Monday, April 6, 2020

मनोज कुमार के आलेख संस्मरण टिप्पणी




जाना तेजिंदर का ‘गगन’ में...

मनोज कुमार

तेजिंदर गगन, यह नाम किसी के लिए कथाकार के रूप में हो सकता है तो कोई उन्हें आकाशवाणी-दूरदर्शन के कामयाब अधिकारी के रूप में उल्लेखित कर सकता है लेकिन मेरे लिए यह नाम बहुत मायने रखता है। इसलिए नहीं कि वे साहित्य और मीडिया से संबद्ध थे बल्कि इसलिए कि मैं उन्हें बचपन से उसी तरह देखता आ रहा हूं जैसा कि पिछले हफ्ते उनसे फोन पर हुई बातचीत में। तेजिंदर भाईसाहब, मेरे बड़े भैय्या, लियाकत भैय्या, आसिफ इकबाल भाई साहब, लीलाधर मंडलोई और इन लोगों की टीम के लिए मैं कभी बड़ा हुआ ही नहीं। हमेशा छोटा भाई बना रहा। खैर, पत्रकार के रूप में तो क्या मैं इन महारथियों के सामने खड़ा हो पाता लेकिन जो स्नेह, जो संबल और जो साहस इन लोगों से मिला और मिलता रहता है, वही मेरी ताकत है। इनमें से कभी किसी ने सीधे मुझे ना कुछ कहा और ना सिखाया लेकिन गलती पर कान खींचने में देरी नहीं की। तेजिंदर भाईसाहब के अचानक चले जाने से मन उदास हो गया है। यह शायद नहीं होता अगर एक सप्ताह पहले उनका फोन नहीं आता। मेरे मोबाइल पर घंटी बजती है और दूसरी तरफ से आवाज आती है-मनोज? आने वाला मोबाइल नम्बर अनजाना था, सो आदतन जी, बोल रहा हूं। मैं तेजिंदर..इतना सुनते ही मैं बल्लियों उछल पड़ा। समझ में ही नहीं आ रहा था कि कैसे रिएक्ट करूं। प्रणाम के जवाब में आशीर्वाद मिला और वे बिना रूके करीब 20 मिनट बोलते रहे। अच्छा काम कर रहे हो। खूब मेहनत से ‘समागम’ का प्रकाशन कर रहे हो।
 एकदम नई दृष्टि के साथ। विषयों का चयन उत्तम है। आदि-अनादि और भी बहुत सारी बातें कहते रहे। कानों में जैसे शहद घुल रहा था। अपनी तारीफ भला किसे अच्छी नहीं लगती है? मुझे भी अच्छा लग रहा था। बरबस मैं बीच में बोल पड़ा आप लोगों ने जो सिखाया, बस, उसे ही आगे बढ़ाने का काम कर रहा हूं। वे मुझे टोकते हुए कहा- इसमें हम लोगों ने कुछ नहीं किया..सब तुम्हारी मेहनत है। वे ‘समागम’ के बालकवि बैरागी अंक के बारे में बात कर रहे थे। वे कहते रहे कि कई दिनों से तुम्हें फोन करने का मन था लेकिन टल जा रहा था.. आज यह अंक देखकर रोक नहीं पाया.. हां, ये मेरा नंबर है..सेव कर ले...रायपुर कब आ रहा है?मिलकर जाना..। जवाब में मैंने कहा था कि जुलाई में आने का प्रोग्राम है.. आकर आपसे मिलता हूं.. लेकिन ये कहां तय था कि उनसे नहीं..उनकी यादों से मुलाकात होगी..तेजिंदर भाईसाहब ये तो तय नहीं था.. आप लोगों से कभी बोलने की हिम्मत नहीं होती है लेकिन आज तो शिकायत है.. ऐेसे कैसे जा सकते हैं.. पर क्या करें...नियति का लेखा है.. दुख इस बात का है कि अभी प्रभाकर सर, गोविंदलाल जी भाईसाहब, केयूर भूषण और अब ... ईश्वर मुझे शक्ति दे...

