प्रस्तुति - - सपन कुमार
परम पूज्य हुज़ूर डा. प्रेम सरन सतसंगी साहब का महत्वपूर्ण संदेश
परम गुरु हुज़ूर सरकार साहब के भंडारे के अवसर पर (मध्याह्न 14.4.2004)
राधास्वामी ! परम गुरु हुज़ूर सरकार साहब के शब्दों में-
’’खुली खान सत परमारथ अब मिल गए पुरुष अनामी।
प्रगटे परम संत निज दाता सतगुरु राधास्वामी।।’’
जब ऐसे परम गुरु, परम पितु, परम प्रिय नाथ हमको मिल गये तो किस तरह की आस हमको रखनी चाहिये, किस तरह की चाहत उठानी चाहिये, किस तरह की तमन्ना रखनी चाहिये ? ये भी उन्हीं परम गुरु सरकार साहब के शब्दों में-
’’चरनन में सुरत जोड़ तन मन धन तोड़-फोड़।
देकर मोहि प्रेम डोर काज ही सँवारिये।।’’
आप देखते हैं कि अगर उद्धार का काज पूरा होना है, सुरत को अपने भण्डार में वापस लौटना है, तो हमें प्रार्थना करनी चाहिये कुल मालिक राधास्वामी दयाल से, कि वे तन मन धन तोड़-फोड़, हमारी सुरत को अपने चरनों में लगायें। जैसा कि आपने बचनों में आज सुना, यह मुश्किल बात है।
‘‘यह तो घर है प्रेम का, ख़ाला का घर नाहिं।
सीस उतारे भुईं धरे, तब पैठे घर माहिं।।’’
और आपने बचन में सुना ही कि सीस से तात्पर्य है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह,अहंकार का जो मुखिया है, अहंकार, उसका त्याग करके जब तक दीनता नहीं हासिल की जाए तब तक यह प्रेम की डोर या प्रेम का किनका कैसे बख़्शिश हो सकता है।
बचन में कहा गया कि ख़ाला से तात्पर्य माया से है। अगर मायावी क्षणिक सुखों के पीछे हम दौड़ते हैं तो काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार अंग में बरत सकते हैं और क्षणिक सुख प्राप्त कर सकते हैं।
9पर चिरस्थायी सुख जो सुरत के अपने भण्डार से मिलने पर ही प्राप्त हो सकता है, उसके लिए तो प्रेम का किनका की बख़्शिश आवश्यक है। आपने बचन में यह भी सुना कि कुल मालिक राधास्वामी दयाल ने अत्यन्त दया कर लहर रूप होकर अवतार होने की जहमत फ़रमाई जिससे कुल जीवों का उद्धार कर सके, और परम गुरु हुज़ूर सरकार साहब ने हमें यह आश्वासन और विश्वास दिलाया है कि जब कुल मालिक राधास्वामी दयाल का उद्देश्य समस्त जीवों का उद्धार करना है तो उनकी निज धार तब तक वापस नही लौट सकती जब तक कि वह अपने उद्देश्य को पूरा न कर ले। हमने यह सुना कि परम गुरु तो सही मायने में हुज़ूर राधास्वामी दयाल ही हैं और वे ही सब के कर्त्ता धर्ता हैं। अब वह उनका एक खेल है कि किसी देह स्वरूप से वे कुछ सेवा लेना मंजूर फ़रमाएँ।
राधास्वामी
परम पूज्य हुज़ूर डा. प्रेम सरन सतसंगी साहब का महत्वपूर्ण संदेश
परम गुरु हुज़ूर सरकार साहब के भंडारे के अवसर पर (मध्याह्न 14.4.2004)
(पिछले दिन का शेष)
जहाँ तक मेरा प्रश्न है मैंने आपसे पहले भी अर्ज़ किया है कि में तो एक तुच्छ जीव हूँ और तन मन के ग़िलाफ़ों में सब जीवों की तरह क़ैद हूँ। परम गुरु हुज़ूर डा. लाल साहब ने निज धाम सिधारने की मौज फ़रमाई और निज धार के तद्रूप हो गये। उसमें विलीन हो गये। तो सच्चे मायने में तो वही सतगुरु स्वरूप वर्तमान में भी हैं। मैं तो तुच्छ सेवक से मुख्य सेवक बनने की भूमिका निभाने के प्रयत्न में कार्यरत हूँ। पर यह भी ज़ाहिर है कि हुज़ूर राधास्वामी दयाल की निज धार हमारे बीच है और हम सब पर उनकी रक्षा और सँभाल का हाथ बराबर बना हुआ है। बचन में और वाणी में यह भी आता है:-
’’गुरु रूप धरा राधास्वामी। गुरु से बड़ नहीं अनामी।।’’
और जैसा अभी आपने कुछ देर पहले सुना,परम पुरुष पूरन धनी स्वामीजी महाराज के अनुसार अगर कुल मालिक राधास्वामी दयाल भी उद्धार करने की मौज फ़रमाते हैं तो देह स्वरूप हो करके इस संसार में अवतार धारण करते हैं। बचनों में यह भी पढ़ा गया:-
’’अस गुरु सम कोई और न आना। गुरू मिले फिर कहा कमाना।।’’
अब इसके अर्थ कभी-कभी यह कहे जाते हैं कि गुरू मिल गये तो फिर कुछ कमाई करने की क्या ज़रूरत है ? पर मुझे लगता है कि सतसंग की जो संस्कृति है उसमें ऐसी निष्कर्मठता या अकर्मण्यता की शिक्षा कभी नहीं हो सकती है। और अर्थ है कि गुरु मिले,तब कहा, यह कहा गया, कि अब कमाई कीजिए। और यह सही है, सच्चे गुरु मिल गये,परम गुरु मिल गये, तो कमाई भी हो जाएगी। पर यह समझना कि गुरु मिले तब कहाँ कमाना, वह कहाँ नहीं है, कहा कमाना, कहा गया है कि कमाइए। मैं तो यही समझता हूँ। मेरी तुच्छ बुद्धि से तो यही अर्थ निकलता है कि पूरी कमाई की जाय। जब सतसंग में हम आ गए, हमें उपेदश मिल गया, परम गुरु के सतसंग में आने का सौभाग्य प्राप्त हो गया, तो पूरी कमाई करने का हमें अवसर मिल गया। अब वह कमाई सतसंग, सेवा और अभ्यास से होगी। जब शुरूआत होती है, उपदेश नहीं मिला होता, छात्र अवस्था है, तो कमाई करने का ढंग अध्ययन, सेवा और व्यायाम है। अध्ययन जो हम करते हैं वह विद्या का अध्ययन करते हैं, इस संसार की विद्या का अध्ययन करते हैं जिसको अविद्या भी कहते हैं। और क्योंकि इस संसार के परे धामों,ब्रह्माण्ड और निर्मल चेतन देश की विद्या यह नहीं है इसीलिए इसे अपरा विद्या या अविद्या की संज्ञा दी जाती है। पर पहले इस संसार को अ-पराविद्या का अध्ययन करके हम इस क़ाबिल बनते हैं कि जब हमें उपदेश प्राप्त हो जाए तो हम पराविद्या, ब्रह्माण्ड की, और परा-पराविद्या, निर्मल चेतन देश की, भी अध्ययन जारी रख करके प्राप्त कर सकते हैं। पर ये परा विद्या और परा-परा विद्या पोथी पढ़ करके तो मिलती नहीं। ये तो जो जुगत बताई गई है,उसके अभ्यास से ही प्राप्त होगी। इसलिए अध्ययन की जगह यह अभ्यास बन जाता है।
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