’परम गुरु मेहताजी महाराज के बचन’ भाग-2 से बचन नं. 130 पढ़ने की हिदायत दी गई। फ़रमाया कि उसका आख़िरी पैराग्राफ़ बहुत महत्वपूर्ण (important) है। वह इस प्रकार है-
’’अगर कोई मनुष्य अपने आपको इस तरीक़े के मुताबिक़ जिसका कि ज़िक्र ऊपर किया गया है स्वभाव से और इरादे से किफ़ायतशार बनाने की कोशिश करता है और वह अपनी साँस और निगाह को जाया नहीं करता यानी वह एक भी ऐसा साँस नही लेता जिसके साथ-साथ पवित्र नाम का जाप नहीं करता और एक भी निगाह किसी चीज़ पर नहीं डालता बग़ैर यह महसूस किये कि वह कुल मालिक की बनाई हुई है और आँख बन्द करने पर उसी मालिक का ध्यान करता है, तो इस तरह से प्रकृति और कुल मालिक के साथ अनुकूलता व एकता करता है। ऐसी दशा में वह बीच की सारी मंज़िलें चाहे कितनी ही कठिन व दुर्गम हों तय करके अन्त में अपनी मंज़िल यानी राधास्वामी धाम में आसानी से पहुँच जाता है, जहाँ पर पहुँच जाने के बाद वह अपनी सख़्त मेहनत व मशक्कत और मितव्ययिता के मीठे और स्वादिष्ट फल खाता है यानी अमृत पान करता है और पूरी तरह से हुज़ूर राधास्वामी दयाल के साथ एक हो जाता है।’’
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