1.
ल से लड़ना सीखना
चाहती हैं हम लड़कियां
ल से नहीं लड़ती हैं लड़कियां
ल से लजाती हैं लड़कियां
ल से लज्जा है उनका आभूषण
बचपन से मां ने सिखाया है
ल से लडक़ी भी है मां
मां ने भी सीखा था
अपने दिनों में
ल से लज्जा है आभूषण
लड़कियों का
ल से नहीं लड़ती है लड़कियां
काश
ल से लडऩा सिखा देती
बचपन में मां
आज दरिन्दों को सबक
सीखा देती हम लड़कियां
हां, एक बात जरूर
कहती हूं मां
मां, तू आज से ल की
परिभाषा बदल दे
ल से लडऩे दे
लड़कियों को
बिसरा दे ल से
लज्जा की भाषा
ये आभूषण नहीं,
बंधन है
आज से कर दे हम
लड़कियों को आजाद
ल से लडऩा सीखना
चाहती हैं हम लड़कियां
साल उन्नीस सौ चौरासी.. 2-3 दिसम्बर की दरम्यानी रात.. भोपाल के बाशिंदों के लिए यह कयामत की रात थी.. जिन्होंने कयामत शब्द सुना है.. उन्होंने उस दिन महसूस भी किया होगा.. कि कयामत किसे कहते हैं.. इस दिन मैं रायपुर के दाऊ कल्याण सिंह अस्पताल के प्रागंण में था.. कुछ आधी-अधूरी सी खबर आयी..सूचना सैकड़ों लोगों के मारे जाने की थी..रायपुर तब अविभाजित मध्यप्रदेश का शहर था.. मिक यानि मिथाइल आइसोसाइनाट गैस के रिसने की खबर थी.. विज्ञान का विद्यार्थी नहीं था लेकिन पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था.. सो जिज्ञासावश मिक के बारे में जानने की कोशिश की.. बहुत नहीं मोटा-मोटी जानकारी हासिल कर सका.. उस भयानक मंजर की कल्पना कर मैं सिहर उठा था.. तब आज की तरह संचार की विपुल सुविधा नहीं थी कि पल-पल की खबरें देख सकूं.. अखबार के पन्नों पर छपी खबरों ने.. एजेंसी से आ रही सूचनाओं से हादसे के बारे में पता चला.. संयोग से दो साल बाद भोपाल आ गया.. यहां तब देशबन्धु साप्ताहिक कालखंड में प्रकाशित हो रहा था.. दूसरे अखबारों की तरह मुझे भी गैस त्रासदी की तीसरी बरसी पर स्टोरी करने का आदेश मिला.. मीडिया निर्मम होता है.. वह दर्द में दुआ करता है तो उस एक नयी जानकारी के लिए जिससे उसका अखबार अलग से पहचाना जाए.. आज की भाषा में टीआरपी बटोरना कहते हैं.. सो रघुकुल रीत सदा चली आयी के तर्ज पर जुट गया..
मेरा पहला और आखिरी पड़ाव था जयप्रकाश नगर.. यह इस त्रासदी का केन्द्र बिन्दु था.. यहां पर कोई 9 वर्ष के बच्चे सुनील राजपूत से मेरा परिचय होता है.. सुनील के परिवार में इस हादसे में 11 लोगों ने जान गंवायी थी.. विदा हो चुकी बहन अपने पति के साथ उस मनहूस रात घर आयी थी.. हादसे के बाद सुनील के साथ उसकी एक छोटी बहन और छोटा भाई बच गए थे.. सुनील एक तरह से इस त्रासदी का हीरो था.. चश्मदीद गवाह.. अमेरिका तक उसे ले जाया गया.. अंतरिम राहत और ना जाने किस-किस मद में सुनील को लाखों रुपयों की मदद मिली.. जिस 9 साल के बच्चे की हथेली में गेंद होना था.. उस बच्चे की हथेली रुपयों से भर गई थी.. कहते हैं रुपया जेब में रहे तो ठीक और दिमाग में चढ़े तो पागल कर देता है.. इस बात को सच होते मैंने सुनील के साथ देखा था.. सुनील जैसे और भी कुछ बच्चे थे जिनके वालिद नहीं रहे.. यतीम हो चुके बच्चों को तब शासन ने बालगृहों में भेज दिया था. सुनील जेपी नगर के अपने उसी झुग्गी में रह रहा था.. जब मैंने उससे पूछा कि वह और बच्चों की तरह क्यों बालगृह नहीं गया तो उसने सरकार की उपेक्षा की शिकायत की.. यह मुझे झटका देने वाली बात थी लेकिन उसका तर्क गले से नहीं उतरा.. मैं तब की गैस राहत सचिव से मिला.. मैं कुछ पूछता या कहता..इसके पहले ही उन्होंने बता दिया कि सुनील को उस झुग्गी का पट्टा चाहिए सो वह अपने छोटे भाई और बहिन के साथ है.
