**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज-
रोजानावाकियात-23-अगस्त-1932-
मंगलवार:-डॉक्टर जानसन आज दयालबाग देखने के लिए आये। मुझसे नहीं मिले। मालूम हुआ कि सब कुछ देखने के बाद उन्होंने ही पूछा कि जो शख्स इतने कामों में लगा है वह साधन किस वक्त करता होगा। इस किस्म के सवाल का उनके दिल में पैदा होना कुदरती बात है। क्योंकि जिन भाइयों के दरमियान वह रहते हैं वह सबको यही सुनाते हैं कि दयालबाग में सिर्फ रोजगार के मुतालिक धंधे हैं परमार्थ के लिए न किसी को फुर्सत है न गरज। डॉक्टर जॉनसन दोपहर को मिस ब्रूस के यहां रहे। सुना है कि उनसे भी उन्होंने इसी किस्म का सवाल किया।। डॉक्टर जॉनसन ने मुझसे सब सत्संग के भविष्य की निस्बत पूछा था तो मैंने यही जवाब दिया था कि दुनिया में वही आंदोलन जिंदा रह सकता है जिससे जनसामान्य को कुछ लाभ पहुंचता है। एक वक्त था ईसाई चर्च ने हिंदुस्तान में जोर पकड़ा क्योंकि पादरियों के पास हमें देने के लिए बहुत कुछ था। ऐसे ही एक वक्त आर्य समाज ने बहुत जोर पकड़ा क्योंकि आर्य समाज के पास भी बहुत कुछ देने के लिए था लेकिन अब पादरी बाजार सर्द पाते हैं और आर्य समाजी नेता अपनी संस्था को जिंदा रखने की फिक्र में ग्रसित नजर आते हैं । इसी उसूल पर अगर हमारी संस्था के पास दुनिया को पेश करने के लिए कोई लाभप्रद चीज है तो दुनिया हमारी शिक्षाओं की कदर करेगी और हमसे सहमत होती जाएगी और अगर हमारे पास कोई भी चीज नहीं है थोड़े ही अरसै में हमारा नामोनिशान मिट जाएगा। लेकिन क्योंकि मेरा यकीन है कि हमारे पास दुनिया को देने के लिए बहुत कुछ है इसलिए सत्संग का टिकाऊ होना लाजमी है। चुनांचे हम व्यवहारिक जिंदगी से दुनिया को सिखलाना चाहते हैं कि कैसे इंसान दुनिया के सुख भोगता हुआ लेकिन दुनिया में फँसता हुआ हंसते खेलते मालिक की गोद में पहुंच जाता है। अगर यह बात किसी के समझ में आ जाए तो उम्मीद है कि फिर उसके दिल में दयालबाग के मुतालिक शंकाये न उठेंगे। डॉक्टर जानसन का संभवतः यह ख्याल है कि सत्संग में इंतजाम की बागडोर इंसानों के हाथ में है और सब के सब सतसंगी महज प्रारंभिक पाठशाला की हैसियत रखते हैं और परमार्थ की पहली दूसरी हद तीसरी किताब पढ़ते हैं । क्या कोई साहब उन्हें समझाने की तकलीफ गवारा करेंगे कि बिना उस्ताद कोई मक्तब नहीं चल सकता और उस्ताद व तिफ्लानेमक्तब में बहुत फर्क रहता है । और अगर खुद मुन्तजिमाने दयालबाग स्वार्थी व प्रमार्थी दोनों किस्म के कर्तव्य को पूर्णता देने के नाकाबिल है तो दूसरों के लिए खाक मिसाल कायम करेंगे।। रात के सत्संग में भाइयों और बहनों ने दिसंबर के जलसे की के लिये भेंट की।अंदाजन 4000 रुपया लसूल हो चुका है। बयान हुआ कि कुदरत का यह एक जबरदस्त कानून है कि जो इंसान मालिक की सेवा करने के मुतअल्लिक़ उमंग उठाता है मालिक उसको दया करके खुद अधिकार और मौका प्रदान करता है। इस उसूल के बदले अगर हमारी संगत के दिल में जन सामान्य की सेवा के लिए बढ़की उमंग मौजूद है तो जरूर हमें मुनासिब अधिकार व मौके के की बख्शीश होगी ।लेकिन स्पष्ट रहे कि अगर हममें से किसी के दिल में खुद अपने या अपने संबंधियों के आराम की चाह छिपी होगी तो उसकी उमंग निष्काम न रहने की वजह से "काम अंग" का इजहार गणना होगी और उस शख्स को न अधिकार प्राप्त होगा न मौका।🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**
