में की गई हमारी छोटी-छोटी गल्तियां ही हमारे जीवन में परेशानियां लेकर आती हैं। ऐसे में जरूरी है कि अंजाने में होने वाली इन गल्तियों को नजरअंदाज न करें बल्कि इनमें सुधार कर लें ताकि न हो धन का नुकसान…
1यहां कभी न रखें झाड़ू
घर में जिस जगह पर भी आप धन या कीमती वस्तुओं को रखते हैं। उस जगह के आसपास झाड़ू न रखें। इससे धन की हानि होती है।
2किचन में भूले से भी न रखें दवाई
घर के किचन में कभी भी भूले से दवाई न रखें। वास्तु कहता है कि इससे घर के सदस्यों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।
3 बंद रखें इनके दरवाजें
वास्तु शास्त्र कहता है कि टॉयलेट और बाथरूम के दरवाजें कभी भी खुले न छोड़े। साथ ही इन्हें बंद करते वक्त भी ध्यान रखें कि अधिक आवाज न आए। अन्यथा पारिवारिक व व्यावसायिक मामलों में नुकसान उठाना पड़ सकता है।
4लकीरें बढ़ाती हैं समस्याएं
अक्सर देखा गया है कि घर की दीवारों और फर्श पर बच्चे पेंसिल, चॉक या फिर पेन से लकीरें बना देते हैं। वास्तु कहता है कि इससे खर्च और उधार बढ़ता है। 5दक्षिण दिशा में न रखें ये मूर्ती
घर की दक्षिण दिशा में कभी भी पानी से संबंधित कोई भी मूर्ति या फिर शोपीस नहीं रखनी चाहिए। इससे आय की अपेक्षा व्यय बढ़ जाते हैं।
6 बेडरूम में न रखें भगवान की तस्वीरें
वास्तु कहता है कि कभी भी बेडरूम में भगवान की फोटो नहीं लगानी चाहिए। इसके अलावा इस बात का खास ख्याल रखें कि बेडरूम में कभी भी हनुमान जी की कोई फोटो या फिर मूर्ति न रखें।
7कांटेदार या विषैले पौधे न लगाएं
घर में कांटेदार या विषैले पौधे नहीं लगाने चाहिए। वास्तु शास्त्र कहता है कि इस तरह के पौधों से घर में अशांति का माहौल बनता है। इससे मानसिक तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। 8 उत्तर-पूर्व दिशा में साफ-सफाई
वास्तु शास्त्र के मुताबिक उत्तर-पूर्व दिशा में साफ-सफाई का ख्याल रखें। इस दिशा में गंदगी होने से मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु नाराज हो जाते हैं। इससे लक्ष्मी की हानि होती है। धन संचय में भी परेशानियां आती है।
[03/04, 08:53] Morni कृष्ण मेहता: हर कार्य हमारे अनुकूल नहीं होता
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महाराज दशरथ जी जिनके प्रेम वश स्वयं परमात्मा सअंश पुत्र बनकर भूलोक पर आए किन्तु उनको श्रवण कुमार के माता पिता के श्राप से बचा नहीं पाए।
उनकी इच्छा थी..नरक परऊ बरू सुरपुर जाऊँ...सब दुख दुसह सहावहु मोही।लोचन ओट राम जनि होहीं।।
हे प्रभु! मुझे सब दुख दे दीजिए किन्तु श्रीराम वियोग नहीं!
किन्तु वियोग हुआ।
शंकर जी से श्रीराम जी को शील स्वभाव त्याग कर वन न जाने की प्रार्थना करते हैं किन्तु श्रीराम जी के पिता की विनती अमान्य हुआ।
तुम्ह प्रेरक सबके हृदयँ सो मति रामहिं देहु।
बचनु मोर तजि रहहिं घर परिहरि सीलु सनेहु।।
वे अवढर दानी शंकर जी दशरथ प्रार्थना अमान्य कर देते हैं।
"उदय करहुँ जनि " कहकर सूर्य से सूर्योदय न होने की प्रार्थना किए परंतु भावी प्रबल रही।
अयोध्या वासी को श्रीराम राज्याभिषेक सुनकर रात भर नींद नहीं पड़ी और ब्रह्म मुहूर्त में ही श्रीराम राज्याभिषेक देखने हेतु राज दरबार पहुँच गए किन्तु श्रीराम राज्याभिषेक नहीं श्रीराम वनवास देखने को मिला।
श्रीराम राज्याभिषेक सुनकर बंदी,भाट आदि शंख,बाजे आदि बजा कर दशरथ गुणगान कर रहे थे किन्तु उल्टा हुआ...सुनत नृपहि जनु लागत सायक।
जो सुबह राम राज्याभिषेक देखने हेतु रात भर सोए नहीं थे कि .कनक सिंहासन सिय समेता...सुबह सीताराम जी को सोने के सिंहासन पर विराजमान देखूंगा किन्तु उन्हें श्रीराम जी को सीता लखन समेत तपस्वी वेष में देखना पड़ा।..देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं ।
किन्तु इस दुख की घड़ी में भी धीरे वीर प्रसन्न हैं...
ना मम्ले वनवास दुखतः।
वे राज्याभिषेक न होकर वनवास मिलने पर भी देनेवाली से ही कहते हैं..
मुनिगन मिलन बिसेषि वन सबहिं भाँति हित मोर...।
प्रजा को कहना पड़ता है...
का सुनाई बिधि काह सुनावा?।का देखाइ चह का देखावा??।।
यानी हर चीज हमारे अनुकूल होना संभव नहीं है।
(छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई)
सीताराम जय सीताराम
सीताराम जय सीताराम...
प्रस्तुति - कृष्ण मेहता - ( मोरनी)
तुलसी का पौधा घर की नाकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक बनाता है। कुछ लोग तुलसी का इस्तेमाल हैल्थ प्रॉब्लम को दूर करने के लिए भी करते है लेकिन आज हम आपको तुलसी के बीजों से होने वाले फायदों के बारे में बताने जा रहें है। आयुर्वेदिक, प्रोटीन, फाइबर, विटामिन A, K, कार्बोहायड्रेट, ओमेगा-3 फैटी एसिड और खनिज तत्वों से भरपूर यह बीज ठंडी तासीर के होते है। बेसिल का सेवन यौन रोग, टेंशन, डिप्रेशन, दिमागी थकान और माईग्रेन जैसी बीमारियों को दूर करता है। तो आइए जानते है तुलसी के बीजों का सेवन करने से आपको क्या-क्या फायदे हो सकते है।
तुलसी बीज के फायदे 👇👇
सर्दी-खांसी:-
लौंग, तुलसी के बीज (Tulsi Ke Bij) को 1 गिलास पानी में उबाल लें। जब यह आधा रह जाए तो इसमें सेंधा नमक डालकर सेवन करें। दिन में दो बार इसका सेवन सर्दी, खांसी और जुकाम से राहत दिलाता है।
यौन रोग:-
तुलसी के बीज पुरूषों में होने वाली शारीरिक कमजोरी को दूर करने में मदद करते है। इसका नियमित रूप से सेवन यौन रोग और नपुंसकता की समस्या तक दूर हो जाती है।
सिरदर्द:-
तेज सिरदर्द होने पर तुलसी के बीज और कपूर को पीसकर मालिश करें। इससे आपका सिरदर्द तुरंत गायब हो जाएगा। इसके अलावा तुलसी के बीजों का सेवन टेंशन, डिप्रेशन, और माईग्रेन को दूर करता है।
गर्भधारण करना:-
मासिक आने पर 5 ग्राम तुलसी बीज को सुबह शाम पानी के साथ लें। जब तक मासिक चले न जाएं बेसिल का सेवन करें। पीरियड्स जाने के बाद 3 दिन तक 10 ग्राम माजूफल चूर्ण को पानी के साथ लें। इससे आपकी यह समस्या दूर हो जाएगी।
पाचन तंत्र:-
फाइबर और पाचक एंजाइमों से भरपूर तुलसी के बीजों का सेवन पाचन तंत्र को मजबूत करता है। सुबह इसका सेवन भूख को कंट्रोल करता है, जिससे आपका वजन कंट्रोल में रहता है।
यौनि में इंफेक्शन:-
तुलसी के बीज और शहद को पानी में मिलाकर दिन में 2 बार पीएं। इससे ब्लैडर, किडनी और योनि में इंफेक्शन की समस्या दूर हो जाएगी।
सोराइसिस:-
एक्जिमा सोराइसिस को दूर करने के लिए रोजाना तुलसी के बीज को पीसकर नारियल तेल में मिक्स करके लगाएं। कुछ समय में ही आपकी यह परेशानी दूर हो जाएगी।
पेट की प्रॉब्लम:-
रात को सोने से पहले 1 गिलास दूध में इन बीजों को मिलाकर पीएं। इससे कब्ज, एसिडिटी, पेट में दर्द, गैस और एसिड जैसी समस्याएं दूर होंगी।
[02/04, 08:28] Morni कृष्ण मेहता: नवरात्रि के पावन अवसर पर पढ़ें,भारत के ऐसे 17 शक्तिपीठ जिनके दर्शन हर माता के भक्त को करने चाहिए!
1. अर्बुदा देवी : - अर्बुदा देवी माउंट आबू (राजस्थान) का एक शक्तिपीठ है जो बेहद पवित्र माना जाता है। अर्बुदा पर्वत पर सती के औंठ/”अधर” गिरे थे। जिसकी वजह से इसे अधर या अरबुदा देवी का घर कहा जाने लगा। अर्बुदा देवी को बारिश देने के लिए माना जाता है। राजस्थान के रेगिस्तानी क्षेत्र में बारिश को जीवन और शान्ति हेतु पूजा जाता है। मंदिर आबू की पहाड़ी पर स्थित है जहां पहुंचने के लिए 365 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती हैं। यहां की गुफा के भीतर एक चिराग लगातार जलता रहता है और भक्त इस प्रकाश को शक्ति का दर्शन कहते हैं। यहां चैत पूर्णिमा और विजया दशमी पर मेले का आयोजन होता है।
2. कौशिक : - अल्मोड़ा से 8 किलोमीटर की दूरी पर काशाय पर्वतों पर स्थित है यह शक्तिपीठ। देश के अलग-अलग इलाकों से दर्शनार्थी यहां पूजा-अर्चना हेतु यहां आते हैं। काठगोदाम रेलवे स्टेशन से आपको यहां पहुंचने के कई साधन मिल जाएंगे।
3. हरसिद्धि माता : - हरसिद्धि माता की चौकी राजा विक्रमादित्य की मशहूर राजधानी उज्जैन में स्थित है। यह पवित्र स्थान महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के नज़दीक स्थित है। बड़ी दूर-दूर से श्रद्धालु यहां दर्शन हेतु आते हैं. यहां के आस-पास के इलाकों में हरसिद्धि माता के चमत्कार के कई किस्से कहे-सुने जाते है।
4. सत् यात्रा : - ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग से 3 मील की दूरी पर और नर्मदा नदी के तट पर स्थित है यह शक्तिपीठ। इसे सप्तमातृका मंदिर के तौर पर भी जाना जाता है, जिसका अर्थ ब्राम्ही, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वराही, नरसिंहि और ऐन्द्री होता है. इस तीर्थ स्थल पर इन सभी देवियों के मंदिर हैं. और यहां के प्राकृतिक नज़ारे तो बस आपका मन मोह लेंगे।
5. काली : - यह शक्तिपीठ कोलकाता में स्थित है. भागीरथी नदी के तटों पर स्थापित यह मंदिर हावड़ा रेलवे स्टेशन से 5 कि.मी की दूरी पर है. मंदिर के भीतर त्रिनयना, रक्तांबरा, मुंडमालिनि और मुक्ताकेशी की चौकियां स्थापित हैं. पूरे बंगाल में इसे बड़ी श्रद्धा की नज़र से देखा जाता है और इसको लेकर कई चमत्कारिक कहानियां कही सुनी जाती हें. कहा जाता है कि रामकृष्ण परमहंस पर साक्षात मां काली की कृपा थी।
6. गुहेश्वरी : - गुहेश्वरी नामक यह अति मशहूर पीठ नेपाल की राजधानी काठमांडू में स्थित है. यह शक्तिपीठ बागमती नदी के तट पर पशुपतिनाथ मंदिर के नज़दीक है. मां गुहेश्वरी का नाम पूरे नेपाल में बड़ी श्रद्धा से लिया जाता है. नवरात्र के दौरान नेपाल का राजघराना अपने पूरे परिवार के साथ बागमती नदी में स्नान के पश्चात् यहां दर्शन-पूजन हेतु यहां आता है।
7. कालिका ;- भगवती कालिका का यह शक्तिपीठ कालका जंक्शन के नज़दीक दिल्ली-शिमला रूट पर स्थित है. कहावत है कि शुम्भ-निशुम्भ से के दुराचारों से परेशान होकर सभी देवता भगवान विष्णु के पास सहायता के लिए तप करने चले गए थे।
जब मां पार्वती ने पूछा कि वे किसकी स्तुति कर रहे हैं, तभी वहां मां पार्वती का एक और रूप प्रकट हुआ और उनके अश्वेत वर्ण की वजह से उसे कालका नाम से जाना गया।
8. दुर्गा शक्तिपीठ : - मां महालक्ष्मी, महाकाली और महासरस्वती वाराणसी में त्रिकोणीय शक्ति का केंद्र हैं. इन शक्तिपीठों की स्थापना के साथ ही अलग-अलग कुंडों की भी स्थापना की गई थी, जिसमें से लक्ष्मी कुंड और दुर्गा कुंड आज भी वाराणसी में विद्यमान हैं.