कविता

ल से लड़ना सीखना
चाहती हैं हम लड़कियां
ल से नहीं लड़ती हैं लड़कियां
ल से लजाती हैं लड़कियां
ल से लज्जा है उनका आभूषण
बचपन से मां ने  सिखाया है

ल से लडक़ी भी है मां
मां ने भी सीखा था
अपने दिनों में
ल से लज्जा है आभूषण
लड़कियों का
ल से नहीं लड़ती है लड़कियां
काश
ल से लडऩा सिखा देती
बचपन में मां
आज दरिन्दों को सबक
सीखा देती हम लड़कियां

हां, एक बात जरूर
कहती हूं मां

मां, तू आज से ल की
परिभाषा बदल दे
ल से लडऩे दे
लड़कियों को

बिसरा दे ल से
लज्जा की भाषा
ये आभूषण नहीं,
बंधन है
आज से कर दे हम
लड़कियों को आजाद
ल से लडऩा सीखना
चाहती हैं हम लड़कियां


मनोज कुमार

26 नवंबर 2017 को लिखा था




भोपाल त्रासदी को याद करते हुए

मनोज कुमार

साल उन्नीस सौ चौरासी.. 2-3 दिसम्बर की दरम्यानी रात.. भोपाल के बाशिंदों के लिए यह कयामत की रात थी.. जिन्होंने कयामत शब्द सुना है.. उन्होंने उस दिन महसूस भी किया होगा.. कि कयामत किसे कहते हैं.. इस दिन मैं रायपुर के दाऊ कल्याण सिंह अस्पताल के प्रागंण में था.. कुछ आधी-अधूरी सी खबर आयी..सूचना सैकड़ों लोगों के मारे जाने की थी..रायपुर तब अविभाजित मध्यप्रदेश का शहर था.. मिक यानि मिथाइल आइसोसाइनाट गैस के रिसने की खबर थी.. विज्ञान का विद्यार्थी नहीं था लेकिन पत्रकारिता का ककहरा सीख रहा था.. सो जिज्ञासावश मिक के बारे में जानने की कोशिश की.. बहुत नहीं मोटा-मोटी जानकारी हासिल कर सका.. उस भयानक मंजर की कल्पना कर मैं सिहर उठा था.. तब आज की तरह संचार की विपुल सुविधा नहीं थी कि पल-पल की खबरें देख सकूं.. अखबार के पन्नों पर छपी खबरों ने.. एजेंसी से आ रही सूचनाओं से हादसे के बारे में पता चला.. संयोग से दो साल बाद भोपाल आ गया.. यहां तब देशबन्धु साप्ताहिक कालखंड में प्रकाशित हो रहा था.. दूसरे अखबारों की तरह मुझे भी गैस त्रासदी की तीसरी बरसी पर स्टोरी करने का आदेश मिला.. मीडिया निर्मम होता है.. वह दर्द में दुआ करता है तो उस एक नयी जानकारी के लिए जिससे उसका अखबार अलग से पहचाना जाए.. आज की भाषा में टीआरपी बटोरना कहते हैं..

 सो रघुकुल रीत सदा चली आयी के तर्ज पर जुट गया.......।

मेरा पहला और आखिरी पड़ाव था जयप्रकाश नगर.. यही इस त्रासदी का केन्द्र बिन्दु था.. यहां पर कोई 9 वर्ष के बच्चे सुनील राजपूत से मेरा परिचय होता है.. सुनील के परिवार में इस हादसे में 11 लोगों ने जान गंवायी थी.. विदा हो चुकी बहन अपने पति के साथ उस मनहूस रात घर आयी थी.. हा।


  • हादसे के बाद सुनील के साथ उसकी एक छोटी बहन और छोटा भाई बच गए थे.. सुनील एक तरह से इस त्रासदी का हीरो था.. चश्मदीद गवाह.. अमेरिका तक उसे ले जाया गया.. अंतरिम राहत और ना जाने किस-किस मद में सुनील को लाखों रुपयों की मदद मिली.. जिस 9 साल के बच्चे की हथेली में गेंद होना था.. उस बच्चे की हथेली रुपयों से भर गई थी.. कहते हैं रुपया जेब में रहे तो ठीक और दिमाग में चढ़े तो पागल कर देता है.. इस बात को सच होते मैंने सुनील के साथ देखा था.. सुनील जैसे और भी कुछ बच्चे थे जिनके वालिद नहीं रहे.. यतीम हो चुके बच्चों को तब शासन ने बालगृहों में भेज दिया था. सुनील जेपी नगर के अपने उसी झुग्गी में रह रहा था.. जब मैंने उससे पूछा कि वह और बच्चों की तरह क्यों बालगृह नहीं गया तो उसने सरकार की उपेक्षा की शिकायत की.. यह मुझे झटका देने वाली बात थी लेकिन उसका तर्क गले से नहीं उतरा.. मैं तब की गैस राहत सचिव से मिला.. मैं कुछ पूछता या कहता..इसके पहले ही उन्होंने बता दिया कि सुनील को उस झुग्गी का पट्टा चाहिए सो वह अपने छोटे भाई और बहिन के साथ है.


