Monday, February 17, 2020

राधास्वामी मत संदेश / खुलासा कुलबचन का





राधास्वामी मत संदेश

(परम गुरु हुज़ूर महाराज)

ख़ुलासा कुल बचन का

         130- जोकि यह बचन बहुत तूल यानी लम्बा हो गया है, इस वास्ते मुनासिब है कि इसका ख़ुलासा थोड़ी दफ़ों में लिख दिया जावे, ताकि असली मतलब इस बचन का पढ़ने वालों की समझ में जल्द आ जावे और थोड़ा बहुत याद रहे।

         (1) राधास्वामी मत सत्त मत है।

         (2) राधास्वामी नाम कुल और सच्चे मालिक का नाम है।

         (3) यह नाम किसी ने नहीं धरा। इसकी धुन आप हर एक स्थान पर हो रही है, यानी यह धुन्यात्मक नाम है और इसको संत और साध जन और प्रेमी अभ्यासी सुनते हैं।

         (4) राधा नाम आदि धार का है, जो कुल मालिक यानी स्वामी के चरन से निकली। और स्वामी नाम शब्द का है, जिसमें से धुन या धार निकली और वही धुन या धार सुरत है। इस वास्ते राधास्वामी नाम के अर्थ सुरत शब्द के समझने चाहिए।

         (5) जब तक कोई इस नाम को मय इसके भेद के अपने हिरदे में नहीं बसावेगा, तब तक उसको अभ्यास में मदद पूरे तौर से नहीं मिलेगी और न धुर मुक़ाम तक का रास्ता निर्विघ्न तै कर सकेगा।

         (6) आदि धार जो राधास्वामी दयाल कुल मालिक के चरनों से निकली, वही नूर और जान और शब्द की धार है और उसी ने जगह जगह ठहर कर और मंडल बाँध कर सत्तलोक तक रचना करी। और फिर वहाँ से दो धारों ने, यानी निरंजन ज्योति ने उतर कर ब्रह्मांड की रचना, और सहसदलकँवल से तीन धारों ने (जिनको सतोगुन, रजोगुण और तमोगुन कहते हैं) उतर कर पिंड देश की रचना करी। ख़ुलासा यह है कि कुल रचना शब्द की धार ने करी है, और शब्द ही कुल मालिक का प्रथम ज़हूर यानी प्रकाश है और सब जगह शब्द ही चैतन्य का निशान और ज़हूरा है।

         (7) शब्द की धुन या धार का नाम सुरत है और यह दोनों, यानी सुरत और शब्द, कुल रचना और उसकी काररवाई कर रहे हैं।

         (8) इस लोक में भी कुल काम शब्द (यानी बोलने वाला) और सुरत (यानी सुनने वाला) कर रहे हैं।

         (9) जब बच्चा पैदा होता है और उसने शब्द किया, यानी रोया, तो ज़िंदा है और जब तक आदमी बोलता है तो ज़िंदा है, नहीं तो मुर्दा है।

         (10) सुरत की धार उतर कर दोनों आँखों के मध्य में अंदर की तरफ़ छटे चक्र के स्थान पर इस जिस्म यानी देह में ठहरी है, और वहीं से दो धार हो कर दोनों आँखों में, जाग्रत के वक़्त, बैठकर इस लोक में मन और इंद्रियों के वसीले से काररवाई करती है।

         (11) सुरत चैतन्य सत्तपुरुष राधास्वामी दयाल की अंश है और मन निरंजन यानी काल पुरुष या ब्रह्म की अंश है और इंद्रियाँ और देह माया की अंश हैं, यानी उसके मसाले से बनी हुई हैं।

         (12) आँखों के स्थान से सुरत की धार को घर की तरफ़, यानी कुल मालिक राधास्वामी दयाल के चरनों में, बिरह और प्रेम अंग लेकर उलटाना चाहिए। तब सच्चा और पूरा उद्धार होगा और इसी काररवाई का नाम सच्चा परमार्थ है।

         (13) इसी उलटाने को सुरत शब्द का अभ्यास कहते हैं, और असली मतलब राधास्वामी मत का यही है कि जीव यानी सुरत को, जो सत्तपुरुष राधास्वामी दयाल के चरनों से जुगानजुग से जुदा हो गई है और यहाँ देह और मन और इंद्रियों का संग करके दुख सुख भोग रही है, फिर उलटा कर उसके निज घर में, जो महा प्रेम और महा आनंद का आदि भंडार है और जहाँ काल क्लेश और माया का बीज भी नहीं है, पहुँचाना ताकि अमर अजर और महा सुखी हो जावे और जन्म मरण और देहियों के दुख सुख के क्लेश से उसका हमेशा को बचाव हो जावे।

                            (क्रमशः)

प्रस्तुति - आभा श्रीवास्तव / दीपा शरण



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