इसके बाद मुझे लगा कि सच में सुनील तीन बरस में सयाना हो गया.. तब देशबन्धु में मैंने हेडिंग लिखा था-सुनील तीन बरस में सयाना हो गया.. इसमें सुनील की गलती कम और परिस्थितियों की ज्यादा थी.. यह वह उम्र थी जब जेब खर्च के लिए पिता से पैसे मांगना..स्कूल की फीस जमा करने के लिए रोज पिता को याद दिलाना होता, उस उम्र में वह स्वयं लाखों का मालिक था.. एक तरह से पैसों ने सुनील का दिमाग खराब कर दिया था. यह वर्ष जैसे-तैसे गुजरा कि पांचवीं बरसी पर एक बार फिर सुनील का हाल जानने पहुंचा तो दिल धक से रह गया.. मासूम सुनील लालची हो गया था.. लालच में उसने अपने भाई-बहिन को यातना देने लगा था.. खुद सूदखोर हो गया था और कई बुरी आदतों का शिकार हो चला था.. तब सरकार ने सुध लेकर उन दो छोटे बच्चों को बालगृह भेज दिया.. हालांकि बाद के वर्षों में सुनील ठीक हो गया और जिम्मेदार भाई की तरह उसने अपना फर्ज पूरा किया.. तकरीबन 25 साल की परिस्थितियों ने सुनील को मानसिक अवसाद से भर दिया.. अपने आखिरी दिनों में वह विक्षिप्त सा हो गया था.. आखिरकार खबर मिली कि सुनील ने दुनिया को अलविदा कह दिया है..
इस गैस त्रासदी से जो भय और लालच उपजा था, उससे कई परिवार भी टूटे. भोपाल के बाशिंदे बताते हैं कि कयामत पुराने शहर तक ही था लेकिन जेपी नगर से कोई 10-15 किलोमीटर दूर रहने वाले लोग भयभीत हो चले थे.. एक साहब बताते हैं कि नए भोपाल के इलाके में उनके पड़ोस में एक नवब्याहता जोड़ा रहता था.. उनकी शादी को बमुश्किल एक पखवाड़ा ही हुआ था.. सुबह का वक्त था.. उस नई दुल्हन का पति बाथरूम में था.. इस बीच भीड़ का रेला आया और गैस रिसने की सूचना के साथ उन्हें अपने साथ चलने की जिद करने लगा.. उसे पति की चिंता थी लेकिन खुद की जान का डर कहें या भीड़ का दबाव.. वह कुछ सोचे बिना उनके साथ चल पड़ी.. थोड़ी देर में खुलासा हुआ कि यह अफवाह था.. वह घर तो लौटी लेकिन उसका आशियाना उजड़ चुका था.. पति ने ऐलान कर दिया कि जो पत्नी उसका थोड़ी देर इंतजार नहीं कर सकती, वह उसके साथ जीवनभर का क्या साथ देगी.. इसके आगे की कहानी का अंदाजा आप लगा सकते हैं. ऐसे ना जाने कितने परिवार अफवाहों के चलते टूटे, बिखरे और बिखरते चले गए.
एक पत्रकार के नाते वो बातें मुझे आज भी नश्तर की तरह चुभती हैं. कई बार कोफ्त होती है लेकिन पेशेगत मजबूरी का क्या किया जाए. साल 84 में अखबार के पन्ने गैस त्रासदी से जुड़ी घटनाओं से भरे पड़े होते थे. साल-दर-साल समाचारों का आकार घटता गया. वैसे ही जैसे संवेदनाओं का संसार हमारे आपके बीच से सिमटता चला जा रहा है. संवेदनाओं से परे गैस रिसी क्यों इस पर मीडिया बात नहीं करता है बल्कि वह इस बात को केन्द्र में रखता है कि एंडरसन को भगाने में किसका हाथ रहा? वह भूल जाता है कि जिस मोहल्ले के लोग तड़प रहे थे. जान बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए थे, क्या वे लोग एंडरसन को मारने भागते? क्या वो लोगों में इतनी ताकत बची थी कि इतराती मुंह चिढ़ाती यूनियन कार्बाइन के गेस्ट हाऊस को उसी तरह तहस-नहस कर देते जिस तरह किसी शहर की सडक़ दुर्घटना में वाहन को कर देते हैं? इस मामले को दिमाग से देखने के बजाय दिल से देखना ज्यादा जरूरी है. यह कितना दर्दनाक है कि आज भी कुछेक लोग ऐसे हैं जो 35 साल से दर्द झेल रहे हैं. दवा और दुआ के सहारे जिंदगी बसर कर रहे हैं.
