Wednesday, June 17, 2020

बाल कांड /श्री रामचरित मानस





श्रीरामचरितमानस

बालकाण्ड
दोहा  356  से आगे


भूप बचन सुनि सहज सुहाए।
 जरित कनक मनि पलँग डसाए॥
सुभग सुरभि पय फेन समाना।
कोमल कलित सुपेतीं नाना॥


राजा के स्वाभव से ही सुंदर वचन सुनकर (रानियों ने) मणियों से जड़े सुवर्ण के पलँग बिछवाए। (गद्दों पर) गौ के दूध के फेन के समान सुंदर एवं कोमल अनेकों सफेद चादरें बिछाईं।
उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्रग सुगंध मनिमंदिर माहीं॥
रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥
सुंदर तकियों का वर्णन नहीं किया जा सकता। मणियों के मंदिर में फूलों की मालाएँ और सुगंध द्रव्य सजे हैं। सुंदर रत्नों के दीपकों और सुंदर चँदोवे की शोभा कहते नहीं बनती। जिसने उन्हें देखा हो, वही जान सकता है।


सेज रुचिर रचि रामु उठाए।
प्रेम समेत पलँग पौढ़ाए॥

अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही।
निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥


इस प्रकार सुंदर शय्या सजाकर (माताओं ने) राम को उठाया और प्रेम सहित पलँग पर पौढ़ाया। राम ने बार-बार भाइयों को आज्ञा दी। तब वे भी अपनी-अपनी शय्याओं पर सो गए।
देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥
मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताड़का मारी॥
राम के साँवले सुंदर कोमल अँगों को देखकर सब माताएँ प्रेम सहित वचन कह रही हैं - हे तात! मार्ग में जाते हुए तुमने बड़ी भयावनी ताड़का राक्षसी को किस प्रकार से मारा?
दो० - घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।
मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु॥ 356॥
बड़े भयानक राक्षस, जो विकट योद्धा थे और जो युद्ध में किसी को कुछ नहीं गिनते थे, उन दुष्ट मारीच और सुबाहु को सहायकों सहित तुमने कैसे मारा?॥ 356॥
मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी॥
मख रखवारी करि दुहुँ भाईं। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाईं॥
हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, मुनि की कृपा से ही ईश्वर ने तुम्हारी बहुत-सी बलाओं को टाल दिया। दोनों भाइयों ने यज्ञ की रखवाली करके गुरु के प्रसाद से सब विद्याएँ पाईं।
मुनितिय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी॥
कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा॥
चरणों की धूलि लगते ही मुनि पत्नी अहल्या तर गई। विश्व भर में यह कीर्ति पूर्ण रीति से व्याप्त हो गई। कच्छप की पीठ, वज्र और पर्वत से भी कठोर शिव के धनुष को राजाओं के समाज में तुमने तोड़ दिया।


बिस्व बिजय जसु जानकि पाई।
आए भवन ब्याहि सब भाई॥
सकल अमानुष करम तुम्हारे।
 केवल कौसिक कृपाँ सुधारे॥


विश्वविजय के यश और जानकी को पाया और सब भाइयों को ब्याहकर घर आए। तुम्हारे सभी कर्म अमानुषी हैं (मनुष्य की शक्ति के बाहर हैं), जिन्हें केवल विश्वामित्र की कृपा ने सुधारा है (संपन्न किया है)।


आजु सुफल जग जनमु हमारा।
देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥
जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें।
ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें॥


हे तात! तुम्हारा चंद्रमुख देखकर आज हमारा जगत में जन्म लेना सफल हुआ। तुमको बिना देखे जो दिन बीते हैं, उनको ब्रह्मा गिनती में न लावें (हमारी आयु में शामिल न करें)।


दो० - राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।
सुमिरि संभु गुरु बिप्र पद किए नीदबस नैन॥ 357॥

