Sunday, February 7, 2021

 **राधास्वामी!!* 

*07-02-2021-आज शाम सतसंग में पढे गये पाठ:- [सतसंग से पहले-ऐ सतगुरु पिता और मालिक मेरे।।(कव्वाली)पढी गई।]                                                        (1) माया रुप नवीन धार कर। सतसँग में आई।। मान भरे रही बोल बचन। अहंकार चित में छाई।। मैं आऊँ मैं आऊँ मैं आऊँ शोर मचाई।।-(प्रेमी जन अस देख हालः सुमिरन में लौ लाई।। राधास्वामी नाम सम्हार। जाल को दीन्हा तुडवाई।। काल रहा अब झूर रही माया भी मुरझाई।।(प्रेमबानी-4-शब्द-17 पृ.सं.103,104)                                                     (2) आज साहब घर मंगलकारी। गाय रही सखियाँ मिल सारी।।-(प्रेमभरी मेरी सुरत सुहागिन। गाय रही राधास्वामी गुन सारी।।) (प्रेमबिलास-1--शब्द-पहला मंगल-पृ.सं.5)                                                                       (3) यथार्थ प्रकाश-भाग दूसरा-कल से आगे।।                           🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**

**राधास्वामी!! 07-02- 2021- आज शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन- परसों से आगे -(145)- अब श्री ग्रंथ साहब का भी एक शब्द अवलोकन कीजिये। देखिए गुरु महाराज के सुचारू रूप में अपने भावों को प्रकट करते हैं:-                                                फुनहे- महल्ला -५ :-                                                                            हाथ कलम अगम्म मस्तक लेखावती। उरझ रह्यों सब संग अनूप रुपावती।।                                                    अस्तुत कहन न जाइ मुखों तोहिरिया। मोहि देख दरस नानक बलिहारिया।।१।।                                                             संत सभा मह बैस कि कीरत मैं कहाँ। अरपी सब सिंगार एह जीव सब दिवाँ।।                                                            आस पियासी सेज सू कन्त बिछाइये। हरे हाँ मस्तक होवे भाग ता साजन पाइये।।२।।                                                           सखी काजल हार तंबोल सभे कुछ साजिया। सोलह किये सिंगार अंजन पाजिया।। जे घर आवे कंत ता सब कुछ पाइये। हरे हाँ कन्ते बाझ सिंगार सब बिरथा जाइये।।३।।                                                     जिस घर वस्या कन्त सा बडभागने।तिस बनया सब सिंगार साई सुहागने।। हौं सुत्ती होए अचिंत मन आस पुराइया। हरे हाँ जाँ घर आया कंत ता सब कुछ पाइया।।४।।                                                        आसा इति आस कि आस पुराइये। सतगुरु भये दयाल ता पूरा पाइये। मैं तन औगुन बहुत कि औगुन छाइया। हरे हाँ सतगुरु भये दयाल ता मन ठहराइये।।५।।                                                            कहु नानक बेअन्त बेअन्त धियाइया। दूतर यह संसार सतगुरू तराइया।। मिटिया आवागवन जाँ पूरा पाइया। हरे हाँ अमृत हर का नाम सतगुरू के पाइया।।६।।                    भावार्थ:- जगत के चित्रकार की अगम शक्ति के हाथ में लेखनी है। मनुष्य के मस्तिक की तख्ती बनी है और वह अनूप रूप (सुंदर स्वरूप) सबके अंदर व्यापक है।  हे जगत् के चित्रकार! मैं आपकी स्तुति मुख से कैसे करूँ यह दासी(गुरु महाराज) आपका स्वरूप देख कर मोहित हो रही है और आपके बलिहारी हैं (१)।                                सज्जनों की सभा में बैठकर मैं आपके गुण गाती हूँ और सब श्रृंगार और अपना जान- प्राण तुम पर निछावर करती हूँ। हे मेरे प्रीतम! मैं आशा की प्यासी हूँ।  आपके लिए सेज बिछाती हूँ  पर उससे क्या लाभ? यदि भाग्य में लिखा हो तभी तो साजन ( आप) से मिलाप हो सकता है (२)।                                हे सखी! मैंने इन आँखों में काजल लगाया, सुर्मा लगाया, गले में हार पहिना, पान खाया, कहाँ तक कहूँ सोलहो श्रृंगार किये पर उस प्रीतम के मेरे घर आने ही से मेरा श्रम सफल हो सकता है। उनके बिना सभी श्रृंगार बृथा होंगे (३)।                                                           जिसके घर वह कंत निवास करता है वही बड़भागिन है। उसी का श्रृंगार ठीक है और वही सोहागिन है। मैं अब अचिंत अर्थात् बेफिक्र होकर सोती हूँ क्योंकि उस कंत ने मेरी आशा पूर्ण कर दी। अरे हाँ जब कंत घर आ जाता है तो सभी आशाएँ पूर्ण हो जाती हैं (४)।                                                       मैंने इतनी ही आशा लगा रक्खी थी कि मन की आशा पूरी हो जाय। जब सतगुरु की कृपा हुई तब उस पूर्ण पुरुष (सच्चे मालिक) से मिलाप हो गया। मेरे तन में दोष बहुत है। मेरा तन अवगुणों से भरा है किंतु जब सतगुरु दयाल हुए तो सब दोषो के होते हुए भी मन स्थिर हो गया (५)।                                                              नानक साहब कहते हैं कि मैंने उस बेअन्त (अपार पुरुष) का बेअन्त (बेहद) ध्यान किया। यह संसार-सागर अत्यंत दुस्तर है किंतु सतगुरु ने कृपा करके पार करा दिया। उस पूर्ण पुरुष से मिलाप होने पर आवागमन का चक्कर छूट गया, जब सतगुरु के प्रसाद से मालिक का अमृतरूपी नाम प्राप्त हुआ (६) । इत्यादि!**

*( 146)- क्या हमारे आक्षेपक भाई यह कहने का साहस करेंगे कि मीराबाई और गुरु अर्जुन साहब की भी नियत कुछ और थी?  और यदि वे साहस करेंगे तो हमें यही कहना होगा कि तुम बड़े अभागे हो। सच्चे भक्तों और मालिक के प्यारों में व्यर्थ दोष देखना महापाप है। जरा सोच समझ कर अपना मुँह खोलो।।।                                                         🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻 यथार्थ प्रकाश- भाग दूसरा- परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज!**

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