**परम गुरु हुजूर महाराज
प्रेम पत्र- भाग-1-
कल से आगे-(9)
अब मालूम होगा कि त्रिकुटी को ब्रह्म पद कहते हैं और सहसदलकँवल के धनी यानी मालिक को ईश्वर कहते हैं । और इस स्थान से सुरत यानी जीव की धार और मन और माया की धार जुदा-जुदा प्रगट होकर नीचे उतरी और तीन लोक की रचना हुई।
जिन मतों की रसाई यहाँ तक हुई (और असल में सब मत इसी स्थान पर खत्म हो गये) उनको इसके ऊपर का हाल मालूम ना हुआ।
इस वास्ते उन्होंने ईश्वर और जीव और माया (यानी परमाणु को अनादि कहा, पर संत मत के मुआफिक माया और उसके परमाणु की आदि त्रिकुटी से हुई और सुरत सत्तपुरुष राधास्वामी के स्थान से आई और ईश्वर भी यारी निरंजन सत्य पुरुष से प्रगट हुआ। फिर किस तरह अनादि हो सकते हैं, क्योंकि सत्तलोक और उसके ऊपर के स्थानों में इनका अस्तित्व निशान भी नहीं है।।
(10) सुरत का बीजा आद्या मार्फत एक ही बार सतलोक से आया, अब बार-बार सुरतें वहां से नहीं आती है ।
(11) निरंजन यानी काल अंश भी एक ही दफा वहाँ से आया, अब वह उलट कर वहाँ नही जा सकता है।।
(12) संतो के मत के मुआफिक प्रलय के वक्त त्रिकुटी का स्थान भी सिमट जावेगा और उस वक्त ईश्वर और जीव यानी सुरत और माया ( मय अपने मसाले तीन गुण और पाँच तत्व के) दसवें द्वार में समा जाएगी, और उनका रुप, जो उस मुकाम के नीचे जाहिर हुआ है, अपने-अपने भंडार में लय हो जावेगा।।
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**
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