आप समझते है सुबह उठे मन्दिर चले गए, पांच मिनिट किताब पढ़ ली, थोड़ी देर ज्ञान की बाते कर ली और आप समझते हो प्रार्थना हो गई, भक्ति हो गई।
प्रार्थना व भक्ति इतनी सस्ती भी नही है कि आप सुबह उठ कर मन्दिर चल दिये, किताब पढ़ ली और ज्ञान की बाते कर ली और यह सब होने व करने से प्रार्थना हो जाये, भक्ति हो जाये और यह कोई प्रार्थना भी नही है और ना ही भक्ति है।
यह तो आप ने तरकीब सोच रखी है स्वयं को समझाने के लिए, स्वयं को सांत्वना देने के लिए की आप इस प्रकार से भी स्वयं को बेवकूफ बना सकते है, उस परमसत्ता, उस परमात्मा को नही, क्योंकि परमात्मा आपके झांसे में नही आने वाला इस प्रकार की तरकीबो से, स्वयं के अलावा।
परमात्मा सब जानता है, सब पता है उसे की आप दिन में कितने मुखोटों के द्वारा अपने आप को छिपाते रहते है, अलग अलग रूप में, आपका अपना एक जो मुखोटा होना चाहिए सरल स्वभाव का, वह तो है ही नही।
प्रार्थना और भक्ति तो चौबीस घण्टे उसी प्रार्थना व भक्ति में रमने का कृत्य भाव है, कोई पांच दस मिनिट के भावों से उस परमसत्ता की प्रार्थना व भक्ति नही हो सकेगी।
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