विनय भरे उत्तम वचन कहकर राम ने सब माताओं को संतुष्ट किया। फिर शिव, गुरु और ब्राह्मणों के चरणों का स्मरण कर नेत्रों को नींद के वश किया। (अर्थात वे सो रहे)॥ 357॥
नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥
घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मंगल गारीं॥
नींद में भी उनका अत्यंत सलोना मुखड़ा ऐसा सोह रहा था, मानो संध्या के समय का लाल कमल सोह रहा हो। स्त्रियाँ घर-घर जागरण कर रही हैं और आपस में (एक-दूसरी को) मंगलमयी गालियाँ दे रही हैं।
पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥
सुंदर बधुन्ह सासु लै सोईं। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोईं॥
रानियाँ कहती हैं - हे सजनी! देखो, (आज) रात्रि की कैसी शोभा है, जिससे अयोध्यापुरी विशेष शोभित हो रही है! (यों कहती हुई) सासुएँ सुंदर बहुओं को लेकर सो गईं, मानो सर्पों ने अपने सिर की मणियों को हृदय में छिपा लिया है।
प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे॥
बंदि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए॥
प्रातःकाल पवित्र ब्रह्म मुहूर्त में प्रभु जागे। मुर्गे सुंदर बोलने लगे। भाट और मागधों ने गुणों का गान किया तथा नगर के लोग द्वार पर जोहार करने को आए।
बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥
जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति संग द्वार पगु धारे॥
ब्राह्मणों, देवताओं, गुरु, पिता और माताओं की वंदना करके आशीर्वाद पाकर सब भाई प्रसन्न हुए। माताओं ने आदर के साथ उनके मुखों को देखा। फिर वे राजा के साथ दरवाजे (बाहर) पधारे।
दो० - कीन्हि सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥ 358॥
स्वभाव से ही पवित्र चारों भाइयों ने सब शौचादि से निवृत्त होकर पवित्र सरयू नदी में स्नान किया और प्रातःक्रिया (संध्या-वंदनादि) करके वे पिता के पास आए॥ 358॥

भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठे हरषि रजायसु पाई॥
देखि रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥
राजा ने देखते ही उन्हें हृदय से लगा लिया। तदनंतर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गए। राम के दर्शन कर और नेत्रों के लाभ की बस यही सीमा है, ऐसा अनुमान कर सारी सभा शीतल हो गई। (अर्थात सबके तीनों प्रकार के ताप सदा के लिए मिट गए।)
पुनि बसिष्टु मुनि कौसिकु आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥
सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥
फिर मुनि वशिष्ठ और विश्वामित्र आए। राजा ने उनको सुंदर आसनों पर बैठाया और पुत्रों समेत उनकी पूजा करके उनके चरणों लगे। दोनों गुरु राम को देखकर प्रेम में मुग्ध हो गए।
कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥
मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ठ बिपुल बिधि बरनी॥
वशिष्ठ धर्म के इतिहास कह रहे हैं और राजा रनिवास सहित सुन रहे हैं। जो मुनियों के मन को भी अगम्य है, ऐसी विश्वामित्र की करनी को वशिष्ठ ने आनंदित होकर बहुत प्रकार से वर्णन किया।
बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची॥
सुनि आनंदु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू॥
वामदेव बोले - ये सब बातें सत्य हैं। विश्वामित्र की सुंदर कीर्ति तीनों लोकों में छाई हुई है। यह सुनकर सब किसी को आनंद हुआ। राम-लक्ष्मण के हृदय में अधिक उत्साह (आनंद) हुआ।
दो० - मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति॥ 359॥
नित्य ही मंगल, आनंद और उत्सव होते हैं; इस तरह आनंद में दिन बीतते जाते हैं। अयोध्या आनंद से भरकर उमड़ पड़ी, आनंद की अधिकता अधिक-अधिक बढ़ती ही जा रही है॥ 359॥
सुदिन सोधि कल कंकन छोरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे॥
नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥
अच्छा दिन (शुभ मुहूर्त) शोधकर सुंदर कंकण खोले गए। मंगल, आनंद और विनोद कुछ कम नहीं हुए (अर्थात बहुत हुए)। इस प्रकार नित्य नए सुख को देखकर देवता सिहाते हैं और अयोध्या में जन्म पाने के लिए ब्रह्मा से याचना करते हैं।
बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥
दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥
विश्वामित्र नित्य ही चलना (अपने आश्रम जाना) चाहते हैं, पर राम के स्नेह और विनयवश रह जाते हैं। दिनों-दिन राजा का सौ गुना भाव (प्रेम) देखकर महामुनिराज विश्वामित्र उनकी सराहना करते हैं।
मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ़ भे आगे॥
नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥
अंत में जब विश्वामित्र ने विदा माँगी, तब राजा प्रेममग्न हो गए और पुत्रों सहित आगे खड़े हो गए। (वे बोले -) हे नाथ! यह सारी संपदा आपकी है। मैं तो स्त्री-पुत्रों सहित आपका सेवक हूँ।
करब सदा लरिकन्ह पर छोहू। दरसनु देत रहब मुनि मोहू॥
अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥
हे मुनि! लड़कों पर सदा स्नेह करते रहिएगा और मुझे भी दर्शन देते रहिएगा। ऐसा कहकर पुत्रों और रानियों सहित राजा दशरथ विश्वामित्र के चरणों पर गिर पड़े, (प्रेमविह्वल हो जाने के कारण) उनके मुँह से बात नहीं निकलती।
दीन्हि असीस बिप्र बहु भाँति। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥
रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥
ब्राह्मण विश्वमित्र ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद दिए और वे चल पड़े, प्रीति की रीति कही नहीं जाती। सब भाइयों को साथ लेकर राम प्रेम के साथ उन्हें पहुँचाकर और आज्ञा पाकर लौटे।
दो० - राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु।
जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु॥ 360॥
गाधिकुल के चंद्रमा विश्वामित्र बड़े हर्ष के साथ राम के रूप, राजा दशरथ की भक्ति, (चारों भाइयों के) विवाह और (सबके) उत्साह और आनंद को मन-ही-मन सराहते जाते हैं॥ 360॥
बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥
सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥
वामदेव और रघुकुल के गुरु ज्ञानी वशिष्ठ ने फिर विश्वामित्र की कथा बखानकर कही। मुनि का सुंदर यश सुनकर राजा मन-ही-मन अपने पुण्यों के प्रभाव का बखान करने लगे।
बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥
जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥
आज्ञा हुई तब सब लोग (अपने-अपने घरों को) लौटे। राजा दशरथ भी पुत्रों सहित महल में गए। जहाँ-तहाँ सब राम के विवाह की गाथाएँ गा रहे हैं। राम का पवित्र सुयश तीनों लोकों में छा गया।
आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें॥
प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥
जब से राम विवाह करके घर आए, तब से सब प्रकार का आनंद अयोध्या में आकर बसने लगा। प्रभु के विवाह में जैसा आनंद-उत्साह हुआ, उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेष भी नहीं कह सकते।
कबिकुल वनु पावन जानी। राम सीय जसु मंगल खानी॥
तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥
सीताराम के यश को कविकुल के जीवन को पवित्र करनेवाला और मंगलों की खान जानकर, इससे मैंने अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए कुछ (थोड़ा-सा) बखानकर कहा है।
छं० - निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसीं कह्यो।
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥
उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥
अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए तुलसी ने राम का यश कहा है। (नहीं तो) रघुनाथ का चरित्र अपार समुद्र है, किस कवि ने उसका पार पाया है? जो लोग यज्ञोपवीत और विवाह के मंगलमय उत्सव का वर्णन आदर के साथ सुनकर गावेंगे, वे लोग जानकी और राम की कृपा से सदा सुख पावेंगे।
सो० - सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु॥ 361॥
सीता और रघुनाथ के विवाह प्रसंग को जो लोग प्रेमपूर्वक गाएँ-सुनेंगे, उनके लिए सदा उत्साह(आनंद)-ही-उत्साह है; क्योंकि राम का यश मंगल का धाम है॥ 361॥
इतिमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने प्रथमः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के संपूर्ण पापों को विध्वंस करनेवाले रामचरितेमानस का यह पहला सोपान समाप्त हुआ।
(बालकांड समाप्त)
क्रमशः ...........


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