इन शक्तिपीठों के अलावा वाराणसी में नवदुर्गा अर्थात् शैलपुत्री, ब्रम्हचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंद माता, कात्यायनी, काल रात्रि, महागौरी और सिद्धि रात्रि भी विराजमान हैं।
इन सारे चौकियों की व्याख्या शब्दों में करना बड़ा मुश्किल है, और पूरी दुनिया से श्रद्धालु यहां दर्शन-पूजन हेतु यहां आते हैं।
9. विद्धेश्वरी पीठ : - यह पुरातन मंदिर हिमाचल प्रदेश राज्य के कांगड़ा में स्थित है. कांगड़ा रेलवे स्टेशन पठानकोट और योगिन्दरनगर के बीच मेन रूट पर पड़ता है।
इस मंदिर को प्रमुख शक्तिपीठों में शुमार किया जाता है, और यदि पुराणों को माना जाए तो यहां माता सती का सिर गिरा था. इस मंदिर में मां सती की सिरनुमा प्रतिमा स्थापित है एवं इसके ऊपर सोने का छाता लगा हुआ है. इसके दर्शन हेतु पूरी दुनिया से श्रद्धालु यहां आते हैं. यहां मंदिर परिसर में एक कुंड भी स्थित है।
10. महालक्ष्मी पीठ : - मां महालक्ष्मी की यह चौकी कोल्हापुर में स्थित है, जहां किसी जमाने में शिवाजी के वंशज राज किया करते थे. अगर देवी भागवत और मत्स्य पुराण की मानें तो यह पवित्रतम पूजन स्थल है.पूरे महाराष्ट्र में इससे पवित्र स्थल कोई नहीं है, जहां पूरे देश से लाखो श्रद्धालु पूजन हेतु आते हैं।
11. योगमाया : - योगमाया मंदिर कश्मीर की राजधानी श्रीनगर से 15 मील की दूरी पर स्थापित है, जिसे क्षीर भवानी योगमाया मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
यह मंदिर एक द्वीप पर है जो चारो तरफ पानी से घिरा है. और यहां के पानी का बदलता रंग आपकी इच्छा और कामना के पूरे होने की कहानी कहता है. जेठ मास में यहां एक बहुत बड़ा मेला लगता है।
12. अम्बा देवी : - अम्बा देवी का यह मंदिर जूनागढ़ के गिरनार पहाड़ियों पर स्थित है. यह मंदिर काफ़ी ऊंचाई पर स्थित है. यहां तक पहुंचने के लिए 6000 सीढ़ियां और तीन चोटियां चढ़नी पड़ती हैं.
यहां तीनों चोटियों पर अलग-अलग मां अम्बा देवी, गोरक्षानाथ और दत्तात्रेय के मंदिर स्थापित हैं. घने जंगलों के बीच मां अम्बा की यह विशाल प्रतिमा और मंदिर अद्भुत नज़ारे प्रस्तुत करता है. यहां की एक गुफा में मां काली का मंदिर स्थापित किया गया है, जहां भक्तों का तांता लगा रहता है।
13. कामाख्या पीठ : - यह अतिप्रसिद्ध और सिद्ध शक्तिपीठ आसाम में गुवाहाटी से 2 मील की दूरी पर स्थित है. कालिका-पुराण के अनुसार यहां मां सती का यौनांग गिरा था. इस पवित्र स्थल को “योनि-पीठ” के तौर पर जाना जाता है जो गुफा के भीतर स्थापित है. यहां एक कुंड भी स्थित है, जिसमें फूलों की भरमार है. इसे महाक्षेत्र के नाम से जाना जाता है।
माना जाता है कि मां भगवती को यहां मासिक धर्म की वजह से रक्तस्त्राव होता है और यह मंदिर इस दौरान बंद रहता है. यहां से 16 कि.मी की दूरी पर प्रसिद्ध “कामरूप” मंदिर स्थित है. इस इलाके में रहने वाली औरतों के मोहपाश में बांधने के किस्से दूर-दूर तक कहे सुनाए जाते हैं।
14. भवानी पीठ : - यह पवित्र पूजन स्थल चित्तागौंग से 24 मील की दूरी पर स्थित है जिसे सीताकुंड के नाम से भी जाना जाता है. यह प्रसिद्ध भवानी मंदिर नज़दीक चंद्रशेखर पर्वतों के ऊपरी भाग में स्थित है. यहां “वाराव” नाम का एक कुंड स्थित है. और यहीं नज़दीक में एक कभी न बुझने वाली ज्योति प्रज्वलित रहती है।
15. कालिका पीठ : - मां काली के मंदिर के तौर पर फेमस यह बेहद प्राचीन सिद्धपीठ ऐतिहासिक चित्तौड़गढ़ में स्थित है. यहां मंदिर के स्तंभों में आकृतियां उभारी गयी हैं और यहां एक कभी न बुझने वाला दीप भी प्रज्वलित रहता है।
इस किला परिसर में तुलजा भवानी और माता अन्नपूर्णा के भी मंदिर स्थापित हैं।
16. चिंतपूर्णी : - होशियारपुर से 30 कि.मी की दूरी पर मां चिंतपूर्णी को समर्पित यह पीठ पर्वतीय इलाकों में अद्भुत छटा बिखेरता है. कांगड़ा घाटियों में स्थित मां चिंतपूर्णी, मां ज्वालामुखी और मां विद्धेश्वरी के रूप मं स्थापित यह तीनों केंद्र हर वर्ष लाखों श्रद्धालुओं को अपनी ओर खींचते हैं. अब बाद बाकी आप जाइए और मां के दर्शन कर आइए।
17. मां विन्ध्यवासिनी : - उत्तरप्रदेश के चुनार रेलवे स्टेशन से 2 मील की दूरी पर स्थित यह मंदिर विन्ध्य पर्वत श्रृंखला पर स्थित है. यहां मंदिर का प्रवेश द्वार बड़ा ही संकरा है जैसे कोई खिड़की हो. यहां पूरे उत्तर भारत के लोगों के साथ-साथ कई जानी मानी हस्तियां दर्शन हेतु यहां आती हैं. यहां का दृश्य बड़ा ही मनोरम है. यहां आने वाले श्रद्धालु बताते हैं कि उनकी सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं।
तो भाई साब आप सोच क्या रहे हैं? निकल पड़िए मां के दरबार की ओर,दर्शन भी और रोमांच भी,आख़िर भारत ऐसे ही मंदिरों और मठों का देश थोड़े न है।
शक्तिपीठों में से एक मां पाटेश्वरी कथा
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भारत के धार्मिक स्थल विशेषकर मंदिर एक से बढ़कर एक रहस्य अपने में समेटे हुए हैं। ऐसा ही एक मंदिर है उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जनपद के पाटन गांव में सिरिया नदी के तट पर स्थित मां पाटेश्वरी का मंदिर। इस मंदिर के कारण ही इस पूरे मंडल का नाम देवीपाटन पड़ा हुआ है।
मंदिर से कई पौराणिक कहानियां तो जुड़ी ही हैं साथ ही यहां की मान्यता को हर साल यहां मां के दर्शने के लिये आने वाले लाखों श्रद्धालुओं की भीड़ से समझा जा सकता है। आइये आपको बताते हैं मां पाटेश्वर के इस पौराणिक इतिहास की गाथा कहते मंदिर की कहानी।
मां पाटेश्वरी की यह मंदिर अपने अंदर कई पौराणिक कहानियों को समेटे हुए है। एक कथा भगवान श्री राम और माता सीता से जुड़ी है।
कहते हैं कि त्रेतायुग में जब भगवान राम, रावण का संहार कर देवी सीता को अयोध्या लाये तो देवी सीता को अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा लेकिन कुछ समय पश्चात किसी धोबी ने अपनी पत्नी को अपनाने से इंकार करते हुए भगवान राम पर कटाक्ष किया तो भगवान राम ने गर्भवती सीता को घर से निकाल दिया।
वन में सीता महर्षि वाल्मिकी के आश्रम में रहने लगी जहां उन्होंने लव-कुश को जन्म दिया इसके बाद लव-कुश ने अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को रोककर भगवान राम को युद्ध की चुनौति दी जिसके बाद उनका परिचय हुआ।
पिता पुत्र के मिलन के बाद सीता को वापस अयोध्या ले जाने को भगवान राम इसी शर्त पर तैयार थे कि माता सीता पुन: अग्नि परीक्षा से गुजरें।
यह बात सीता सहन न कर सकी और उन्होंनें धरती माता को पुकारा और अपनी गोद में समा लेने की प्रार्थना की। फिर क्या था देखते ही देखते धरती का सीना फटा और धरती माता सीता को अपनी गोद में लेकर वापस पाताल लोक को गमन कर गईं।
कहा जाता है कि पाताल से धरती माता निकलने के कारण इसका नाम आरंभ में पातालेश्वरी था जो बाद में पाटेश्वरी हो गया। मान्यता है कि आज भी वहां पाताल लोक तक जाने वाली एक सुरंग मौजूद है जो चांदी के चबूतरे के रूप में दिखाई देती है।
वहीं मां पाटेश्वरी के इस मंदिर से एक कथा देवी सती की शक्तिपीठों से भी जुड़ी है। जब देवी सती के पिता दक्ष प्रजापति ने यज्ञ में माता सती के पति भगवान भोलेनाथ शिवशंकर को आमंत्रित नहीं किया तो देवी ने यज्ञ में जाने की जिद की।
देवी यज्ञ में अपने पिता से निमंत्रण न देने का कारण जानने लगी तो उनके पिता दक्ष भगवान शंकर का अपमान करने लगे जिसे देवी सहन कर सकी और हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी। भगवान शंकर को क्रोध आ गया और वो सती शव को लेकर तांडव करने लगे। दुनिया नष्ट होने की कगार पर पंहुच गई। देवताओं के सिंहासन डोलने लगे।
तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन से देवी सती के शव को खंडित किया जहां जहां देवी के अंग व वस्त्र पड़े वहां शक्तिपीठ स्थापित हुईं। मां पाटेश्वरी के इस मंदिर के बारे में माना जाता है कि मां का वाम स्कंद यानि बायां कंधा वस्त्र सहित यहां गिरा था। स्कंदपुराण में इसका वर्णन भी मिलता है।
भगवान परशुराम की तपस्थली तो कर्ण ने सीखी शस्त्र विद्या मंदिर से एक और पौराणिक कथा जुड़ी है माना जाता है कि यहीं पर भगवान परशुराम ने अपनी तपस्या की थी। उसके बाद महाभारत काल में इसी स्थान पर स्थित सरोवर जो आजकल सूर्यकुंड है, में स्नान कर दानवीर कर्ण ने भगवान परशुराम से शस्त्र विद्या ग्रहण की थी।
माना यह भी जाता है कि सूर्यकुंड के जल में स्नान कर इसी जल से देवी की पूजा करने की परंपरा की शुरुआत भी करण से ही चली आ रही है उन्होंने ही इसकी शुरुआत की थी। साथ ही यह भी माना जाता है कि मंदिर का जीर्णोद्धार भी राजा करण ने कराया था।
कहा जाता है कि कालांतार में विक्रमादित्य ने फिर से मंदिर का जीर्णोद्धार किया लेकिन बाद में मुगल शासक औरंगजेब ने मीर समर को मंदिर को नष्ट भ्रष्ट करने भेजा जो देवी प्रकोप का शिकार हुआ मीर समर का समाधिस्थल मंदिर के पूर्व में आज भी है। लेकिन कहा जाता है औरगंजेब ने स्वयं मंदिर को धवस्त किया जिसे बाद में फिर से बनाया गया।
गुरु गोरखनाथ ने की थी पीठ की स्थापना मां पाटेश्वरी के इस मंदिर को सिद्ध योगपीठ एवं शक्तिपीठ दोनों माना जाता है। कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ व पीर रत्ननाथ ने यहीं पर सिद्धियां प्राप्त की जिसके बाद उन्होंनें नाथ संप्रदाय को शुरु किया।
मान्यता है कि भगवान शिव की आज्ञा से महायोगी गुरु गोरखनाथ ने सिद्ध शक्तिपीठ देवीपाटन में पाटेश्वरी पीठ की स्थापना कर मां पाटेश्वरी की आराधना एवं योगसाधना की थी। इसका उल्लेख यहां एक शिलालेख से भी मिलता है।
मंदिर में देवी की प्रतिमा मां पाटेश्वरी के इस मंदिर के भीतरी कक्ष में कोई प्रतिमा नहीं बल्कि चांदी से जड़ा हुआ एक चबूतरा है जिस पर कपड़ा बिछा रहता है इसी चबूतरे के ऊपर एक ताम्रछत्र है जिस पर पूरी दुर्गा सप्तशती के श्लोक छपे हुए हैं।
यहां घी की अखंड दीपज्योति जलती रहती है माना जाता है कि यह जोत शक्तिपीठ के स्थापना काल से ही लगातार जल रही है। भीतरी कक्ष में देवी की प्रतिमा नहीं है लेकिन मंदिर में दुर्गा माता के नौ स्वरुप मां शैलपुत्री, मां ब्रह्मचारिणी, मां चंद्रघंटा, मां कूष्मांडा, स्कंदमाता, मां कात्यायनी, मां कालरात्रि, मां महागौरी एवं मां सिद्धीदात्री की प्रतिमायें स्थापित हैं।
यहां होता है कुष्ठरोगों का निवारण मां पाटेश्वरी मंदिर के उत्तर में सूर्यकुंड है। वही सूर्यकुंड जिसके जल से दानवीर कर्ण स्नान कर मां की आराधना किया करते थे। मान्यता है कि रविवार के दिन षोडशोपचार से पूजन किया जाये तो कुष्ठरोग का निवारण हो जाता है।
नवरात्र के दिनों में वैसे तो माता के हर मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ लगने लगती है लेकिन मां पाटेश्वरी के मंदिर में भारत से लेकर नेपाल तक के श्रद्धालु आते हैं। क्योंकि गुरु गोरखनाथ के शिष्य पीर रत्ननाथ की तपस्या से खुश होकर मां ने उनकी पूजा होने का वरदान दिया था। नेपाल में पीर रत्ननाथ को मानने वाले बहुत लोग हैं।
वसंती नवरात्र की पंचमी को यहां नेपाल से उनकी शोभायात्रा पंहुचती है और पांच दिन तक नेपाल से आये पुजारी मां की पूजा के साथ-साथ रत्ननाथ की पूजा भी करते हैं। वहीं नवरात्र के दौरान यहां मेला भी लगता है जिसमें लाखों की संख्या में पूरे भारतवर्ष से श्रद्धालु आते हैं। मां पाटेश्वरी के मंदिर में मां के नौ रुपों की प्रतिमाएं भी यहां स्थापित हैं इस कारण भी नवरात्र के दिनों में यहां भीड़ रहती है।
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*भगवान कृष्ण के पिता वसुदेव की कथा!!
