**परम गुरु हुजूर महाराज- प्रेम पत्र - (भाग 1) -{8}:-
【भेद मत का】
:- जिसने मत की दुनियाँ में जारी है सबका मतलब यह है कि मुक्ति या नजात हासिल हो। मुक्ति बंधन और जन्म मरण से छूटने और परम आनंद को प्राप्त होने को कहते है। इसके वास्ते उपाय करना जरुरी है कि कौन जुगत और तरतीब करके जीव को यह बात प्राप्त हो सकती है। दुनियाँ में जो जो सुख कि उम्र भर करके हासिल होते हैं सब नाशवान हैं। संत कहते हैं कि ऐसा देश भी है कि जहां अमर सुख और अमर आनंद है ।यहां इस लोक में दुख सुख मिला हुआ है । अगर चैतन्य आनंद स्वरूप है, पर उस पर माया के गिलाफ चढे हुए हैं। उनमें बंधन करके दुख सुख होता है। जैसे जागृत में देह का बंधन करके दुख सुख मालूम होता है पर स्वपन में जो कि सुरत की धार देह के मुकाम से किसी कदर हट जाती है, तो इस देह का दुख सुख मालूम नहीं होता। संत कहते हैं कि ऐसी तरकीब चाहिए कि गिलाफो के बंधन से रिहाई हो जावे। सब मतों में किसी न किसी सूरत की नकल की पूजा बताते हैं या किसी निशान की पूजा या पोधी वगैरह की, जैसे नानकपंथी ग्रंथ को गुरु मानते हैं । इसमें सुरत यानी जीव की तवज्जह बाहर मुखी रहती है और निज घर का पता और भेद नहीं मिलता। इस सबब से वहां सच्ची मोक्ष हासिल होने का रास्ता जाहिरा कोई मालूम नहीं होता है। और वास्ते हासिल होने सच्चे उद्धार या मुक्ति के जरूर है कि ऐसी तरकीब मालूम होना चाहिए की जिससे सुरत यानी रूह का भंडार की तरफ लौटना होवे।। सुरत का देह में दिमाग की तरफ से आना और मरते वक्त उसी तरफ ऊपर को खिंच जाना इन आंखों से साफ दिखाई देता है। और सब कहते हैं कि मालिक सब जगह है और जीव उसकी अंश है। वह मालिक आनंद स्वरूप है और जीव जो उसकी अंश है यह भी आनंद स्वरूप है ,यानी जीव एक किरण उसी आनंद स्वरूप सुरत यानी भंडार की है । पर इसका उस भंडार से जुदा होकर इस दुनिया में जड़ पदार्थों के साथ मुहब्बत करके बंधन हो गया है । और जितना कि स्वाद रस और मजा है सब सुरत की धार का है। इसकी धार जिस इंद्री के मुकाम पर आती है तब उस इंद्री के भोग का रस और मजा मालूम होता है । इससे जाहिरा है कि सब रस और मजे और स्वाद और आनंद इसी चैतन्य में है और जिस जिस में जिस कदर कि रुह चैतन्य की धार है उसी कदर और आनंद है। क्रमशः🙏🏻 राधास्वामी**
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