प्रस्तुति - कृष्ण मेहता:
"शब्दों" की उर्जा मन को प्रभावित कर तन को गति देती है। शब्द ही हैं जो गाली का संचार करके वैमनस्य पैदा कर देते हैं और शब्द ही हैं जिनसे मन-मानस में शान्ति/शक्ति का प्रवहन होता है। सांसारिक सभी कार्य शब्दों से संचालित होते हैं। ऐसा नहीं कि हमारे शब्द केवल दूसरों को ही प्रभावित करते हैं, हम स्वयं, दूसरों के मुकाबले, उनसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। दूसरों को तो हम कभी/कहीं परिस्थितिवश कहते हैं, लेकिन *किसी को कुछ कहने से, बहुत पहले और बाद में भी, बार-बार हम उन शब्दों को मंत्रवत (मन ही मन) जुगाली करते रहते हैं। बुरे शब्दों का प्रयोग करने से हममें आसुरी शक्तियां जाग्रत होकर मानसिक उर्जा का नाश करती हैं और अच्छे शब्दों के प्रयोग से हममें ही दैविक (दिव्य) शक्तियां जाग्रत होती हैं। जिस प्रकार तीली दूसरे को जलाने से पूर्व स्वयं जलती है, इसी प्रकार हम भी अपना बुरा या भला करते हैं। साथ ही हमारा बोलना/सोचना/विचारना, यंत्रवत/नाटकीय न होकर वास्तविक और होशपूर्ण हो, क्योंकि ये हमारे तन-मन-जीवन को बनाने/बिगाड़ने में सहयोगी होते हैं।*
सुप्रभात -आज का दिन शुभ व मंगलमय हो।
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हम सब करने/न करने के बोझ से भरे हैं कि हम दूसरों के लिए क्या/कैसे/कितना कर रहे हैं और दूसरे हमें समझते/मानते/महत्व नहीं देते। यह पीड़ा, हमारे करने और उसकी सुखद सन्तुष्टि से हमें वंचित कर देती है। साथ ही हमारी क्षमता भी प्रभावित होने लगती है। कभी वृद्धों/बड़े-बूढ़ों की बातों को ध्यान से सुनें, तो निष्कर्ष यही मिलेगा कि "हमने बहुत किया, पर लोग हमें मानते नहीं"। *हमारा ध्यान कृत्य करने और उसके आनन्द की ओर न होकर, दूसरों की आंख में अपनी अहमियत को ढूंढने में है, तो हम अपने को केवल दुखी/निराश/व्यथित/हारे हुए ही पायेंगे। हम कुछ भी/कैसा भी/किसी के लिए भी करते हों, निखारते/बनाते अपने ही जीवन/ऊर्जा/भविष्य को हैं। दूसरे हमारी ऊर्जा को कृत्य में बदलने (convert) करने का माध्यम भर हैं। इसका सरल शब्दों में अर्थ है कि हमने आज तक किसी के लिए कुछ नहीं किया। अपनी ऊर्जा से (किसी के नाम पर) अच्छा किया तो अपने को अच्छे की तरफ प्रवाहित किया और बुरा किया तो अपनी ऊर्जा को बुरी दिशा की ओर अग्रसर किया। दूसरे से अपने ध्यान को हटाने मात्र से, हम अपनी जीवन-शैली के प्रति जागरूक हो जाते हैं। फिर हम चाहकर भी "बुरा" कर नहीं सकते। हमारी दृष्टि यदि दूसरे पर है, तो हमारे जीवन का, सदा निराशा/हताशा में ही डूबते-उतराते रहना निश्चित है।* सुप्रभात -आज का दिन शुभ व मंगलमय हो।
आज का भगवद् चिंतन॥
शास्त्रों ने सेवा के तीन प्रकार बताये हैं।मनुष्य तीन प्रकार से समाज की सेवा कर सकता है।
तनुजा सेवा अथवा तन से सेवा -
तन से हम समाज की अनेक तरह से सेवा कर सकते हैं। कहीं कोई समाज सेवा का कार्य चल रहा हो तो वहाँ जुड़कर अपनी सामर्थ्य के अनुसार कोई भी कार्य कर सकते हैं।
किसी प्यासे को पानी पिला देना, किसी असहाय को उसके गंतव्य तक पहुँचा देना, कभी-कभी किसी सार्वजनिक स्थल पर साफ सफाई कर देना या कम से कम समय मिलने पर वृक्षारोपण ही कर देना ये सारी सेवाएं तन द्वारा की जानें वाली समाज सेवा ही है।
वित्तजा सेवा अर्थात् धन से सेवा
किसी भी सामाजिक अथवा पारमार्थिक कार्य में धन की अहम भूमिका होती है। पानी पीने के लिए प्याऊ की व्यवस्था करना, यथा सामर्थ्य अन्न दान - वस्त्र दान करना। निशुल्क चिकित्सा प्रदान करना, निशुल्क विद्यालयों का निर्माण करने के साथ-साथ धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन जैसे अनेकानेक सेवा कार्य धन से ही संभव हो पाते हैं।
मानसी सेवा अथवा मन से सेवा
तन और धन की असमर्थता में भी हम मन से समाज की सेवा कर सकते हैं। समाज के हित का चिंतन, उचित परामर्श और सदैव समाज सेवा में निरत लोगों की प्रशंसा और उनका आत्मबल और मजबूत हो ऐसी बात करना भी आपके द्वारा की जाने वाली मानसी सेवा ही है।
साथ ही साथ अगर ज्यादा कुछ न कर सको तो प्रभु के समक्ष रोज सर्व मंगल की कामना के लिए प्रार्थना करना भी आपके द्वारा समाज की मानसी सेवा ही है।
तन से, धन से अथवा तो मन से, प्रभु ने जिस भी लायक आपको बनाया है, उसी अनुसार समाज सेवा करने का सौभाग्य अवश्य प्राप्त करना चाहिए।
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