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वसुदेव मथुरा के राजा उग्रसेन के मंत्री,शूरसेन तथा मारिषा के पुत्र और श्रीकृष्ण के पिता थे। पाण्डवों की माता कुन्ती इनकी बहन थीं। इनका विवाह देवक अथवा आहुक की सात कन्याओं से हुआ था, जिनमें देवकी सर्वप्रमुख थीं। वसुदेव के नाम पर ही श्रीकृष्ण को 'वासुदेव' कहते हैं।
पूर्वकल्प में प्रजापति सुतपा तथा उनकी पत्नी पृश्नि ने बहुत दिनों तक तपस्या करके भगवान को संतुष्ट किया। जब भगवान ने उन्हें दर्शन देकर वरदान मांगने को कहा, तब उन लोगों ने भगवान को ही अपने पुत्ररूप में पाने की इच्छा प्रकट की। प्रभु ने तीन बार उनसे ‘दिया, दिया, दिया’ कहा। उस कल्प में भगवान का अवतार माता पृश्नि से हुआ और वे ‘पृश्निगर्भ’ कहलाये। दूसरे कल्प में प्रजापति सुतपा हुए कश्यप जी और पृश्नि हुई देवमाता अदिति।
भगवान ने ‘वामन’ रूप से उनके यहाँ अवतार लिया। क्योंकि तीन बार भगवान ने ‘दिया, दिया, दिया’ कहा था, अतः तीसरी बार प्रजापति सुतपा यदुवंश में शूरसेन के पुत्र वसुदेव हुए। इनके जन्म के समय देवताओं की दुन्दुभियां स्वयं बज उठी थीं, इसलिये इनको लोग 'आनकदुन्दुभि' कहते थे। माता पृश्नि मथुरा नरेश उग्रसेन के भाई देवक की सबसे छोटी कन्या देवकी हुईं।
वसुदेव जी के कुल अट्ठारह विवाह हुए, जबकि कहीं-कहीं इनकी 12 पत्नियाँ कही जाती हैं। वसुदेव की पत्नियों के ज्ञात नाम इस प्रकार हैं- देवकी, रोहिणी, पौरवी, मदिरा, कौशल्या, रोचा, इला, धृतदेवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता और सहदेवा। वसुदेव ने अपनी इन सभी पत्नियों से संतानें प्राप्त की थीं। सभी संतानों का जन्म मथुरा में ही हुआ था। इनमें से अनेकों की आयु में कुछ दिनों का ही अंतर था। वसुदेव का भवन उनकी पत्नियों की संतानों से भर गया। उनके भाइयों की पत्नियों के भी कई पुत्र हुए।
दीर्घ काल तक पौत्रों का मुख देखने को तरसती रही थीं देवी मारिषा और फिर उनको पितामही का गौरव देने वाले बहुत अधिक एक साथ आ गए उनके पुत्रों के गृहों में। उनकी अभिलाषा भली प्रकार पूर्ण हो गई। देवक की छः कन्याएं तो वसुदेव जी को ब्याही जा रही थीं; जब देवकी का भी विवाह उनसे हो गया, तब उग्रसेन का ज्येष्ठ पुत्र कंस अपनी छोटी चचेरी बहिन के स्नेहवश स्वयं वसुदेव-देवकी के रथ का सारथि बनकर उन्हें घर पहुँचाने लगा। मार्ग में आकाशवाणी ने उससे कहा- "मूर्ख ! तू जिसे पहुँचाने जा रहा है, उसकी आठवीं सन्तान के हाथ से तेरी मृत्यु होगी।
" इतना सुनते ही कंस ने तलवार खींच ली और वह देवकी को मारने के लिये उद्यत हो गया। वसुदेव जी ने उसे बहुत समझाया। "शरीर तो नश्वर है। मृत्यु एक-न-एक दिन होगी ही। मनुष्य को कोई ऐसा काम इस दो क्षण के जीवन के लिये नहीं करना चाहिये कि मरने पर लोग उसकी निंदा करें। जो प्राणियों को मोहवश कष्ट देता है, मरने पर यम के दूत घोर नरक में डालकर युगों तक उसे भयंकर पीड़ा देते हैं।"
कंस के ऊपर ऐसी बातों का कोई प्रभाव पड़ता न देखकर अन्त में वसुदेव जी ने कहा- "तुम्हें इस देवकी से तो कोई भय है नहीं। तुमको मात्र इसकी संतानों से भय है। मैं वचन देता हूँ कि इसकी सन्तानों को जन्म लेते ही मैं तुम्हारे पास पहुँचा दिया करूंगा।" कंस जानता था कि वसुदेव इतने धर्मात्मा हैं, इतने सत्यनिष्ठ हैं कि वे अपनी बात टाल नहीं सकते। उसने देवकी को मारने का प्रयत्न छोड़ दिया और देवकी तथा वसुदेव को आजीवन कारावास में डाल दिया।
समय आने पर देवकी के पुत्र हुआ। वसुदेव जैसे संत, सत्पुरुष के लिये कोई भी त्याग दुष्कर नहीं। अपने प्राणप्रिय पुत्र को वे जन्मते ही कंस के पास उठा ले गये। पहले तो कंस ने उनकी सत्यनिष्ठा देखकर बालक को लौटा दिया; पर पीछे से नारद ने जब उसे उल्टा-सीधा समझा दिया, तब उस बालक को उसने मार डाला। देवकी के पुत्र उत्पन्न होते ही कंस उसे मार डालता था। छः पुत्र उसने इसी प्रकार मार दिये। सातवें गर्भ में बलराम थे। योगमाया ने उन्हें देवकी के गर्भ से संकर्षित करके रोहिणी के गर्भ में स्थापित कर दिया।
इसी से बलराम का एक नाम संकर्षण भी हुआ। भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आधी रात में स्वयं श्रीकृष्णचन्द्र ही प्रकट हुए। भगवान के आदेश से वसुदेव रात्रि में ही उन्हें गोकुल नन्द के यहाँ पहुँचा आये और वहाँ से यशोदा की नवजात बालिका ले आये। कंस जब उस बालिका को मारने चला तो वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी। अष्टभुजा देवी के रूप में प्रकट होकर उसने कंस से कहा- "तेरा वध करने वाला शत्रु कहीं प्रकट हो गया है।" कंस ने यह सुनकर वसुदेव-देवकी को कारागार से छोड़ दिया।
दुरात्मा कंस जान गया कि उसे मारने वाला नन्दगृह में ही आया है। उसके जो असुर ब्रज में गये, वे सभी श्रीकृष्ण के हाथों सद्गति पा गये। जब नारद से पता लगा की कृष्ण-बलराम तो वसुदेव जी के ही पुत्र हैं, तब तो कंस बहुत रुष्ट हुआ। उसने हथकड़ी-बेड़ी से वसुदेव-देवकी को जकड़कर पुनः बंदीगृह में डाल दिया। अन्ततः श्रीकृष्णचन्द्र मथुरा आये। कंस को उन्होंने मारकर मुक्त कर दिया। पिता-माता की बेडि़यां काटकर जब राम-श्याम उनके पदों में प्रमाण करने लगे, वसुदेव जी आश्चर्य से खडे़ रह गये।
वे जानते थे कि श्रीकृष्णचन्द्र साक्षात परमात्मा हैं। परन्तु लीलामय श्यामसुन्दर ने माता-पिता से क्षमा मांगी, मीठी बातें कीं और उनमें वात्सल्य-भाव जाग्रत कर दिया। वासुदेव की महिमा, उनके सौभाग्य का कोई अनुमान भी कैसे कर सकता है। जगन्नाथ बलराम-श्याम उन्हें पिता कहकर सदा आदर देते थे। नित्य प्रातःकाल उनके पास जाकर उनको प्रमाण करते थे। उनकी सब प्रकार की सेवा करते थे।
कुरुक्षेत्र में सूर्य-ग्रहण के समय वसुदेव ने ऋषियों से कर्म के द्वारा संसार से मुक्त होने का मार्ग पूछा। ऋषियों ने उनसे यज्ञानुष्ठान कराया। वहाँ ऋषियों ने उनसे कहा था- "श्रीकृष्ण ही साक्षात् ब्रह्म हैं।" द्वारका में वसुदेव जी ने उस श्यामसुन्दर से यही बात कही, तब उन मयूर मुकुटधारी ने पिता को तत्त्वज्ञान का उपेदश किया।
इसके पश्चात देवर्षि नारद ने वसुदेव को अध्यात्मज्ञान तथा भक्ति का तत्त्व बताया। तब प्रभास क्षेत्र में श्रीकृष्णचन्द्र ने लीला संवरण कर ली और दारुक से यह संवाद प्राप्त हुआ, तब वसुदेव भी शंखोद्धार-तीर्थ से प्रभास गये और वहाँ उन्होंने भी श्रीकृष्ण का अनुगमन किया।
'भागवत' तथा अन्य पुराणों के अनुसार वसुदेव कृष्ण के वास्तविक पिता, देवकी के पति और कंस के बहनोई थे। जिस प्रकार यशोदा की तुलना में देवकी का चरित्र भक्त कवियों को आकर्षित नहीं कर सका, उसी प्रकार नन्द की तुलना में वसुदेव का चरित्र भी गौण ही रहा। कृष्ण जन्म पर कंस के वध के भय से आक्रान्त वसुदेव की चिन्ता, सोच और कार्यशीलता से उनके पुत्र-स्नेह की सूचना मिलती है। यद्यपि उन्हें कृष्ण अलौकिक व्यक्तित्व का ज्ञान है फिर भी उनकी पितृसुलभ व्याकुलता स्वाभाविक ही है।
मथुरा में पुनर्मिलन के पूर्व ही वसुदेव को स्वप्न में उसका आभास मिल जाता है। वे अपनी दुखी पत्नी देवकी से इस शुभ अवसर की आशा में प्रसन्न रहने के लिए कहते हैं।
वसुदेव का चरित्र भागवत-भाषाकारों के अतिरिक्त सूरदास के समसामायिक एवं परवर्ती प्राय: सभी कवियों की दृष्टि में उपेक्षित ही रहा। आधुनिक युग में केवल 'कृष्णायन' के अन्तर्गत उसे परम्परागत रूप में ही स्थान मिल सका।
नवरात्रि के पावन अवसर पर पढ़ें,करणी माता मंदिर एक अद्भुत रहस्यमय स्थान???????