इसके बाद मुझे लगा कि सच में सुनील तीन बरस में सयाना हो गया.. तब देशबन्धु में मैंने हेडिंग लिखा था-सुनील तीन बरस में सयाना हो गया.. इसमें सुनील की गलती कम और परिस्थितियों की ज्यादा थी.. यह वह उम्र थी जब जेब खर्च के लिए पिता से पैसे मांगना..स्कूल की फीस जमा करने के लिए रोज पिता को याद दिलाना होता, उस उम्र में वह स्वयं लाखों का मालिक था.. एक तरह से पैसों ने सुनील का दिमाग खराब कर दिया था. यह वर्ष जैसे-तैसे गुजरा कि पांचवीं बरसी पर एक बार फिर सुनील का हाल जानने पहुंचा तो दिल धक से रह गया.. मासूम सुनील लालची हो गया था.. लालच में उसने अपने भाई-बहिन को यातना देने लगा था.. खुद सूदखोर हो गया था और कई बुरी आदतों का शिकार हो चला था.. तब सरकार ने सुध लेकर उन दो छोटे बच्चों को बालगृह भेज दिया.. हालांकि बाद के वर्षों में सुनील ठीक हो गया और जिम्मेदार भाई की तरह उसने अपना फर्ज पूरा किया.. तकरीबन 25 साल की परिस्थितियों ने सुनील को मानसिक अवसाद से भर दिया.. अपने आखिरी दिनों में वह विक्षिप्त सा हो गया था.. आखिरकार खबर मिली कि सुनील ने दुनिया को अलविदा कह दिया है..

इस गैस त्रासदी से जो भय और लालच उपजा था, उससे कई परिवार भी टूटे. भोपाल के बाशिंदे बताते हैं कि कयामत पुराने शहर तक ही था लेकिन जेपी नगर से कोई 10-15 किलोमीटर दूर रहने वाले लोग भयभीत हो चले थे.. एक साहब बताते हैं कि नए भोपाल के इलाके में उनके पड़ोस में एक नवब्याहता जोड़ा रहता था.. उनकी शादी को बमुश्किल एक पखवाड़ा ही हुआ था.. सुबह काो वक्त था.. उस नई दुल्हन का पति बाथरूम में था.. इस बीच भीड़ का रेला आया और गैस रिसने की सूचना के साथ उन्हें अपने साथ चलने की जिद करने लगा.. उसे पति की चिंता थी लेकिन खुद की जान का डर कहें या भीड़ का दबाव.. वह कुछ सोचे बिना उनके साथ चल पड़ी.. थोड़ी देर में खुलासा हुआ कि यह अफवाह था.. वह घर तो लौटी लेकिन उसका आशियाना उजड़ चुका था.. पति ने ऐलान कर दिया कि जो पत्नी उसका थोड़ी देर इंतजार नहीं कर सकती, वह उसके साथ जीवनभर का क्या साथ देगी.. इसके आगे की कहानी का अंदाजा आप लगा सकते हैं. ऐसे ना जाने कितने परिवार अफवाहों के चलते टूटे, बिखरे और बिखरते चले गए.

एक पत्रकार के नाते वो बातें मुझे आज भी नश्तर की तरह चुभती हैं. कई बार कोफ्त होती है लेकिन पेशेगत मजबूरी का क्या किया जाए. साल 84 में अखबार के पन्ने गैस त्रासदी से जुड़ी घटनाओं से भरे पड़े होते थे. साल-दर-साल समाचारों का आकार घटता गया. वैसे ही जैसे संवेदनाओं का संसार हमारे आपके बीच से सिमटता चला जा रहा है. संवेदनाओं से परे गैस रिसी क्यों इस पर मीडिया बात नहीं करता है बल्कि वह इस बात को केन्द्र में रखता है कि एंडरसन को भगाने में किसका हाथ रहा? वह भूल जाता है कि जिस मोहल्ले के लोग तड़प रहे थे. जान बचाने की जद्दोजहद में लगे हुए थे, क्या वे लोग एंडरसन को मारने भागते? क्या वो लोगों में इतनी ताकत बची थी कि इतराती मुंह चिढ़ाती यूनियन कार्बाइन के गेस्ट हाऊस को उसी तरह तहस-नहस कर देते जिस तरह किसी शहर की सडक़ दुर्घटना में वाहन को कर देते हैं?

