आज आरती के समय पढा गया बचन
परम गुरु सरकार साहब के बचन
(बचन 17)
4 जनवरी 1911- फ़रमाया कि महाराज साहब एक कहानी सुनाया करते थे। एक शहर में एक मँगता यानी भीख माँगने वाला था। उसका क़ायदा था कि माँग माँग कर जो रुपया होता था, वह एक गुदड़ी में सीता जाता था। होते होते सत्तर या अस्सी रुपये उसके पास हो गए। इतने में शहर में हैज़ा हुआ और वह मर गया। लेकिन मरने से पहले उस गुदड़ी को ज़मीन में गड्ढा करके दबा गया। कुछ अरसे के बाद उस गड्ढे के पास से कुछ बदमाश लोगों का गुज़र हुआ। उन्होंने वहाँ एक साँप बैठा हुआ देखा। उनको ख़्याल आया कि यहाँ एक फ़क़ीर रहता था। शायद वह यहाँ रुपया दबा गया होगा। उन्होंने गड्ढा खोद कर रुपया निकाल लिया और ख़ूब ऐश में उड़ाया। थोड़े ही अरसे के बाद वह सब के सब यके बाद दीगरे (एक के बाद एक) बड़ी तकलीफ़ से हैज़े से मरे। दूसरी कहानी यह सुनाई कि एक जंगल में एक भक्तजन रहता था। वहाँ चंद डाकू गुज़रे और साधू के पास रात भर रहे। सुबह जाते वक्त़ वह उसका लोटा ले गए कि रास्ते में पानी पीने के काम आवेगा। थोड़ी दूर जाकर उनको ख़्याल आया कि हमने लोटा लाकर उस साधू की चोरी की, यह ठीक नहीं है। उसी वक्त़ वापस आकर साधू को लोटा दिया और बड़ी आजिज़ी (दीनता) से माफ़ी माँगी।
इन दोनों कहानियों का यह मतलब है कि जो जो चीज़ जिस तरह की कमाई से बनाई या इकट्ठी की हुई है, उसका असर ज़रूर उसके लेने वाले पर पड़ता है और यह अटल बात है। किसी शख़्स को किसी दूसरे की चीज़ ग्रहण नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जिस तरह से जो चीज़ इकट्ठी हुई है, उस पर बल्कि उसके एक एक ज़र्रे पर उसी तरह के कर्म का भार चढ़ा हुआ है। एक तरह से वह उसके कर्मों से लदी हुई है। जो शख़्स वह चीज़ लेगा, वह उन कर्मों का भार अपने ऊपर चढ़ावेगा। बल्कि एक सतसंगी को दूसरे सतसंगी की भी चीज़ नहीं लेनी चाहिए, न ही खान-पान करना चाहिए,क्योंकि हर एक के कर्म मुख़्तलिफ़ (भिन्न भिन्न) हैं, किसी के ज़्यादा, किसी के कम। अगर मजबूरी हालत में कोई चीज़ लेनी पड़े, तो उसका एवज़ उसको ज़रूर देना चाहिए। अगर वह न लेवे, तो परमार्थ में उतना ख़र्च कर देवे। अगर दया से संत महात्मा किसी की चीज़ इस्तेमाल करें, तो देने वाले पर बड़ी दया होती है।
इस वास्ते अपनी रहनी गहनी बिलकुल ठीक रखनी चाहिए। जो अपनी ख़ास कमाई है, वही ख़र्च करो किसी की चीज़ मत लो, वरना उससे दुगना तिगुना नुक़सान होगा। वह लोग जो अपनी कमाई हुई चीज़ इस्तेमाल करते हैं, बड़े ख़ुश रहते हैं। लोग जो यह ख़्याल करते हैं कि अगर हमको ख़ूब रुपया मिल जाय,तो परमार्थ बड़ी सहूलियत से कर सकेंगे, यह ग़लत है, बल्कि असली परमार्थ वही लोग कर सकते हैं जो कि हमेशा डाँवाडोल रहते हैं। हर वक्त़ दुख और फ़िक्र में रहें और उदास रहें। भक्तजन को बड़ा गंभीर रहना चाहिए। ऐसा मालूम होवे कि मालिक ने उसे हर चीज़ बख़्शी हुई है। किसी से हेकड़ी नहीं करनी चाहिए। अगर किसी बड़े आदमी के पास जाना पड़े, बड़े अदब से पेश आओ। भक्तजन को तरबियतयाफ़्ता (trained) होना चाहिए। जब किसी भक्तजन को किसी दरबार वगैरह में जाने का मौक़ा हुआ है, बड़ी उम्दगी से सब क़ायदे निबाहते हैं।
राधास्वामी
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