यदि आपके घर में आपको एक भी चूहा नज़र आ जाए तो आप बेचैन हो उठेंगे। आप उसको अपने घर से भगाने की तमाम तरकीबे लगाएंगे क्योकि चूहों को प्लेग जैसी कई भयानक बीमारियों का कारण माना जाता है।
लेकिन क्या आपको पता है की हमारे देश भारत में माता का एक ऐसा मंदिर भी है जहाँ पर 20000 चूहे रहते है और मंदिर में आने वालो भक्तो को चूहों का झूठा किया हुआ प्रसाद ही मिलता है।
आश्चर्य की बात यह है की इतने चूहे होने के बाद भी मंदिर में बिल्कुल भी बदबू नहीं है, आज तक कोई भी बीमारी नहीं फैली है यहाँ तक की चूहों का झूठा प्रसाद खाने से कोई भी भक्त बीमार नहीं हुआ है। इतना ही नहीं जब आज से कुछ दशको पूर्व पुरे भारत में प्लेग फैला था तब भी इस मंदिर में भक्तो का मेला लगा रहता था और वो चूहों का झूठा किया हुआ प्रसाद ही खाते थे।
यह है राजस्थान के ऐतिहासिक नगर बीकानेर से लगभग 30 किलो मीटर दूर देशनोक में स्तिथ करणी माता का मंदिर जिसे चूहों वाली माता, चूहों वाला मंदिर और मूषक मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।
माना जाता है माँ जगदम्बा का साक्षात अवतार,,,,,,,, करणी माता, जिन्हे की भक्त माँ जगदम्बा का अवतार मानते है, का जन्म 1387 में एक चारण परिवार में हुआ था। उनका बचपन का नाम रिघुबाई था। रिघुबाई की शादी साठिका गाँव के किपोजी चारण से हुई थी लेकिन शादी के कुछ समय बाद ही उनका मन सांसारिक जीवन से ऊब गया इसलिए उन्होंने किपोजी चारण की शादी अपनी छोटी बहन गुलाब से करवाकर खुद को माता की भक्ति और लोगों की सेवा में लगा दिया।
जनकल्याण, अलौकिक कार्य और चमत्कारिक शक्तियों के कारण रिघु बाई को करणी माता के नाम से स्थानीय लोग पूजने लगे। वर्तमान में जहाँ यह मंदिर स्तिथ है वहां पर एक गुफा में करणी माता अपनी इष्ट देवी की पूजा किया करती थी।
यह गुफा आज भी मंदिर परिसर में स्तिथ है। कहते है करनी माता 151 वर्ष जिन्दा रहकर 23 मार्च 1538 को ज्योतिर्लिन हुई थी। उनके ज्योतिर्लिं होने के पश्चात भक्तों ने उनकी मूर्ति की स्थापना कर के उनकी पूजा शुरू कर दी जो की तब से अब तक निरंतर जारी है।
राजा गंगा सिंह ने करवाया था मंदिर का निर्माण,,,,, करणी माता बीकानेर राजघराने की कुलदेवी है। कहते है की उनके ही आशीर्वाद से बीकानेर और जोधपुर रियासत की स्थापना हुई थी। करणी माता के वर्तमान मंदिर का निर्माण बीकानेर रियासत के महाराजा गंगा सिंह ने बीसवी शताब्दी के शुरुआत में करवाया था।
इस मंदिर में चूहों के अलावा, संगमरमर के मुख्य द्वार पर की गई उत्कृष्ट कारीगरी, मुख्य द्वार पर लगे चांदी के बड़े बड़े किवाड़, माता के सोने के छत्र और चूहों के प्रसाद के लिए रखी चांदी की बहुत बड़ी परात भी मुख्य आकर्षण है।
यदि हम चूहों की बात करे तो मंदिर के अंदर चूहों का एक छत्र राज है। मदिर के अंदर प्रवेश करते ही हर जगह चूहे ही चूहे नज़र आते है। चूहों की अधिकता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की मंदिर के अंदर मुख्य प्रतिमा तक पहुंचने के लिए आपको अपने पैर घसीटते हुए जाना पड़ता है।
क्योकि यदि आप पैर उठाकर रखते है तो उसके नीचे आकर चूहे घायल हो सकते है जो की अशुभ माना जाता है। इस मंदिर में करीब बीस हज़ार काले चूहों के साथ कुछ सफ़ेद चूहे भी रहते है। इस चूहों को ज्यादा पवित्र माना जाता है। मान्यता है की यदि आपको सफ़ेद चूहा दिखाई दे गया तो आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी।
इस मंदिरो के चूहों की एक विशेषता और है की मंदिर में सुबह 5 बजे होने वाली मंगला आरती और शाम को 7 बजे होने वाली संध्या आरती के वक़्त अधिकांश चूहे अपने बिलो से बाहर आ जाते है।
इन दो वक़्त चूहों की सबसे ज्यादा धामा चौकड़ी होती है। यहां पर रहने वाले चूहों को काबा कहा जाता कहां जाता है। माँ को चढ़ाये जाने वाले प्रसाद को पहले चूहे खाते है फिर उसे बाटा जाता है। चील, गिद्ध और दूसरे जानवरो से इन चूहों की रक्षा के लिए मंदिर में खुले स्थानो पर बारीक जाली लगी हुई है।
करणी माता के बेटे माने जाते है चूहे, करणी माता मंदिर में रहने वाले चूहे माँ की संतान माने जाते है करनी माता की कथा के अनुसार एक बार करणी माता का सौतेला पुत्र ( उसकी बहन गुलाब और उसके पति का पुत्र ) लक्ष्मण, कोलायत में स्तिथ कपिल सरोवर में पानी पीने की कोशिश में डूब कर मर गया।
जब करणी माता को यह पता चला तो उन्होंने, मृत्यु के देवता याम को उसे पुनः जीवित करने की प्राथना की। पहले तो यम राज़ ने मन किया पर बाद में उन्होंने विवश होकर उसे चूहे के रूप में पुनर्जीवित कर दिया।
हालॉकि बीकानेर के लोक गीतों में इन चूहों की एक अलग कहानी भी बताई जाती है जिसके अनुसार एक बार 20000 सैनिकों की एक सेना देशनोक पर आकर्मण करने आई जिन्हे माता ने अपने प्रताप से चूहे बना दिया और अपनी सेवा में रख लिया।
[02/04, 08:29] Morni कृष्ण मेहता: नवरात्रि के पावन अवसर पर पढ़ें,श्री दुर्गा नवरात्रि व्रत कथा!
एक समय बृहस्पति जी ब्रह्माजी से बोले- हे ब्रह्मन श्रेष्ठ! चैत्र व आश्विन मास के शुक्लपक्ष में नवरात्र का व्रत और उत्सव क्यों किया जाता है? इस व्रत का क्या फल है, इसे किस प्रकार करना उचित है? पहले इस व्रत को किसने किया? सो विस्तार से कहिये। बृहस्पतिजी का ऐसा प्रश्न सुन ब्रह्माजी ने कहा- हे बृहस्पते! प्राणियों के हित की इच्छा से तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है।
एक समय बृहस्पति जी ब्रह्माजी से बोले- हे ब्रह्मन श्रेष्ठ! चैत्र व आश्विन मास के शुक्लपक्ष में नवरात्र का व्रत और उत्सव क्यों किया जाता है? इस व्रत का क्या फल है, इसे किस प्रकार करना उचित है? पहले इस व्रत को किसने किया? सो विस्तार से कहिये।
बृहस्पतिजी का ऐसा प्रश्न सुन ब्रह्माजी ने कहा- हे बृहस्पते! प्राणियों के हित की इच्छा से तुमने बहुत अच्छा प्रश्न किया है। जो मनुष्य मनोरथ पूर्ण करने वाली दुर्गा, महादेव, सूर्य और नारायण का ध्यान करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं।
यह नवरात्र व्रत संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है। इसके करने से पुत्र की कामना वाले को पुत्र, धन की लालसा वाले को धन, विद्या की चाहना वाले को विद्या और सुख की इच्छा वाले को सुख मिलता है। इस व्रत को करने से रोगी मनुष्य का रोग दूर हो जाता है। मनुष्य की संपूर्ण विपत्तियां दूर हो जाती हैं और घर में समृद्धि की वृद्धि होती है, बन्ध्या को पुत्र प्राप्त होता है। समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है और मन का मनोरथ सिद्ध हो जाता है।
जो मनुष्य इस नवरात्र व्रत को नहीं करता वह अनेक दुखों को भोगता है और कष्ट व रोग से पीड़ित हो अंगहीनता को प्राप्त होता है, उसके संतान नहीं होती और वह धन-धान्य से रहित हो, भूख और प्यास से व्याकूल घूमता-फिरता है तथा संज्ञाहीन हो जाता है। जो सधवा स्त्री इस व्रत को नहीं करती वह पति सुख से वंचित हो नाना दुखों को भोगती है। यदि व्रत करने वाला मनुष्य सारे दिन का उपवास न कर सके तो एक समय भोजन करे और दस दिन बान्धवों सहित नवरात्र व्रत की कथा का श्रवण करे।
हे बृहस्पते! जिसने पहले इस महाव्रत को किया है वह कथा मैं तुम्हें सुनाता हूं तुम सावधान होकर सुनो। इस प्रकार ब्रह्मा जी का वचन सुनकर बृहस्पति जी बोले- हे ब्राह्माण मनुष्यों का कल्याम करने वाले इस व्रत के इतिहास को मेरे लिए कहो मैं सावधान होकर सुन रहा हूं। आपकी शरण में आए हुए मुझ पर कृपा करो।
ब्रह्माजी बोले- प्राचीन काल में मनोहर नगर में पीठत नाम का एक अनाथ ब्राह्मण रहता था, वह भगवती दुर्गा का भक्त था। उसके संपूर्ण सद्गुणों से युक्त सुमति नाम की एक अत्यन्त सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई। वह कन्या सुमति अपने पिता के घर बाल्यकाल में अपनी सहेलियों के साथ क्रीड़ा करती हुई इस प्रकार बढ़ने लगी जैसे शुक्ल पक्ष में चंद्रमा की कला बढ़ती है।
उसका पिता प्रतिदिन जब दुर्गा की पूजा करके होम किया करता, वह उस समय नियम से वहां उपस्थित रहती। एक दिन सुमति अपनी सखियों के साथ खेल में लग गई और भगवती के पूजन में उपस्थित नहीं हुई। उसके पिता को पुत्री की ऐसी असावधानी देखकर क्रोध आया और वह पुत्री से कहने लगा अरी दुष्ट पुत्री! आज तूने भगवती का पूजन नहीं किया, इस कारण मैं किसी कुष्ट रोगी या दरिद्र मनुष्य के साथ तेरा विवाह करूंगा।
पिता का ऐसा वचन सुन सुमति को बड़ा दुख हुआ और पिता से कहने लगी- हे पिता! मैं आपकी कन्या हूं तथा सब तरह आपके आधीन हूं जैसी आपकी इच्छा हो वैसा ही करो। राजा से, कुष्टी से, दरिद्र से अथवा जिसके साथ चाहो मेरा विवाह कर दो पर होगा वही जो मेरे भाग्य में लिखा है, मेरा तो अटल विश्वास है जो जैसा कर्म करता है उसको कर्मों के अनुसार वैसा ही फल प्राप्त होता है क्योंकि कर्म करना मनुष्य के आधीन है पर फल देना ईश्वर के आधीन है।
जैसे अग्नि में पड़ने से तृणादि उसको अधिक प्रदीप्त कर देते हैं। इस प्रकार कन्या के निर्भयता से कहे हुए वचन सुन उस ब्राह्मण ने क्रोधित हो अपनी कन्या का विवाह एक कुष्टी के साथ कर दिया और अत्यन्त क्रोधित हो पुत्री से कहने लगा-हे पुत्री! अपने कर्म का फल भोगो, देखें भाग्य के भरोसे रहकर क्या करती हो? पिता के ऐसे कटु वचनों को सुन सुमति मन में विचार करने लगी- अहो! मेरा बड़ा दुर्भाग्य है जिससे मुझे ऐसा पति मिला। इस तरह अपने दुख का विचार करती हुई वह कन्या अपने पति के साथ वन में चली गई और डरावने कुशायुक्त उस निर्जन वन में उन्होंने वह रात बड़े कष्ट से व्यतीत की।
उस गरीब बालिका की ऐसी दशा देख देवी भगवती ने पूर्व पुण्य के प्रभाव से प्रगट हो सुमति से कहा- हे दीन ब्राह्मणी! मैं तुझसे प्रसन्न हूं, तुम जो चाहो सो वरदान मांग सकती हो। भगवती दुर्गा का यह वचन सुन ब्राह्मणी ने कहा- आप कौन हैं वह सब मुझसे कहो? ब्राह्मणी का ऐसा वचन सुन देवी ने कहा कि मैं आदि शक्ति भगवती हूं और मैं ही ब्रह्मविद्या व सरस्वती हूं। प्रसन्न होने पर मैं प्राणियों का दुख दूर कर उनको सुख प्रदान करती हूं। हे ब्राह्मणी! मैं तुझ पर तेरे पूर्व जन्म के पुण्य के प्रभाव से प्रसन्न हूं।
तुम्हारे पूर्व जन्म का वृतांत सुनाती हूं सुनो! तू पूर्व जन्म में निषाद (भील) की स्त्री थी और अति पतिव्रता थी। एक दिन तेरे पति निषाद ने चोरी की। चोरी करने के कारण तुम दोनों को सिपाहियों ने पकड़ लिया और ले जाकर जेलखाने में कैद कर दिया। उन लोगों ने तुझको और तेरे पति को भोजन भी नहीं दिया।
इस प्रकार नवरात्र के दिनों में तुमने न तो कुछ खाया और न जल ही पिया इस प्रकार नौ दिन तक नवरात्र का व्रत हो गया। हे ब्राह्मणी! उन दिनों में जो व्रत हुआ, इस व्रत के प्रभाव से प्रसन्न होकर मैं तुझे मनोवांछित वर देती हूं, तुम्हारी जो इच्छा हो सो मांगो।
इस प्रकार दुर्गा के वचन सुन ब्राह्मणी बोली अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो हे दुर्गे। मैं आपको प्रणाम करती हूं कृपा करके मेरे पति का कोढ़ दूर करो। देवी ने कहा- उन दिनों तुमने जो व्रत किया था उस व्रत का एक दिन का पुण्य पति का कोढ़ दूर करने के लिए अर्पण करो, उस पुण्य के प्रभाव से तेरा पति कोढ़ से मुक्त हो जाएगा।