झ इस मामले को दिमाग से देखने के बजाय दिल से देखना ज्यादा जरूरी है. यह कितना दर्दनाक है कि आज भी कुछेक लोग ऐसे हैं जो 35 साल से दर्द झेल रहे हैं. दवा और दुआ के सहारे जिंदगी बसर कर रहे हैं.

35 वर्ष बाद पलटकर देखते हैं तो अब्दुल जब्बार जैसा व्यक्ति भी हमारे साथ खड़ा दिखता है. यह एक ऐसा व्यक्ति था जो लगातार पीडि़तों के पक्ष में खड़ा रहा. खुद के पैरों में ठीक से जूते नहीं थे, सो एक चोट गैंगरीन में बदल गया. गैस ने ना सही, गैंगरीन ने इस बेहतरीन व्यक्ति को हमसे छीन लिया. उनके रहते लोगों को इस बात भ्रम था कि उनके पास अकूत धन सम्पदा होगी लेकिन लोगों को पछतावा में छोडक़र जाने के बाद पता चला कि उनके बच्चों की फीस जमा करने लायक पैसे भी नहीं होते थे.

स्वाभिमानी व्यक्ति ने कभी किसी के सामने ना हाथ फैलाये और ना ही दुखड़ा रोया. मांगा तो उन्होंने कई बार लोगों से पैसे लेकिन कभी गैस पीडि़त महिलाओं को लाने वाली बसों में डीजल डलवाने के लिए तो कभी किसी की तीमारदारी के लिए. हमारे दोस्त बताते हैं कि एक बार उनसे दो सौ रुपये मांगे और बताया कि बस का पेमेंट करना है. लेकिन दो दिन बाद मिले तो याद से उनके पैसे लौटा दिए. ऐसे लोगों को याद करते हुए आंखें नम हो जाना स्वाभाविक है.

ऐसा लगता है कि दर्द के साथ मसीहा भी इस गैस त्रासदी ने दिया था भाई अब्दुल जब्बार के नाम वाला. अब तो दर्द, दुआ और दवा का नाम रह गया है दुनिया की भीषणत औद्योगिक दुर्घटना भोपाल गैस त्रासदी. मीडिया के लिए एक खबर की तरह.









[04/04, 08:38]



प्रिय दोस्त

यह समय हम सबके लिये कठिन है। हमारी आपकी जवाबदेही समाज के लिए  जियादा है। आप निरोगी रहें, सेफ रहें, मेरी शुभकामनाएं आपके साथ है। हमेशा की तरह आप कामयाब होंगे।

मनोज कुमार





दादा हमें माफ कर देना।

हम आपको तो खूब मानते हैं लेकिन आपका कहा नहीं मानते हैं । आपके नाम पर हमने एक बड़ी भव्य बिल्डिग खडी कर दी लेकिन उसमें आपकी पत्रकारिता की छाप नहीं दिखती है । आप हिन्दी के प्रति आग्र्ही रहे लेकिन हम इसे यूरोपियन शिक्षा का केंद्र बनाने की जिद पर अडे है। जिस आंचलिकता की आपको चिंता थी, वह हमारे एजेण्डे में कहीं नहीं है। आंचलिक पत्रकार को परे रखते हैं क्योंकि ये लोग अंग्रेजी नहीं जानते हैं । अब भला इनसे यूरोपियन शिक्षा माडल ध्वस्त नहीं हो जाएगा। जिस हिन्दी के सहारे आपने अंग्रेजों को देश से खदेड़ दिया, आज उस हिन्दी को पत्रकारिता शिक्षा में दोयम माना जा रहा है ।
दादा, माफ करना जिस ईमानदारी, सत्यता और वचन के पक्के रहने की आपकी पत्रकारिता ने शिक्षा दी है। वह हम भूल चुके है । बल्कि दाग अच्छे हैं, को हमने ओढना बिछाना अब हमारी शान है । दाग नहीं, तो पहचान नहीं की पत्रकारिता और शिक्षा के दौर में हैं ।
दादा, किस किस बात के लिये आपसे माफी मांगे। यहाँ तो हर शाख पर••••
दादा, आपकी पत्रकारिता ध्येय निष्ठ थी लेकिन हम अब टारगेट की पत्रकारिता कर रहे हैं। एक दूसरे को निपटाने की पत्रकारिता और शिक्षा। आंचलिक पत्रकारिता की जमीन चाहे जितनी उर्वरा हो, हम खोखले और विदूषक सेलीब्रिटी को ही सुनना पसंद करते हैं।
दादा, आपसे, आपके जन्मदिन पर आपसे आग्रह है कि सबको सनमती दे।


