🌹 *क्यों कोसता है खुद को* 🌹
संतों की एक सभा चल रही थी। किसी ने एक दिन एक घड़े में गंगाजल भरकर वहां रखवा दिया, ताकि संत जन को जब प्यास लगे, तो गंगाजल पी सकें। संतों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था। उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा, तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे।
वह सोचने लगा- अहा ! यह घड़ा कितना भाग्यशाली है? एक तो इसमें किसी तालाब-पोखर का नहीं, बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब संतों के काम आयेगा। संतों का स्पर्श
मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा। ऐसी किस्मत किसी-किसी की ही होती है।
घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा- बंधु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य में पड़ा सिर्फ मिट्टी का ढ़ेर था। किसी काम का नहीं था। कभी ऐसा नहीं लगता था कि भगवान ने हमारे साथ न्याय किया है। फिर एक दिन एक कुम्हार आया, उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और मुझे बोरी में भर कर खच्चर पर लादकर अपने घर ले गया।
वहां ले जाकर हमको उसने खूब रौंदा, फिर पानी डाल कर गूंथा, चाक पर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, फिर थापी मार-मारकर बराबर किया। बात यहीं नहीं रूकी, उसके बाद आंवे की आग में झोंक दिया जलने
को।
इतने कष्ट सहकर बाहर निकला, तो फिर खच्चर पर लादकर उसने मुझे बाजार में बेजने के लिए लाया गया। वहां भी लोग मुझे ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं?
ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या- बस 20 से 30 रुपये। मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था। रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो। मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है क्या।
लेकिन ईश्वर की योजना कुछ और ही थी, किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगा जल भरकर संतों की सभा में भेज दिया, तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी उसकी कृपा थी। उसका मुझे वह गूंथना भी उसकी कृपा थी। मुझे आग में जलाना भी उसकी मौज थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाने में भी उसकी ही मौज थी। अब मालूम पड़ा कि मुझ पर वह सब उस परमात्मा की कृपा ही कृपा थी।
दरअसल, बुरी परिस्थितियां हमें इतनी विचलित कर देती हैं कि हम उस परमात्मा के अस्तित्व पर ही प्रश्न उठाने लगते हैं और खुद को कोसने लगते हैं, क्योंकि हम सब में शक्ति नहीं होती उसकी लीला समझने की।
कई बार हमारे साथ भी ऐसा ही होता है। हम खुद को कोसने के साथ परमात्मा पर उंगली उठाकर कहते हैं कि उसने मेरे साथ ही ऐसा क्यों किया! क्या मैं इतना बुरा हूँ? और मालिक ने सारे दुःख-तकलीफ़ें मुझे ही क्यों दिए।
*लेकिन सच तो ये है कि मालिक ने उन तमाम पत्थरों की भीड़ में से तराशने के लिए एक आप को चुना। अब तराशने में थोड़ी तकलीफ तो झेलनी ही पड़ती है।*
प्रस्तुति - ममता शरण / कृति शरण
संतों की एक सभा चल रही थी। किसी ने एक दिन एक घड़े में गंगाजल भरकर वहां रखवा दिया, ताकि संत जन को जब प्यास लगे, तो गंगाजल पी सकें। संतों की उस सभा के बाहर एक व्यक्ति खड़ा था। उसने गंगाजल से भरे घड़े को देखा, तो उसे तरह-तरह के विचार आने लगे।
वह सोचने लगा- अहा ! यह घड़ा कितना भाग्यशाली है? एक तो इसमें किसी तालाब-पोखर का नहीं, बल्कि गंगाजल भरा गया और दूसरे यह अब संतों के काम आयेगा। संतों का स्पर्श
मिलेगा, उनकी सेवा का अवसर मिलेगा। ऐसी किस्मत किसी-किसी की ही होती है।
घड़े ने उसके मन के भाव पढ़ लिए और घड़ा बोल पड़ा- बंधु मैं तो मिट्टी के रूप में शून्य में पड़ा सिर्फ मिट्टी का ढ़ेर था। किसी काम का नहीं था। कभी ऐसा नहीं लगता था कि भगवान ने हमारे साथ न्याय किया है। फिर एक दिन एक कुम्हार आया, उसने फावड़ा मार-मारकर हमको खोदा और मुझे बोरी में भर कर खच्चर पर लादकर अपने घर ले गया।
वहां ले जाकर हमको उसने खूब रौंदा, फिर पानी डाल कर गूंथा, चाक पर चढ़ाकर तेजी से घुमाया, फिर गला काटा, फिर थापी मार-मारकर बराबर किया। बात यहीं नहीं रूकी, उसके बाद आंवे की आग में झोंक दिया जलने
को।
इतने कष्ट सहकर बाहर निकला, तो फिर खच्चर पर लादकर उसने मुझे बाजार में बेजने के लिए लाया गया। वहां भी लोग मुझे ठोक-ठोककर देख रहे थे कि ठीक है कि नहीं?
ठोकने-पीटने के बाद मेरी कीमत लगायी भी तो क्या- बस 20 से 30 रुपये। मैं तो पल-पल यही सोचता रहा कि हे ईश्वर सारे अन्याय मेरे ही साथ करना था। रोज एक नया कष्ट एक नई पीड़ा देते हो। मेरे साथ बस अन्याय ही अन्याय होना लिखा है क्या।
लेकिन ईश्वर की योजना कुछ और ही थी, किसी सज्जन ने मुझे खरीद लिया और जब मुझमें गंगा जल भरकर संतों की सभा में भेज दिया, तब मुझे आभास हुआ कि कुम्हार का वह फावड़ा चलाना भी उसकी कृपा थी। उसका मुझे वह गूंथना भी उसकी कृपा थी। मुझे आग में जलाना भी उसकी मौज थी और बाजार में लोगों के द्वारा ठोके जाने में भी उसकी ही मौज थी। अब मालूम पड़ा कि मुझ पर वह सब उस परमात्मा की कृपा ही कृपा थी।
दरअसल, बुरी परिस्थितियां हमें इतनी विचलित कर देती हैं कि हम उस परमात्मा के अस्तित्व पर ही प्रश्न उठाने लगते हैं और खुद को कोसने लगते हैं, क्योंकि हम सब में शक्ति नहीं होती उसकी लीला समझने की।
कई बार हमारे साथ भी ऐसा ही होता है। हम खुद को कोसने के साथ परमात्मा पर उंगली उठाकर कहते हैं कि उसने मेरे साथ ही ऐसा क्यों किया! क्या मैं इतना बुरा हूँ? और मालिक ने सारे दुःख-तकलीफ़ें मुझे ही क्यों दिए।
*लेकिन सच तो ये है कि मालिक ने उन तमाम पत्थरों की भीड़ में से तराशने के लिए एक आप को चुना। अब तराशने में थोड़ी तकलीफ तो झेलनी ही पड़ती है।*
प्रस्तुति - ममता शरण / कृति शरण
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