ब्रह्मा जी बोले- इस प्रकार देवी के वचन सुन वह ब्राह्मणी बहुत प्रसन्न हुई और पति को निरोग करने की इच्छा से जब उसने तथास्तु (ठीक है) ऐसा वचन कहा, तब उसके पति का शरीर भगवती दुर्गा की कृपा से कुष्ट रोग से रहित हो अति कान्तिवान हो गया। वह ब्राह्मणी पति की मनोहर देह को देख देवी की स्तुति करने लगी- हे दुर्गे! आप दुर्गति को दूर करने वाली, तीनों लोकों का सन्ताप हरने वाली, समस्त दु:खों को दूर करने वाली, रोगी मनुष्य को निरोग करने वाली, प्रसन्न हो मनोवांछित वर देने वाली और दुष्टों का नाश करने वाली जगत की माता हो।
हे अम्बे! मुझ निरपराध अबला को मेरे पिता ने कुष्टी मनुष्य के साथ विवाह कर घर से निकाल दिया। पिता से तिरस्कृत निर्जन वन में विचर रही हूं, आपने मेरा इस विपदा से उद्धार किया है, हे देवी। आपको प्रणाम करती हूं। मेरी रक्षा करो।
ब्रह्मा जी बोले- हे बृहस्पते! उस ब्राह्मणी की ऐसी स्तुति सुन देवी बहुत प्रसन्न हुई और ब्राह्मणी से कहा- हे ब्राह्मणी! तेरे उदालय नामक अति बुद्धिमान, धनवान, कीर्तिवान और जितेन्द्रिय पुत्र शीध्र उत्पन्न होगा। ऐसा वर प्रदान कर देवी ने ब्राह्मणी से फिर कहा कि हे ब्राह्मणी! और जो कुछ तेरी इच्छा हो वह मांग ले। भगवती दुर्गा का ऐसा वचन सुन सुमति ने कहा कि हे भगवती दुर्गे! अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे नवरात्र व्रत की विधि और उसके फल का विस्तार से वर्णन करें।
महातम्य- इस प्रकार ब्राह्मणी के वचन सुन दुर्गा ने कहा- हे ब्राह्मणी! मैं तुम्हें संपूर्ण पापों को दूर करने वाले नवरात्र व्रत की विधि बतलाती हूं जिसको सुनने से मोक्ष की प्राप्ति होती है- आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से लेकर नौ दिन तक विधिपूर्वक व्रत करें यदि दिन भर का व्रत न कर सकें तो एक समय भोजन करें।
ब्राह्मणों से पूछकर घट स्थापन करें और वाटिका बनाकर उसको प्रतिदिन जल से सींचें। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती देवी की मूर्तियां स्थापित कर उनकी नित्य विधि सहित पूजा करें और पुष्पों से विधिपूर्वक अर्घ्य दें।
बिजौरा के फल से अर्घ्य देने से रूप की प्राप्ति होती है। जायफल से अर्घ्य देने से कीर्ति, दाख से अर्घ्य देने से कार्य की सिद्धि होती है, आंवले से अर्घ्य देने से सुख की प्राप्ति और केले से अर्घ्य देने से आभूषणों की प्राप्ति होती है। इस प्रकार पुष्पों व फलों से अर्घ्य देकर व्रत समाप्त होने पर नवें दिन यथा विधि हवन करें।
खांड, घी, गेहूं, शहद, जौ, तिल, बिल्व (बेल), नारियल, दाख और कदम्ब आदि से हवन करें। गेहूं से होम करने से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है, खीर एवं चम्पा के पुष्पों से धन की और बेल पत्तों से तेज व सुख की प्राप्ति होती है।
आंवले से कीर्ति की और केले से पुत्र की, कमल से राज सम्मान की और दाखों से संपदा की प्राप्ति होती है। खांड, घी, नारियल, शहद, जौ और तिल तथा फलों से होम करने से मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति होती है। व्रत करने वाला मनुष्य इस विधि विधान से होम कर आचार्य को अत्यन्त नम्रता के साथ प्रणाम करे और यज्ञ की सिद्धि के लिए उसे दक्षिणा दे।
इस प्रकार बताई हुई विधि के अनुसार जो व्यक्ति व्रत करता है उसके सब मनोरथ सिद्ध होते हैं, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। इन नौ दिनों में जो कुछ दान आदि दिया जाता है उसका करोड़ों गुना फल मिलता है। इस नवरात्र व्रत करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। हे ब्राह्मणी! इस संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले उत्तम व्रत को तीर्थ, मंदिर अथवा घर में विधि के अनुसार करें।
ब्रह्मा जी बोले- हे बृहस्पते! इस प्रकार ब्राह्मणी को व्रत की विधि और फल बताकर देवी अर्न्तध्यान हो गई। जो मनुष्य या स्त्री इस व्रत को भक्तिपूवर्क करता है वह इस लोक में सुख प्राप्त कर अन्त में दुर्लभ मोक्ष को प्राप्त होता है। हे बृहस्पते! यह इस दुर्लभ व्रत का महात्म्य है जो मैंने तुम्हें बतलाया है।
यह सुन बृहस्पति जी आनन्द से प्रफुल्लित हो ब्राह्माजी से कहने लगे कि हे ब्रह्मन! आपने मुझ पर अति कृपा की जो मुझे इस नवरात्र व्रत का महात्6य सुनाया। ब्रह्मा जी बोले कि हे बृहस्पते! यह देवी भगवती शरक्ति संपूर्ण लोकों का पालन करने वाली है, इस महादेवी के प्रभाव को कौन जान सकता है? बोलो देवी भगवती की जय।
व्रत की विधि प्रात: नित्यकर्म से निवृत हो, स्नान कर, मंदिर में या घर पर ही नवरात्र में दुर्गा जी का ध्यान करके यह कथा करनी चाहिए। कन्याओं के लिए यह व्रत विशेष लाभदायक है। श्री जगदम्बा की कृपा से सब विध्न दूर हो जाते हैं तथा सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है।
हे परमेश्वरी! मेरे द्वारा रात दिन सहस्त्रों अपराध होत हैं 'यह मेरा दास है' समझ कर मेरे अपराधों को क्षमा करो। हे परमेश्वरी! मैं आह्वान, विसर्जन और पूजन करना नहीं जानता, मुझे क्षमा करो। हे सुरेश्वरी! मैंने जो मंत्रहीन, क्रियाहीन, भक्तयुक्त पूजन किया है वह स्वीकार करो। हे परमेश्वरी! अज्ञान से, भूल से अथवा बुद्धि भ्रान्ति से जो न्यूनता अथवा अधिकता हो गई है उसे क्षमा करिये तथा प्रसन्न होईये।
जाप मंत्र- ऊं ऐं हीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै नम:।मनोकामना सिद्धि के लिए इस मंत्र को 108 बार या सुविधा अनुसार जाप करें।
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*🙏श्री गणेशाय नम:🙏* :
*((रात्रि कथा))*
*>>विश्वास<<*
एक राजा की पुत्री के मन में वैराग्य की भावनाएं थीं।
जब राजकुमारी विवाह योग्य हुई तो राजा को उसके विवाह के लिए योग्य वर नहीं मिल पा रहा था।
राजा ने पुत्री की भावनाओं को समझते हुए बहुत सोच-विचार करके उसका विवाह एक गरीब संन्यासी से करवा दिया।
राजा ने सोचा कि एक संन्यासी ही राजकुमारी की भावनाओं की कद्र कर सकता है।
विवाह के बाद राजकुमारी खुशी-खुशी संन्यासी की कुटिया में रहने आ गई।
कुटिया की सफाई करते समय राजकुमारी को एक बर्तन में दो सूखी रोटियां दिखाई दीं। उसने अपने संन्यासी पति से पूछा कि रोटियां यहां क्यों रखी हैं?
संन्यासी ने जवाब दिया कि ये रोटियां कल के लिए रखी हैं, अगर कल खाना नहीं मिला तो हम एक-एक रोटी खा लेंगे।
संन्यासी का ये जवाब सुनकर राजकुमारी हंस पड़ी।
राजकुमारी ने कहा कि मेरे पिता ने मेरा विवाह आपके साथ इसलिए किया था, क्योंकि उन्हें ये लगता है कि आप भी मेरी ही तरह वैरागी हैं, आप तो सिर्फ भक्ति करते हैं और कल की चिंता करते हैं।
सच्चा भक्त वही है जो कल की चिंता नहीं करता और भगवान पर पूरा भरोसा करता है।
अगले दिन की चिंता तो जानवर भी नहीं करते हैं, हम तो इंसान हैं।
अगर भगवान चाहेगा तो हमें खाना मिल जाएगा और नहीं मिलेगा तो रातभर आनंद से प्रार्थना करेंगे।
ये बातें सुनकर संन्यासी की आंखें खुल गई। उसे समझ आ गया कि उसकी पत्नी ही असली संन्यासी है।
उसने राजकुमारी से कहा कि आप तो राजा की बेटी हैं, राजमहल छोड़कर मेरी छोटी सी कुटिया में आई हैं, जबकि मैं तो पहले से ही एक फकीर हूं, फिर भी मुझे कल की चिंता सता रही थी। सिर्फ कहने से ही कोई संन्यासी नहीं होता, संन्यास को जीवन में उतारना पड़ता है। आपने मुझे वैराग्य का महत्व समझा दिया।।।।।।।
*रात्रि कथा का तात्पर्य*: अगर हम भगवान की भक्ति करते हैं तो विश्वास भी होना चाहिए कि भगवान हर समय हमारे साथ है!
उसको (भगवान्) हमारी चिंता हमसे ज्यादा रहती हैं!
कभी आप बहुत परेशान हो, कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा हो!
आप आँखे बंद कर के विश्वास के साथ पुकारे, सच मानिये
थोड़ी देर में आप की समस्या का समाधान मिल जायेगा..!!
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. *"卐 ज्योतिषी और हस्तरेखाविद 卐"*
: :🙏🙏: :
1."A mind caught in words is incapable of being free."
निशब्द मन का हमें अनुभव नहीं हमें सिर्फ ऐसे मन का अनुभव है जो निरंतर शब्दों से
जकडा हुआ है।उससे मुक्त होने के लिए हम पुनः सहारा शब्दों का ही लेते हैं।चाहे अच्छे शब्दों का परंतु उससे कोई फर्क नहीं पडता।इसे केवल समझ लेना काफी है कि शब्दों में जकडा मन स्वतंत्र होने में असमर्थ है।यह समझते ही मन निशब्द हो जाता है,स्वतंत्र हो जाता है।बंधन-मुक्ति जैसे द्वंद्वसूचक शब्द सदा के लिए विलीन हो जाते हैं।
2."Beauty is not in the face,beauty is a light in the heart."
चेहरे की सुंदरता दिखाने के पीछे दूसरों को प्रभावित करने का उद्देश्य रहता है।इस मानसिकता के,इस कर्तापन के चलते कुरुपता ही घटती है ।अभिमानी कर्ता असुंदरता ही ला सकता है।असली सुंदरता हृदय की होती है जिसमें अकर्तापन होने से नैसर्गिक सौंदर्य अपने स्वाभाविक रुप में विराजता है।
3."When there is a division between the observer and the observed there is conflict but when the observer is the observed there is no control,no suppression.The self comes to an end.conflict comes to an end."
जब तक हम दृश्य को देखते हैं तब तक द्वंद्व है,संघर्ष है,रागद्वेष है लेकिन जब हम खुद दृश्य बन जाते हैं,अर्थात् जब हम स्वयं को ही देखते हैं तब कोई द्वंद्व, संघर्ष नहीं होते।फिर किससे होगा रागद्वेष, स्वयं से तो होने से रहा?अतः आत्मा न बन पायें तो अपना शरीर बन जायें,अपना चेहरा बन जायें,अपने नेत्र बन जाएं और ध्यान दें स्वयं पर तो आप अपने आपको अपने आपके ज्यादा पास महसूस करेंगे।इससे भीतर स्रोत में विलय प्रक्रिया की शुरुआत होगी।कल्याण इसी में है।'पर थी खस।स्व मां वस।आटलुं बस।'
4."The problem arises only when desire is made into pleasure by thought."
यह जानकर आश्चर्य होगा कि इच्छा का सुख से कोई संबंध नहीं है।इच्छा का संबंध केवल विचार से है।विचार विचार में यह भ्रम होता है कि इच्छा सुख की है और इच्छा पूर्ति से सुख मिलेगा।यह सुख नहीं दुख ही है।सुखदुख एक ही चीज के दो नाम हैं।सच्चा, स्थायी,आधारभूत सुख तभी संभव है जब आदमी इच्छारहित अर्थात् निर्विचार हो जाय।जब तक विचार,इच्छा को सुख से जोड रहा है तब तक केवल द्वंद्व है।अतः "मैं"रुपी विचार से सोचने के बजाय इच्छारहित, निर्विचार अवस्था में आने के लिए ही प्रयत्न करते रहना चाहिए।
5."प्रार्थना का पहला कदम है-बोलना।दूसरा कदम है-सुनना।"
मन से चाहे कुछ भी प्रार्थना करें लेकिन फिर मौन हो जाएं और सुनें हृदय को।थोडा समय लगेगा पर वह कुछ कहेगा अपने अनुभव की भाषा में।हृदय की भाषा अनुभव की भाषा है।शब्द और अर्थ की भाषा में सोचना मन का काम है।
6."मैं ना रहे तो तू मिट जाता है।तू ना रहे तो मैं मिट जाता है।"
दोनों मिटें तभी शांति है।जब तक एक को बनाये रखते हैं यह असंभव है।जब तक एक भी रहेगा,दूसरा भी अवश्य रहेगा ही।लेकिन इसका रास्ता भी एक में ही है।या तो केवल "मैं" में ही रहें तब गहराई में मैं और तू दोनों चले जायेंगे।या तू के प्रेम में डूब जायें तब भी दोनों शब्द चले जायेंगे।'जो है' वह रह जायेगा।
7."Patience has no time.Impatience has time."
कहीं घूमने गये थोडे दिन के लिए।वापस लौटने की तैयारी भी थी और बर्फबारी होगयी।सूचना मिली अभी कुछ दिन लगेंगे सफाई होने में।मन मारकर थोडा धैर्य रख लिया।लेकिन वह अवधि पूरी होने पर सूचना मिलती है कि अभी थोडे दिन और लगेंगे तो धीरज टूट जाता है।कारण?