आपको ज्ञात ही है कि इस समय पूरे विश्व के साथ आपका मध्यप्रदेश भी कोरोना संकट से जूझ रहा है। इस कठिन समय में भी हिन्दी पत्रकारिता जनजागरण का कार्य कर रही है। अब कौन समझाए कि चोट लगने पर माँ ही याद आती है ।
माफी के साथ
मनोज कुमार




जिंदगी की एक ही दवा ‘है उम्मीद’

मनोज कुमार

डॉक्टर शिफा एम. मोहम्मद के लिए अपनी निकाह से ज्यादा जरूरी है कोरोना से जूझ रहे मरीजों की जिंदगी बचाना तो बैतूल के लक्ष्मी नारायण मंदिर में असंख्य लोग चुपके से अनाज रख जाते हैं. कहीं छोटे बच्चे अपने गुल्लक में रखे बचत के पैसे संकट से निपटने के लिए खुले दिल से दे रहे हैं तो कहीं लगातार ड्यूटी करने के बाद भी थकान को झाड़ कर कोरोना से बचाव के लिए सिलाई मशीन पर महिला आरक्षक सृष्टि श्रोतिया मास्क बना रही हैं. होशंगाबाद में अपने हाथ गंवा चुके उस जाबांज व्यक्ति की कहानी भी कुछ ऐसी है जो शारीरिक मुश्किल को ठेंगा दिखाते हुए रोज 200 सौ मास्क बनाकर मुफ्त में बांट रहे हैं. इंदौर की वह घटना तो आप भूल नहीं सकते हैं जिन डॉक्टरों पर पत्थर बरसाये गए थे, वही अगले दिन उन्हीं के इलाज करने पहुंच गए. ये थोड़ी सी बानगी है. हजारों मिसालें और भी हैं. दरअसल इसे ही जिंदगी की दवा कहते हैं. इसे आप और हम उम्मीद का नाम देते हैं यानि जिंदगी की दवा उम्मीद है.

उम्मीद जिंदगी की इतनी बड़ी दवा है कि उसके सामने दवा फेल हो जाती है. एक पुरानी कहावत है कि जब दवा काम ना करे तो दुआ कारगर होती है और आज हम जिस संकट से जूझ रहे हैं, वहां दवा, दुआ के साथ उम्मीद हमारा हौसला बढ़ाती है. नोएडा की रहने वाली एकता बजाज की कहानी इस उम्मीद से उपजे हौसले की कहानी है. एकता के मुताबिक वायरस ने उसे घेर लिया था लेकिन उम्मीद के चलते उसका हौसला बना रहा. मध्यप्रदेश के जबलपुर में अग्रवाल परिवार की भी ऐसी ही कहानी है. पिता समेत पत्नी और बच्ची कोरोना के शिकार हो गए थे. पिता की हालत तो ज्यादा खराब थी लेकिन तीनों आज सुरक्षित घर पर हैं. भोपाल के सक्सेना परिवार में पिता और पुत्री सही-सलामत अपने घरों पर हैं. ऐसी ही खुशखबर ग्वालियर से, इंदौर से और ना जाने कहां कहां से आ रही हैं. सलाम तो मौत के मुंह में जाती उस विदेशी महिला को भी करना होगा जिसने अपनी परवाह किए बिना डॉक्टरों से कहा कि जवानों को बचाओ, मैंने तो अपनी जिंदगी जी ली है. थोड़े समय बाद वह उम्रदराज महिला दम तोड़ देती है. उम्मीद ना हो तो जिंदगी खत्म होने में वक्त नहीं लगता है लेकिन उम्मीद हो तो दुनिया की हर जंग जीती जा सकती है.