[06/04, 04:55] +91 6239 397 913: *परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज- सत्संग के उपदेश- भाग 2 -कल से आगे :-बाज लोग कहते हैं कि हिंदू वह है जो वेदों में ऋषि यों में श्रद्धा रक्खें। हम लोग वेंदों को वेद और ऋषियों को ऋषि मानने के लिए हर वक्त तैयार हैं लेकिन बहुत से ईसाई व मुसलमान भी इस बात के मानने वाले हैं इसलिए हिंदू कहलाने के लिए यह वेदो को वेद, और ऋषियों को ऋषि मान लेना काफी नहीं है, वेदों को ईश्वरकृत और ऋषियों को ब्रह्मदर्शी तस्लीम करना भी लाजिम है ।लेकिन बहुत से ऐसे लोग हैं जो हिंदू कहलाते हैं और न वेदों को ईश्वरकृत मानते हैं और न ऋषियों को बृह्मदर्शी तस्लीम करते हैं। हम लोग यह बखुशी तस्लीम करते हैं कि हिंदुस्तान में कई एक ऋषि ब्रह्मदर्शी हुए और यह भी मानते हैं कि हमारे बुजुर्ग वेदों को आत्मबचन व ईश्वरकृत स्वीकार करते थे। हमें यह भी यकीन रखते हैं कि वेदों के अंदर ब्रह्मपुरुष तक का ज्ञान वर्णन किया गया है और यह भी एतकाद रखते हैं कि बहुत सी ऋचाएँ अनुभवी ऋषियों ने प्रकट की है और वे निहायत उत्तम व पवित्र ख्यालात से भरपूर है । लेकिन हम यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि वेदों के सभी मंत्र इस पाये के हैं या वेद नित्य है और उनके मंत्र हमेशा ईश्वर के दिमाग में कायम रहते हैं और वेदों के अंतर लौकिक, पारलौकिक सभी विद्याएँ मौजूद है और कोई सत्य बात ज्ञान या विज्ञा के मुतअल्लिक़ उनके बाहर हो ही नहीं सकती और यह कि प्रलय होने पर पर वेंदों का ज्ञान ईश्वर में समा जाता है और दोबारा रचना होने पर यानी नई सृष्टि के आदि में वही मंत्र ईश्वर से फिर प्रकट होते हैं । क्रमशः🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻*
*परम गुरु हुजूर महाराज-प्रेमपत्र-1-कल से आगे:-(11) कुल रचना धारों की है। जितनी देहें है सब धार या तारों की बनी है। जैसे कपडा तारों से बुना हुआ हुए या दरख्त की डालें और डालियाँ तारों के पुलिंदे है, इसी तरह से मनुष्य की देह धार या तारों से बनी हुई है। यह एक एक तार या रग एक नल है, जिसमें होकर धार जारी रहती है। यही बनावट कुल देह की है। जब कोई बोलता है तो आवाज की धार के वसीले से बोलता सुनाई देता है। ऐसे ही दृष्टि की धार के वसीले से दुनियाँ दिखलाई देती है।। (12) जब कुछ रचना नही हुई थी, तब प्रथम कुल मालिक राधास्वामी दयाल के चरणों से धार प्रगट हुई। यह धार शब्द और जान और प्रकाश की धार है, इसीसे सब रचना ऊपर नीचे के लोकों की हुई।। (13) कुल मालिक राधास्वामी दयाल की बैठक हर एक के घट में मौजूद है और वही से सुरत यानी जान की धार का उतर कर दयाल देश यानी निर्मल चेतन देश और ब्रह्मांड और पिंड की रचना करती चली आई और पिंड में दोनों नेत्रों के मध्य में अंतर की तरफ बैठ कर मध और इंद्री औऋ अंग अंग को अपनी धारों से ताकत दे रही है। औत्र जोकि सुरत की धार ही आनंद और रस और स्वाद और ज्ञान की धार है, तो उसी के सबब से रस और आनंद देहधारियों को इंद्रियों के द्वारे प्राप्त होता है। क्रमशः 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
राधास्वामी
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