35 वर्ष बाद पलटकर देखते हैं तो अब्दुल जब्बार जैसा व्यक्ति भी हमारे साथ खड़ा दिखता है. यह एक ऐसा व्यक्ति था जो लगातार पीडि़तों के पक्ष में खड़ा रहा. खुद के पैरों में ठीक से जूते नहीं थे, सो एक चोट गैंगरीन में बदल गया. गैस ने ना सही, गैंगरीन ने इस बेहतरीन व्यक्ति को हमसे छीन लिया. उनके रहते लोगों को इस बात भ्रम था कि उनके पास अकूत धन सम्पदा होगी लेकिन लोगों को पछतावा में छोडक़र जाने के बाद पता चला कि उनके बच्चों की फीस जमा करने लायक पैसे भी नहीं होते थे. स्वाभिमानी व्यक्ति ने कभी किसी के सामने ना हाथ फैलाये और ना ही दुखड़ा रोया. मांगा तो उन्होंने कई बार लोगों से पैसे लेकिन कभी गैस पीडि़त महिलाओं को लाने वाली बसों में डीजल डलवाने के लिए तो कभी किसी की तीमारदारी के लिए. हमारे दोस्त बताते हैं कि एक बार उनसे दो सौ रुपये मांगे और बताया कि बस का पेमेंट करना है. लेकिन दो दिन बाद मिले तो याद से उनके पैसे लौटा दिए. ऐसे लोगों को याद करते हुए आंखें नम हो जाना स्वाभाविक है. ऐसा लगता है कि दर्द के साथ मसीहा भी इस गैस त्रासदी ने दिया था भाई अब्दुल जब्बार के नाम वाला. अब तो दर्द, दुआ और दवा का नाम रह गया है दुनिया की भीषणत औद्योगिक दुर्घटना भोपाल गैस त्रासदी. मीडिया के लिए एक खबर की तरह भी शादी शुदा पुरुषों को समर्पित)
उठो लाल अब आंखे खोलो
बर्तन मांजो कपड़े धो लो
झाड़ू लेकर फर्श बुहारो
और किचेन में पोछा मारो
अलसाओ न, आंखें मूंदो
सब्ज़ी काटो, आटा गू थो
तनिक काम से तुम न हारो
घी डालकर दाल बघारो
गमलों में तुम पानी डालो
छत टंकी से गाद निकालो
देखो हमसे खेल न खेलो
छोड़ मोबाइल रोटी बेलो
बिस्तर सारे , धूप में डालो
ख़ाली हो अब काम संभालो
नहीं चलेगी अब मनमानी
याद दिला दूंगी अब नानी
ये, आईं है, अजब बीमारी
सब पतियों पे विपदा भारी
नाथ अब शरणागत ले लो
कुछ भी हो ये आफत ले लो।
2
जीतने का जज्बा है
उम्मीद है जिन्दगी
संकट बड़ा है,
चुनौती है बड़ी
लडाई है लम्बी
लड़कर जीत जाएंगे
जीतने का जज्बा है
उम्मीद है जिन्दगी
थोड़ा सब्र कर
थोड़ा धीरज धर मेरे भाई
ऐसी कौन सी मुसीबत
हमारे सामने टिक पाई
जीतने का जज्बा है
उम्मीद है जिन्दगी
ये दौर भी गुजर जाएगा
फिर उठ खड़े होंगे हम
अभी तो रहना है सेफ
दूसरों को भी करो सेफ
कुछ दिन की दूरी है
हमेशा की है कौन मजबूरी
जीतने का जज्बा है
उम्मीद है जिन्दगी
कोरोना रोएगा एक दिन
जब देखेगा हमारा अनुशासन
हम हैं भाई बहिन
जैसे गुलिस्ता का चमन
जीतने का जज्बा है
उम्मीद है जिन्दगी
।।
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