**राधास्वामी!!
15-06-2020-
आज शाम के सतसंग में पढे गये पाठ-
(1) ऋतु बसंत आये सतगुरू जग में। चलो चरनन पर सीस धरो री।।(प्रेमबानी-3-शब्द-3,पृ.सं.283)
(2) पाती भेजूँ पीव को प्रेम प्रीति सों साज। छिमा माँग बिनती कहूँ सुनिये पति महाराज।। हे स्वामी इक और भी सुनिये। जल अग्नी का लेखा गुनिये।। (प्रेमबिलास-शब्द-129, पृ.सं. 193)
(3) यथार्थ प्रकाश-भाग पहला-कल से आगे।।
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
**राधास्वामी!!
15-06 - 2020
- आज शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन- कल से आगे :-
【सुमिरन और ध्यान】-
( 21) सुमिरन और ध्यान की युक्तियाँ, जो राधास्वामी-मत में प्रचलित है, कोई नई नहीं है । प्राचीन काल से उनका प्रचार चला आता है। पातन्जल- योगसूत्रों में भी इनका वर्णन है पर युक्तियों की कमाई बिना सच्चे अनुराग और सहज वैराग्य के असंभव है।वैसे हजारों लाखों मनुष्य अपनी अपनी रीति से जप करते हुए दिखाई देते हैं पर आम तौर कोई जिव्हा से जप करता है, कोई हृदय से। जिव्हा से जप करना सुमिरनन की सबसे घटिया रीति है।
हृदय से जप जिव्हा के जप से उत्तम है, पर इससे भी केवल ह्रदय की शुद्धता प्राप्त होती है, आध्यात्मिक शक्ति पर जो कोई प्रभाव नहीं पड़ता । और जोकि परमार्थी का असली उद्देश्य अपनी आध्यात्मिक शक्ति का जगाना है इसलिये उस उद्देश्य के विचार से यह विधि भी निरर्थक है । सुमिरन की असली विधि एक गुप्त रहस्य है जो गुरु- परंपरा- द्वारा शिष्य को प्राप्त होता आया है। ख्वाजा फरीदुद्दीन अत्तार का बचन है -
जिक्र बर सह वजह आमद बेखिलाफ। तू दानी ई सखुन रा अज गजाफ।। आम रा न बुवद जुज जिक्रे जुबाँ। जिक्र खासाँ बाशद अज दिल बे गुभाँ।। जिक्रे खासुल्खास जिक्रे सिर बुवद। हर कि जाकिर नेस्त ओ खासिर शुवद।। खांदने कुरआँ बुवद जिक्रे लसाँ। हर करा ई नेस्त बुवद अज मुफलिसाँ।।
अर्थ:-निसःन्देह सुमिरन की तीन रीतियाँ है पर तुम इस बात की परवाह नही करते। जब तुम्हे यह बात समझाई जाती है तुम मूर्खतावश उसकी तह तक नहीं पहुँचते। तुम्हारा विचार है कि सुमिरन की एक ही विधी है (१)। साधारण लोग तो केवल जीव्हा से सुमिरन करते हैं और खास खास लोग निसःन्देह जिव्हा के बदले हृदय से करते है(२)।
पर चुने हुए लोग एक गुप्त रीति से सुमिरन करते हैं। जो मनुष्य सुमिरन नहीं करता वह अपनी हानि करता है(३)। कुरआमजीद का पाठ जिव्हा का सुमिरन है । जो यह भी नहीं करता निरा कंगाल है।।
🙏🏻राधास्वामी🙏🏻
यथार्थ प्रकाश- भाग पहला-
परम हुजूर गुरु साहबजी महाराज!**
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