धैर्य था ही नहीं, अधीरता ही थी।हम सब अधीर लोग हैं।समय से बंधे हुए हैं।समय का मतलब अधीरता।जब प्रकृति हमें रुकने का संदेश देती हैं तब हम रुकना जरूरी नहीं समझते किंतु उसके आगे हमारी चलती नहीं है।इसमें धीरगंभीर आदमी टिक पाता है।उसके लिए समय नाम की कोई चीज नहीं है।धीरता समयरहित है तो ही वह धीरता है।बाकी अधीरता तो समय से बंधी हुई है ही।
8."शक्ति निरंतर बाहर की ओर जाती है।"
यह हम सभी लोगों की दशा है।हमें लगता है ध्यान बाहर जाता है।यह ध्यान नहीं, यह 'शक्ति' है जो निरंतर बाहर जाती है और हमें भी घसीट कर ले जाती है।ध्यान जाना साधारण बात है।'शक्ति' का जाना सावधान करनेवाला है।हम बिना जाने इसका साथ देते हैं क्योंकि बाहरी सुरक्षा, बाहर से मिलनेवाली सुरक्षा हमारे लिए बडा महत्व रखती है।हमें पता नहीं कि यह निरंतर बाहर जाने वाली शक्ति जब हमारे भीतर आने लगती है,भीतर स्रोत में समाहित होने लगती है तब कितनी ताकत,कितनी ऊर्जा अनुभव होती है!यही वह बल है जिससे महापुरुष सदा आनंद में रहते हैं और किसी दुखकष्ट से विचलित नहीं होते।
9."हम दोनों हाथों की उंगलियां एकदूसरे में बांधकर दस मिनट यह भावना करें कि ये उंगलियां एक दूसरे से छूट ही नहीं सकती तो दस मिनट बाद यही होगा।"
यह मन की भ्रामक शक्ति है।जो आदमी बारबार यह सोचता है कि मैं असमर्थ हूं तो उसे पता नहीं चलता कि वह कितनी बडी भूल कर रहा है।वह अपने मन को सुझाव दे रहा है अपनी असमर्थता का बिना जाने कि मन भी फिर यही करनेवाला है।असमर्थता घर कर जायेगी अपने भीतर।इसकी जगह सामर्थ्य का ही विचार करें,सुझाव दें मन को तो मन फिर वैसा ही व्यवहार करेगा।हम मन से अलग कहां हैं?मन के रुप में ही तो रहते हैं अतः मन को सही सुझाव देना अत्यावश्यक है।यह ध्यान रखना चाहिए कि हम बारबार किसी बिमारी या रोग का नाम लेते रहेंगे,अपने और दूसरे लोगों को उसकी परवशता का स्मरण कराते रहेंगे तो सभी के मन नकारात्मक होकर वैसा ही सोचेंगे।वे उससे बाहर नहीं निकलने देंगे।जबकि बाहर निकला जा सकता है।बाहर निकलने की जरूरत भी न पडेगी यदि हम मन को सदैव सही,रचनात्मक, सकारात्मक सुझाव ही दे रहे हैं बजाय दिनरात एक ही दुष्प्रचार में जुटे रहने के।
जरूरत है सही समझ की और आत्मसंयम की।सर्वोत्तम सुझाव है-'धैर्ययुक्त बुद्धि द्वारा मन को परम आत्मा में स्थित करके उसके अलावा कुछ भी चिंतन न करे।शनैः शनैरुपरमेद्बुद्धया धृतिगृहीतया।आत्मसंस्थं मन:कृत्वा न किंचिदपि चिन्तयेत्।।गीता।६।२५।।
[03/04, 08:50] Morni कृष्ण मेहता: मोक्ष (भाग−१) :—
एक प्रश्न आया है —
“मोक्ष कैसे होता है ?”
उत्तर —
सारी ईच्छाओं से पिण्ड छूट जाने पर ।
पहले तामसिक ईच्छाओं से,फिर राजसिक से,अन्त में सात्विक ईच्छाओं से भी ।
जबतक तामसिक और राजसिक ईच्छायें हैं तबतक सात्विक ईच्छाओं को त्यागना उचित नहीं । सात्विक ईच्छा का अर्थ है धार्मिक कर्म करने की ईच्छा । पुण्य का फल स्वर्ग होता है,मोक्ष नहीं । स्वर्ग का अर्थ है चार दिन की चाँदनी,फिर मर्त्यलोक का अँधियारा!नरक का अर्थ है चार दिन का कष्ट,फिर मर्त्यलोक का अँधियारा!अतः स्वर्ग और नरक का अन्तिम फल समान है —
मर्त्यलोक का “अरघट्ट−घटी−यन्त्र” ।
प्राचीन भारत में “अरघट्ट−घटी−यन्त्र” द्वारा खेतों की सिंचाई होती थी । कूँए से अनेक घड़ों की श्रृङ्खला जल भरकर ऊपर लाती और नाले में उड़ेलकर खाली घड़े पुनः नीचे जल लेने जाते,बैलों द्वारा घड़ों की श्रृङ्खला घूमती रहती थी । इसी तरह जीव कर्मों का फल भोगने के लिये नीचे मर्त्यलोक में गिरता,और उन फलों के समाप्त होने पर मर्त्यलोक से निकलता,किन्तु मर्त्यलोक में नये कर्म करने के कारण पुनः मर्त्यलोक में जाता । प्राचीन अद्वैतवादी ग्रन्थों में “अरघट्ट−घटी−यन्त्र” के उदाहरण द्वारा जन्म−मरण की अनवरत श्रृङ्खला को समझाया जाता था । इस अनवरत श्रृङ्खला को केवल ईच्छाओं के त्याग द्वारा ही तोड़ा जा सकता है । ईच्छायें नहीं रहेंगी तो नये सकाम कर्म भी नहीं किये जायेंगे,तब उनका फल भोगने के लिये जन्म−मरण के चक्र में बारम्बार फँसना नहीं पड़ेगा ।
ईच्छाओं का त्याग हो जाय तो निष्काम कर्म द्वारा शेष जीवन बिताना चाहिए ।
ईच्छाओं का त्याग केवल दो साधनों द्वारा ही सम्भव है — अभ्यास तथा वैराग्य । वैराग्य का अर्थ है ऐन्द्रिक तुष्टि वाले विषयों की ओर मन के आकर्षित होने का अभाव,और अभ्यास का अर्थ है ऐसा हर उपाय करना जिसके द्वारा वैराग्य मन की स्वाभाविक अवस्था बन जाय ।
सकाम कर्म के दो फल होते हैं । पहला फल तो वह है जिसे पाने के लिये वह कर्म किया गया,भले ही वह फल मिल सके या न मिले । दूसरा फल है उस प्रकार के नये सकाम कर्म करने की ईच्छा का बलवान होना । यह दूसरा फल ही पिछले समस्त कर्मफलों के उस भण्डार में जुड़ता है जिसे “संस्कार” कहते हैं ।
वैदिक संस्कारों अर्थात् अच्छे संस्कारों के अनुसार कर्म करने को “धर्म” कहते हैं । कर्म करने की सही विधि ही “कर्मकाण्ड” है जिसे कलियुग में धूर्तों ने धन्धा बना रखा है । कर्मकाण्ड द्वारा कर्तव्य कर्मों के उचित फल भी प्राप्त होते हैं और उनके फल बन्धन में बाँधते भी नहीं । कर्मकाण्ड को सकाम कर्म का साधन बनाना कलियुग की बीमारी है जिस कारण सनातन धर्म अशक्त हुआ है । संसारिक वासनाओं की पूर्ति के लिये कर्मकाण्ड नहीं हैं । कर्मकाण्ड का प्रयोग केवल कर्तव्यपालन और धर्मरक्षा हेतु ही करना चाहिये,वरना वैदिक यज्ञ भी सकाम बनकर बन्धन में डालेंगे ।
“संस्कार” के सम्पूर्ण समुच्चय के पूर्णतया भस्म होने पर ही मोक्ष मिलता है । किसी मनुष्य में यह सामर्थ्य नहीं कि चौरासी लाख योनियें में अनन्त जन्मों के दौरान किये गये समस्त कर्मों के फलों को अपने जप−तप आदि द्वारा भस्म कर सके ।
किन्तु आधे संस्कार भस्म हो जाने पर सात्विकता बढ़ जाती है । मन की स्वाभाविक प्रवृति सात्विक हो जाने पर ईश्वर जीव को खींचने लगते हैं । बिना ईशकृपा के संस्कारों के अनन्त प्रवाह वाली वैतरणी की विपरीत−तरणी को तैरना जीव के वश की बात नहीं । सही ज्ञान,सही कर्म और सच्ची भक्ति — तीनों अनिवार्य हैं,तब जीव अपने वास्तविक ज्ञान में स्थिर रहना सीख पाता है । ज्ञान ही मोक्ष है,कर्म और भक्ति साधन हैं,किन्तु साधन के बिना साध्य सम्भव नहीं ।
अपने सच्चे स्वरूप से जुड़ना ही “योग” है जिसके ‘अभ्यास’ का सर्वोत्तम साधन है महर्षि पतञ्जलि का “योगसूत्र”,जिसपर सर्वोत्तम भाष्य है महर्षि वेदव्यास का । हिन्दी में इसकी संक्षिप्त और सर्वोत्तम टीका है स्वामी ओमानन्द तीर्थ द्वारा लिखित और गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित “पातञ्जल योग प्रदीप” जिसमें मूल योगसूत्र का अर्थ तथा व्यासभाष्य को समझने का पूरा प्रयास करें और स्वामी ओमानन्द तीर्थ द्वारा जोड़ी गयी सारी बातों का महत्व न दें — हालाँकि वे भी उपयोगी हैं परन्तु उक्त दोनों महर्षियों के सामने स्वामी ओमानन्द तीर्थ अथवा हमलोग कुछ नहीं ।
रामदेव,रावणदेव,रहीमदेव आदि से पूरी दूरी बनाकर रखें,वे लोग योगी नहीं हैं,स्वयं भी भटक गये हैं और आपको भी भटका देंगे । उनको मोक्ष नहीं,यश या धन चाहिए । आपको यश या धन चाहिए तो वैदिक कर्मकाण्ड का सही प्रयोग करें,योग या धर्म या कर्मकाण्ड की दूकान न खोलें । आलू−बैंगन बेचना पाप नहीं है,अध्यात्म बेचना पाप है ।
[03/04, 08:51] Morni कृष्ण मेहता: नित्य पाठ के लिए मां भवानी का शरणागति स्तोत्र भवान्यष्टकस्तोत्रम !
भगवान आद्य शंकराचार्य निर्गुण-निराकार अद्वैत परब्रह्म के उपासक थे। एक बार वे काशी आए तो वहां उन्हें अतिसार (दस्त) हो गया जिसकी वजह से वे अत्यन्त दुर्बल हो गए। अत्यन्त कृशकाय होकर वे एक स्थान पर बैठे थे। उन पर कृपा करने के लिए भगवती अन्नपूर्णा एक गोपी का वेष बनाकर दही का एक बहुत बड़ा पात्र लिए वहां आकर बैठ गयीं। कुछ देर बाद उस गोपी ने कहा–’स्वामीजी! मेरे इस घड़े को उठवा दीजिए।’
स्वामीजी ने कहा–’मां! मुझमें शक्ति नहीं है, मैं इसे उठवाने में असमर्थ हूँ।’ मां ने कहा–’तुमने शक्ति की उपासना की होती, तब शक्ति आती। शक्ति की उपासना के बिना भला शक्ति कैसे आ सकती है?’ यह सुनकर शंकराचार्यजी की आंखें खुल गयीं। उन्होंने शक्ति की उपासना के लिए अनेक स्तोत्रों की रचना की। भगवान शंकराचार्यजी द्वारा स्थापित चार पीठ हैं। चारों में ही चार शक्तिपीठ हैं।
भवान्यष्टक श्रीशंकराचार्यजी द्वारा रचित मां भवानी (शिवा, दुर्गा) का शरणागति स्तोत्र है। माँ भवानी शरणागतवत्सला होकर अपने भक्त को भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं। देवी की शरण में आए हुए मनुष्यों पर विपत्ति तो आती ही नहीं बल्कि वे शरण देने वाले हो जाते हैं।
भवानी अष्टक!!!!!!!