यह कठिन समय है. यह सामूहिकता का परिचय देने का समय है. एक-दूसरे को हौसला देने और सर्तकता, सावधानी बरतने का समय है. हम में से हजारों लोग ऐसे हैं जिनके लिए अपने जीवन से आगे दूसरों कीiसांसों को बचाना है. डॉक्टर्स की टीम दिन-रात देखे बिना मरीजों की सेवा में जुटी हुई हैं. पुलिस का दल छोटे से सिपाही से लेकर आला अफसर मैदान सम्हाले हुए हैं. मीडिया के साथी दिन-रात एक करके अपनी जान की बाजी लगाकर लोगों तक सूचना पहुंचाने में जुटे हुए हैं. डॉक्टर, पुलिस और मीडिया के साथियों का परिवार है. उनके घर वालों को भी चिंता है लेकिन जिस तरह सीमा पर जाने से जवान को कोई मां, पत्नी या बहन नहीं रोकती है. लगभग वही मंजर देखने का आज मिल रहा है. यह विभीषिका एक दिन टल जाना है. पल्लू में आंखों की कोर को पोंछती मां, दिल को कड़ा कर पति को अपनी जिम्मेदारी के लिए भेजती पत्नी का दुख वही जान सकती हैं. ऐेस में किसी डॉक्टर, पुलिस या मीडिया साथी की छोटी बच्ची टुकूर टुकूर निहारती है तो जैसे कलेजा मुंह पर आ जाता है.

समय गुजर जाता है, यह भी गुजर जाएगा लेकिन यह समय अनुभव का होगा. उस पीड़ा का भी होगा जिनका साथ ना मिले तो ठीक था लेकिन जिन्होंने जो उपत किया और कर रहे हैं, समय उन्हें माफ नहीं करेगा. इस कठिन दौर में संयम का इम्तहान था लेेकिन हम इस इम्तहान में तीसरे दर्जे में पास हुए हैं. उम्मीद थी कि हम संयमित रहेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ. प्रधानमंत्री सेवा में जुटे लोगों के लिए ताली-थाली बजाकर आभार जताने की अपील करते हैं तो हम उसे उत्सव में बदल देते हैं. मोमबत्ती और दीया जलाकर एकजुटता का परिचय देने की उनकी दूसरी अपील को खारिज करते हुए फिर जश्र मनाने सडक़ पर उतर आते हैं. सोशल डिस्टेंसिग की सारी मर्यादा भंग हो जाती है. संयम को तोडक़र बाधा पैदा करने वाले लोग ना केवल अपने लिए बल्कि बड़ी मेहनत से बीमारों की सेवा में लगे लोगों का हौसला तोड़ते हैं. पुलिस की पिटाई का जिक्र करते हैं, आलोचना होती है. लेकिन कभी देखा है कि ये लोग हमारे लिए कहीं फुटपाथ पर सिर्फ पेट भरने का उपक्रम करते हैं. इनका भी घर है. मजे से खा सकते हैं लेकिन हम सुरक्षित रहें, इसके लिए वे घर से बाहर हैं. क्या हम इतना भी संयम बरत कर उन्हें सहयोग नहीं कर सकते हैं. ये जो सूचनाएं आप और हम तक पहुंच रही है, उन मीडिया के साथियों का परिश्रम है. उनकी कोशिश है कि आप बरगालये ना जाएं. आप तक सही सूचना पहुंचे. आपके भीतर डर नहीं, हौसला उपजे लेकिन एक वर्ग ने फैला दिया कि अखबारों से संक्रमण होता है. इन सेवाभावी लोगों की हम और किसी तरह से मदद ना कर पाएं लेकिन दिशा-निर्देशों का पालन कर हम उनका सहयोग तो कर सकते हैं ना? उम्मीद से लबरेज इस जिंदगी की एक और खूबसूरत सुबह होगी, इसमें कोई शक नहीं. वो सुबह हम सबके हौसले की होगी. इस उम्मीद को, हौसले को ही हम हलो, जिंदगी कहते हैं.

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. मोबा. 9300469918

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