न तातो न माता न बन्धुर्न दाता
न पुत्रो न पुत्री न भृत्यो न भर्ता।
न जाया न विद्या न वृत्तिर्ममैव
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥१॥
हे भवानि! पिता, माता, भाई, दाता, पुत्र, पुत्री, भृत्य, स्वामी, स्त्री, विद्या और वृत्ति–इनमें से कोई भी मेरा नहीं है, हे देवि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो, तुम्ही मेरी गति हो।
भवाब्धावपारे महादुःखभीरुः
पपात प्रकामी प्रलोभी प्रमत्तः।
कुसंसारपाशप्रबद्धः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥२॥
मैं अपार भवसागर में पड़ा हूँ, महान दु:खों से भयभीत हूँ, कामी, लोभी, मतवाला तथा घृणायोग्य संसार के बन्धनों में बँधा हुआ हूँ, हे भवानि! अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
न जानामि दानं न च ध्यानयोगं
न जानामि तन्त्रं न च स्तोत्रमन्त्रम्।
न जानामि पूजां न च न्यासयोगम्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥३॥
हे देवि! मैं न तो दान देना जानता हूँ और न ध्यानमार्ग का ही मुझे पता है, तन्त्र और स्तोत्र-मन्त्रों का भी मुझे ज्ञान नहीं है, पूजा तथा न्यास आदि की क्रियाओं से तो मैं एकदम कोरा हूँ,
अब एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
न जानामि पुण्यं न जानामि तीर्थं
न जानामि मुक्तिं लयं वा कदाचित्।
न जानामि भक्तिं व्रतं वापि मातर्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥४॥
न पुण्य जानता हूँ, न तीर्थ, न मुक्ति का पता है न लय का। हे माता! भक्ति और व्रत भी मुझे ज्ञात नहीं है, हे भवानि! अब केवल तुम्हीं मेरा सहारा हो।
कुकर्मी कुसंगी कुबुद्धिः कुदासः
कुलाचारहीनः कदाचारलीनः।
कुदृष्टिः कुवाक्यप्रबन्धः सदाहम्
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥५॥
मैं कुकर्मी, बुरी संगति में रहने वाला, दुर्बुद्धि, दुष्टदास, कुलोचित सदाचार से हीन, दुराचारपरायण, कुत्सित दृष्टि रखने वाला और सदा दुर्वचन बोलने वाला हूँ, हे भवानि! मुझ अधम की एकमात्र तुम्हीं गति हो।
प्रजेशं रमेशं महेशं सुरेशं
दिनेशं निशीथेश्वरं वा कदाचित्।
न जानामि चान्यत् सदाहं शरण्ये
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥६॥
मैं ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा तथा अन्य किसी भी देवता को नहीं जानता, हे शरण देने वाली भवानि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
विवादे विषादे प्रमादे प्रवासे
जले चानले पर्वते शत्रुमध्ये।
अरण्ये शरण्ये सदा मां प्रपाहि
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥७॥
हे शरण्ये! तुम विवाद, विषाद, प्रमाद, परदेश, जल, अनल, पर्वत, वन तथा शत्रुओं के मध्य में सदा ही मेरी रक्षा करो, हे भवानि! एकमात्र तुम्हीं मेरी गति हो।
अनाथो दरिद्रो जरारोगयुक्तो
महाक्षीणदीनः सदा जाड्यवक्त्रः।
विपत्तौ प्रविष्टः प्रणष्टः सदाहं
गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानि ॥८॥
हे भवानि! मैं सदा से ही अनाथ, दरिद्र, जरा-जीर्ण, रोगी, अत्यन्त दुर्बल, दीन, गूंगा, विपदा से ग्रस्त और नष्ट हूँ, अब तुम्हीं एकमात्र मेरी गति हो।
इति श्रीमच्छड़्कराचार्यकृतं भवान्यष्टकं सम्पूर्णम्।
[03/04, 08:51] Morni कृष्ण मेहता: दस पवित्र पक्षी और उनका रहस्य
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आइये जाने उन दस दिव्य और पवित्र पक्षीयों के बारे मैं जिनका हिंदू धर्म में बहुत ही महत्व माना गया है...
हंस👉 जब कोई व्यक्ति सिद्ध हो जाता है तो उसे कहते हैं कि इसने हंस पद प्राप्त कर लिया और जब कोई समाधिस्थ हो जाता है, तो कहते हैं कि वह परमहंस हो गया। परमहंस सबसे बड़ा पद माना गया है।
हंस पक्षी प्यार और पवित्रता का प्रतीक है। यह बहुत ही विवेकी पक्षी माना गया है। आध्यात्मिक दृष्टि मनुष्य के नि:श्वास में 'हं' और श्वास में 'स' ध्वनि सुनाई पड़ती है। मनुष्य का जीवन क्रम ही 'हंस' है क्योंकि उसमें ज्ञान का अर्जन संभव है। अत: हंस 'ज्ञान' विवेक, कला की देवी सरस्वती का वाहन है। यह पक्षी अपना ज्यादातर समय मानसरोवर में रहकर ही बिताते हैं या फिर किसी एकांत झील और समुद्र के किनारे।
हंस दांपत्य जीवन के लिए आदर्श है। यह जीवन भर एक ही साथी के साथ रहते हैं। यदि दोनों में से किसी भी एक साथी की मौत हो जाए तो दूसरा अपना पूरा जीवन अकेले ही गुजार या गुजार देती है। जंगल के कानून की तरह इनमें मादा पक्षियों के लिए लड़ाई नहीं होती। आपसी समझबूझ के बल पर ये अपने साथी का चयन करते हैं। इनमें पारिवारिक और सामाजिक भावनाएं पाई जाती है।
हिंदू धर्म में हंस को मारना अर्थात पिता, देवता और गुरु को मारने के समान है। ऐसे व्यक्ति को तीन जन्म तक नर्क में रहना होता है।
मोर👉 मोर को पक्षियों का राजा माना जाता है। यह शिव पुत्र कार्तिकेय का वाहन है। भगवान कृष्ण के मुकुट में लगा मोर का पंख इस पक्षी के महत्व को दर्शाता है। यह भारत का राष्ट्रीय पक्षी है।
अनेक धार्मिक कथाओं में मोर को बहुत ऊंचा दर्जा दिया गया है। हिन्दू धर्म में मोर को मार कर खाना महापाप समझा जाता है।
कौआ👉 कौए को अतिथि-आगमन का सूचक और पितरों का आश्रम स्थल माना जाता है। इसकी उम्र लगभग 240 वर्ष होती है। श्राद्ध पक्ष में कौओं का बहुत महत्व माना गया है। इस पक्ष में कौओं को भोजना कराना अर्थात अपने पितरों को भोजन कराना माना गया है। कौए को भविष्य में घटने वाली घटनाओं का पहले से ही आभास हो जाता है।
उल्लू 👉 उल्लू को लोग अच्छा नहीं मानते और उससे डरते हैं, लेकिन यह गलत धारणा है। उल्लू लक्ष्मी का वाहन है। उल्लू का अपमान करने से लक्ष्मी का अपमान माना जाता है। हिन्दू संस्कृति में माना जाता है कि उल्लू समृद्धि और धन लाता है।
भारत वर्ष में प्रचलित लोक विश्वासों के अनुसार भी उल्लू का घर के ऊपर छत पर स्थित होना तथा शब्दोच्चारण निकट संबंधी की अथवा परिवार के सदस्य की मृत्यु का सूचक समझा जाता है। सचमुच उल्लू को भूत-भविष्य और वर्तमान में घट रही घटनाओं का पहले से ही ज्ञान हो जाता है।
वाल्मीकि रामायण में उल्लू को मूर्ख के स्थान पर अत्यन्त चतुर कहा गया। रामचंद्र जी जब रावण को मारने में असफल होते हैं और जब विभीषण उनके पास जाते हैं, तब सुग्रीव राम से कहते हैं कि उन्हें शत्रु की उलूक-चतुराई से बचकर रहना चाहिए। ऋषियों ने गहरे अवलोकन तथा समझ के बाद ही उलूक को श्रीलक्ष्मी का वाहन बनाया था।
गरूड़👉 इसे गिद्ध भी कहा जाता है। पक्षियों में गरूढ़ को सबसे श्रेष्ठ माना गया है। यह समझदार और बुद्धिमान होने के साथ-साथ तेज गति से उड़ने की क्षमता रखता है। गरूड़ के नाम पर एक पुराण भी है गरूड़ पुराण। यह भारत का धार्मिक और अमेरिका का राष्ट्रीय पक्षी है।
गरूड़ के बारे में पुराणों में अनेक कथाएं मिलती है। पौराणिक कथाओं के अनुसार भगवान विष्णु की सवारी और भगवान राम को मेघनाथ के नागपाश से मुक्ति दिलाने वाले गरूड़ के बारे में कहा जाता है कि यह सौ वर्ष तक जीने की क्षमता रखता है।
नीलकंठ👉 नीलकंड को देखने मात्र से भाग्य का दरवाजा खुल जाता है। यह पवित्र पक्षी माना जाता है। दशहरा पर लोग इसका दर्शन करने के लिए बहुत ललायित रहते हैं।
तोता👉 तोते का हरा रंग बुध ग्रह के साथ जोड़कर देखा जाता है। अतः घर में तोता पालने से बुध की कुदृष्टि का प्रभाव दूर होता है। घर में तोते का चित्र लगाने से बच्चों का पढ़ाई में मन लगता है।
आपने बहुत से तोता पंडित देखें होंगे जो भविष्यवाणी करते हैं। तोते के बारे में बहुत सारी कथाएं पुराणों में मिलती है। इसके अलवा, जातक कथाओं, पंचतंत्र की कथाओं में भी तोते को किसी न किसी कथा में शामिल किया गया है।
कबूतर👉 इसे कपोत कहते हैं। यह शांति का प्रतीक माना गया है। भगवान शिव ने जब अमरनाथ में पार्वती को अजर अमर होने के वचन सुनाए थे तो कबतरों के एक जोड़े ने यह वचन सुन लिए थे तभी से वे अजर-अमर हो गए। आज भी अमरनाथ की गुफा के पास ये कबूतर के जोड़े आपको दिखाई दे जाएंगे। कहते हैं कि सावन की पूर्णिमा को ये कबूतर गुफा में दिखाई पड़ते हैं। इसलिए कबूतर को महत्व दिया जाता है।
बगुला👉 आपने कहावत सुनी होगी बगुला भगत। अर्थात ढोंगी साधु। धार्मिक ग्रंथों में बगुले से जुड़ी अनेक कथाओं का उल्लेख मिलता है। पंत्रतंत्र में एक कहानी है बगुला भगत। बगुला भगत पंचतंत्र की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा हैं।
बगुला के नाम पर एक देवी का नाम भी है जिसे बगुलामुखी कहते हैं। बगुला ध्यान भी होता है अर्थात बगुले की तरह एकटक ध्यान लगाना। बगुले के संबंध में कहा जाता है कि ये जिस भी घर के पास के किसी वृक्ष आदि पर रहते हैं वहां शांति रहती है और किसी प्रकार की अकाल मृत्यु नहीं होती।
गोरैया👉 भारतीय पौराणिक मान्यताओं अनुसार यह चिड़ियां जिस भी घर में या उसके आंगन में रहती है वहां सुख और शांति बनी रहती है। खुशियां उनके द्वार पर हमेशा खड़ी रहती है और वह घर दिनोदिन तरक्की करता रहता है।
आचार्य डॉ0 विजय शंकर मिश्र
[03/04, 08:51] Morni कृष्ण मेहता: माता वैष्णो देवी की अमर कथा
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वैष्णो देवी उत्तरी भारत के सबसे पूजनीय और पवित्र स्थलों में से एक है। यह मंदिर पहाड़ पर स्थित होने के कारण अपनी भव्यता व सुंदरता के कारण भी प्रसिद्ध है। वैष्णो देवी भी ऐसे ही स्थानों में एक है जिसे माता का निवास स्थान माना जाता है। मंदिर, 5,200 फीट की ऊंचाई और कटरा से लगभग 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
हर साल लाखों तीर्थ यात्री मंदिर के दर्शन करते हैं।यह भारत में तिरुमला वेंकटेश्वर मंदिर के बाद दूसरा सर्वाधिक देखा जाने वाला धार्मिक तीर्थस्थल है। वैसे तो माता वैष्णो देवी के सम्बन्ध में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं लेकिन मुख्य 2 कथाएँ अधिक प्रचलित हैं।
माता वैष्णो देवी की प्रथम कथा, मान्यतानुसार एक बार पहाड़ों वाली माता ने अपने एक परम भक्तपंडित श्रीधर की भक्ति से प्रसन्न होकर उसकी लाज बचाई और पूरे सृष्टि को अपने अस्तित्व का प्रमाण दिया। वर्तमान कटरा कस्बे से 2 कि.मी. की दूरी पर स्थित हंसाली गांव में मां वैष्णवी के परम भक्त श्रीधर रहते थे। वह नि:संतान होने से दु:खी रहते थे। एक दिन उन्होंने नवरात्रि पूजन के लिए कुँवारी कन्याओं को बुलवाया। माँ वैष्णो कन्या वेश में उन्हीं के बीच आ बैठीं।
पूजन के बाद सभी कन्याएं तो चली गई पर माँ वैष्णो देवी वहीं रहीं और श्रीधर से बोलीं- ‘सबको अपने घर भंडारे का निमंत्रण दे आओ।’ श्रीधर ने उस दिव्य कन्या की बात मान ली और आस – पास के गाँवों में भंडारे का संदेश पहुँचा दिया। वहाँ से लौटकर आते समय गुरु गोरखनाथ व उनके शिष्य बाबा भैरवनाथ जी के साथ उनके दूसरे शिष्यों को भी भोजन का निमंत्रण दिया।
भोजन का निमंत्रण पाकर सभी गांववासी अचंभित थे कि वह कौन सी कन्या है जो इतने सारे लोगों को भोजन करवाना चाहती है? इसके बाद श्रीधर के घर में अनेक गांववासी आकर भोजन के लिए एकत्रित हुए। तब कन्या रुपी माँ वैष्णो देवी ने एक विचित्र पात्र से सभी को भोजन परोसना शुरू किया।
भोजन परोसते हुए जब वह कन्या भैरवनाथ के पास गई। तब उसने कहा कि मैं तो खीर – पूड़ी की जगह मांस भक्षण और मदिरापान करुंगा। तब कन्या रुपी माँ ने उसे समझाया कि यह ब्राह्मण के यहां का भोजन है, इसमें मांसाहार नहीं किया जाता। किंतु भैरवनाथ ने जान – बुझकर अपनी बात पर अड़ा रहा।
जब भैरवनाथ ने उस कन्या को पकडऩा चाहा, तब माँ ने उसके कपट को जान लिया। माँ ने वायु रूप में बदलकरत्रिकूट पर्वत की ओर उड़ चली। भैरवनाथ भी उनके पीछे गया। माना जाता है कि माँ की रक्षा के लिए पवनपुत्र हनुमान भी थे। मान्यता के अनुसार उस वक़्त भी हनुमानजी माता की रक्षा के लिए उनके साथ ही थे।
हनुमानजी को प्यास लगने पर माता ने उनके आग्रह पर धनुष से पहाड़ पर बाण चलाकर एक जलधारा निकाला और उस जल में अपने केश धोए। आज यह पवित्र जलधारा बाणगंगा के नाम से जानी जाती है, जिसके पवित्र जल का पान करने या इससे स्नान करने से श्रद्धालुओं की सारी थकावट और तकलीफें दूर हो जाती हैं।
इस दौरान माता ने एक गुफा में प्रवेश कर नौ माह तक तपस्या की। भैरवनाथ भी उनके पीछे वहां तक आ गया। तब एक साधु ने भैरवनाथ से कहा कि तू जिसे एक कन्या समझ रहा है, वह आदिशक्ति जगदम्बा है। इसलिए उस महाशक्ति का पीछा छोड़ दे।
भैरवनाथ साधु की बात नहीं मानी। तब माता गुफा की दूसरी ओर से मार्ग बनाकर बाहर निकल गईं। यह गुफा आज भी अर्धकुमारी या आदिकुमारी या गर्भजून के नाम से प्रसिद्ध है। अर्धक्वाँरी के पहले माता की चरण पादुका भी है।
यह वह स्थान है, जहाँ माता ने भागते – भागते मुड़कर भैरवनाथ को देखा था। गुफा से बाहर निकल कर कन्या ने देवी का रूप धारण किया। माता ने भैरवनाथ को चेताया और वापस जाने को कहा। फिर भी वह नहीं माना। माता गुफा के भीतर चली गई। तब माता की रक्षा के लिए हनुमानजी ने गुफा के बाहर भैरव से युद्ध किया।
भैरव ने फिर भी हार नहीं मानी जब वीर हनुमान निढाल होने लगे, तब माता वैष्णवी ने महाकाली का रूप लेकर भैरवनाथ का संहार कर दिया। भैरवनाथ का सिर कटकर भवन से 8 किमी दूर त्रिकूट पर्वत की भैरव घाटी में गिरा।
उस स्थान को भैरोनाथ के मंदिर के नाम से जाना जाता है। जिस स्थान पर माँ वैष्णो देवी ने हठी भैरवनाथ का वध किया, वह स्थान पवित्र गुफा’ अथवा ‘भवन के नाम से प्रसिद्ध है। इसी स्थान पर माँ काली (दाएँ), माँ सरस्वती (मध्य) और माँ लक्ष्मी (बाएँ) पिंडी के रूप में गुफा में विराजित हैं।
इन तीनों के सम्मिलत रूप को ही माँ वैष्णो देवी का रूप कहा जाता है। इन तीन भव्य पिण्डियों के साथ कुछ श्रद्धालु भक्तों एव जम्मू कश्मीर के भूतपूर्व नरेशों द्वारा स्थापित मूर्तियाँ एवं यन्त्र इत्यादी है। कहा जाता है कि अपने वध के बाद भैरवनाथ को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और उसने माँ से क्षमादान की भीख माँगी।
माता वैष्णो देवी जानती थीं कि उन पर हमला करने के पीछे भैरव की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की थी, उन्होंने न केवल भैरव को पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति प्रदान की, बल्कि उसे वरदान देते हुए कहा कि मेरे दर्शन तब तक पूरे नहीं माने जाएँगे, जब तक कोई भक्त मेरे बाद तुम्हारे दर्शन नहीं करेगा।
उसी मान्यता के अनुसार आज भी भक्त माता वैष्णो देवी के दर्शन करने के बाद 8 किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़कर भैरवनाथ के दर्शन करने को जाते हैं। इस बीच वैष्णो देवी ने तीन पिंड (सिर) सहित एक चट्टान का आकार ग्रहण किया और सदा के लिए ध्यानमग्न हो गईं। इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो गए।
वे त्रिकुटा पर्वत की ओर उसी रास्ते आगे बढ़े, जो उन्होंने सपने में देखा था, अंततः वे गुफ़ा के द्वार पर पहुंचे, उन्होंने कई विधियों से ‘पिंडों’ की पूजा को अपनी दिनचर्या बना ली, देवी उनकी पूजा से प्रसन्न हुईं, वे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीर्वाद दिया। तब से, श्रीधर और उनके वंशज देवी मां वैष्णो देवी की पूजा करते आ रहे हैं।
माता वैष्णो देवी की अन्य कथा, हिन्दू पौराणिक मान्यताओं में जगत में धर्म की हानि होने और अधर्म की शक्तियों के बढऩे पर आदिशक्ति के सत, रज और तम तीन रूप महासरस्वती, महालक्ष्मी और महादुर्गा ने अपनी सामूहिक बल से धर्म की रक्षा के लिए एक कन्या प्रकट की। यह कन्या त्रेतायुग में भारत के दक्षिणी समुद्री तट रामेश्वर में पण्डित रत्नाकर की पुत्री के रूप में अवतरित हुई।
कई सालों से संतानहीन रत्नाकर ने बच्ची को त्रिकुता नाम दिया, परन्तु भगवान विष्णु के अंश रूप में प्रकट होने के कारण वैष्णवी नाम से विख्यात हुई। लगभग 9 वर्ष की होने पर उस कन्या को जब यह मालूम हुआ है भगवान विष्णु ने भी इस भू-लोक में भगवान श्रीराम के रूप में अवतार लिया है। तब वह भगवान श्रीराम को पति मानकर उनको पाने के लिए कठोर तप करने लगी।
जब श्रीराम सीता हरण के बाद सीता की खोज करते हुए रामेश्वर पहुंचे। तब समुद्र तट पर ध्यानमग्र कन्या को देखा। उस कन्या ने भगवान श्रीराम से उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करने को कहा। भगवान श्रीराम ने उस कन्या से कहा कि उन्होंने इस जन्म में सीता से विवाह कर एक पत्नीव्रत का प्रण लिया है।
किंतु कलियुग में मैं कल्कि अवतार लूंगा और तुम्हें अपनी पत्नी रूप में स्वीकार करुंगा। उस समय तक तुम हिमालय स्थित त्रिकूट पर्वत की श्रेणी में जाकर तप करो और भक्तों के कष्ट और दु:खों का नाश कर जगत कल्याण करती रहो।
संजय गुप्ता
जब श्री राम ने रावण के विरुद्ध विजय प्राप्त किया तब मां ने नवरात्रमनाने का निर्णय लिया। इसलिए उक्त संदर्भ में लोग, नवरात्र के 9 दिनों की अवधि में रामायण का पाठ करते हैं।
श्री राम ने वचन दिया था कि समस्त संसार द्वारा मां वैष्णो देवी की स्तुति गाई जाएगी, त्रिकुटा, वैष्णो देवी के रूप में प्रसिद्ध होंगी और सदा के लिए अमर हो जाएंगी।
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[03/04, 08:53] Morni कृष्ण मेहता: वास्तुशास्त्र के अनुसार 8 गलतियां जिनसे होता है धन का नुकसान, रहते हैं लोग परेशान
कभी अचानक से ही धन की हानि होने लगती है। तो कभी सबकुछ अच्छा-भला चल रहा होता है कि किसी दिन कोई अचानक ही बीमार पड़ जाए तो फिर पता हीं नहीं चलता कि धन कहां खर्च हो रहा है लेकिन संग्रह के नाम पर केवल खर्च ही खर्च नजर आता है। आपने सोचा है कि ये सारी परेशानियां क्यों अचानक से आ जाती हैं? दरअसल कुछ भी अचानक से नहीं होता। वास्तुशास्त्र के मुताबिक अंजाने में की गई हमारी छोटी-छोटी गल्तियां ही हमारे जीवन में परेशानियां लेकर आती हैं। ऐसे में जरूरी है कि अंजाने में होने वाली इन गल्तियों को नजरअंदाज न करें बल्कि इनमें सुधार कर लें ताकि न हो धन का नुकसान…
1यहां कभी न रखें झाड़ू
घर में जिस जगह पर भी आप धन या कीमती वस्तुओं को रखते हैं। उस जगह के आसपास झाड़ू न रखें। इससे धन की हानि होती है।
2किचन में भूले से भी न रखें दवाई
घर के किचन में कभी भी भूले से दवाई न रखें। वास्तु कहता है कि इससे घर के सदस्यों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।
3 बंद रखें इनके दरवाजें
वास्तु शास्त्र कहता है कि टॉयलेट और बाथरूम के दरवाजें कभी भी खुले न छोड़े। साथ ही इन्हें बंद करते वक्त भी ध्यान रखें कि अधिक आवाज न आए। अन्यथा पारिवारिक व व्यावसायिक मामलों में नुकसान उठाना पड़ सकता है।
4लकीरें बढ़ाती हैं समस्याएं
अक्सर देखा गया है कि घर की दीवारों और फर्श पर बच्चे पेंसिल, चॉक या फिर पेन से लकीरें बना देते हैं। वास्तु कहता है कि इससे खर्च और उधार बढ़ता है। 5दक्षिण दिशा में न रखें ये मूर्ती
घर की दक्षिण दिशा में कभी भी पानी से संबंधित कोई भी मूर्ति या फिर शोपीस नहीं रखनी चाहिए। इससे आय की अपेक्षा व्यय बढ़ जाते हैं।
6 बेडरूम में न रखें भगवान की तस्वीरें
वास्तु कहता है कि कभी भी बेडरूम में भगवान की फोटो नहीं लगानी चाहिए। इसके अलावा इस बात का खास ख्याल रखें कि बेडरूम में कभी भी हनुमान जी की कोई फोटो या फिर मूर्ति न रखें।
7कांटेदार या विषैले पौधे न लगाएं
घर में कांटेदार या विषैले पौधे नहीं लगाने चाहिए। वास्तु शास्त्र कहता है कि इस तरह के पौधों से घर में अशांति का माहौल बनता है। इससे मानसिक तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। 8 उत्तर-पूर्व दिशा में साफ-सफाई
वास्तु शास्त्र के मुताबिक उत्तर-पूर्व दिशा में साफ-सफाई का ख्याल रखें। इस दिशा में गंदगी होने से मां लक्ष्मी और भगवान विष्णु नाराज हो जाते हैं। इससे लक्ष्मी की हानि होती है। धन संचय में भी परेशानियां आती है।
[03/04, 08:53] Morni कृष्ण मेहता: हर कार्य हमारे अनुकूल नहीं होता
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महाराज दशरथ जी जिनके प्रेम वश स्वयं परमात्मा सअंश पुत्र बनकर भूलोक पर आए किन्तु उनको श्रवण कुमार के माता पिता के श्राप से बचा नहीं पाए।
उनकी इच्छा थी..नरक परऊ बरू सुरपुर जाऊँ...सब दुख दुसह सहावहु मोही।लोचन ओट राम जनि होहीं।।
हे प्रभु! मुझे सब दुख दे दीजिए किन्तु श्रीराम वियोग नहीं!
किन्तु वियोग हुआ।
शंकर जी से श्रीराम जी को शील स्वभाव त्याग कर वन न जाने की प्रार्थना करते हैं किन्तु श्रीराम जी के पिता की विनती अमान्य हुआ।
तुम्ह प्रेरक सबके हृदयँ सो मति रामहिं देहु।
बचनु मोर तजि रहहिं घर परिहरि सीलु सनेहु।।
वे अवढर दानी शंकर जी दशरथ प्रार्थना अमान्य कर देते हैं।
"उदय करहुँ जनि " कहकर सूर्य से सूर्योदय न होने की प्रार्थना किए परंतु भावी प्रबल रही।
अयोध्या वासी को श्रीराम राज्याभिषेक सुनकर रात भर नींद नहीं पड़ी और ब्रह्म मुहूर्त में ही श्रीराम राज्याभिषेक देखने हेतु राज दरबार पहुँच गए किन्तु श्रीराम राज्याभिषेक नहीं श्रीराम वनवास देखने को मिला।
श्रीराम राज्याभिषेक सुनकर बंदी,भाट आदि शंख,बाजे आदि बजा कर दशरथ गुणगान कर रहे थे किन्तु उल्टा हुआ...सुनत नृपहि जनु लागत सायक।
जो सुबह राम राज्याभिषेक देखने हेतु रात भर सोए नहीं थे कि .कनक सिंहासन सिय समेता...सुबह सीताराम जी को सोने के सिंहासन पर विराजमान देखूंगा किन्तु उन्हें श्रीराम जी को सीता लखन समेत तपस्वी वेष में देखना पड़ा।..देखि लोग जहँ तहँ बिलखाहीं ।
किन्तु इस दुख की घड़ी में भी धीरे वीर प्रसन्न हैं...
ना मम्ले वनवास दुखतः।
वे राज्याभिषेक न होकर वनवास मिलने पर भी देनेवाली से ही कहते हैं..
मुनिगन मिलन बिसेषि वन सबहिं भाँति हित मोर...।
प्रजा को कहना पड़ता है...
का सुनाई बिधि काह सुनावा?।का देखाइ चह का देखावा??।।
यानी हर चीज हमारे अनुकूल होना संभव नहीं है।
(छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई)
सीताराम जय सीताराम
सीताराम जय सीताराम...
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