**परम गुरु हुजूर साहबजी महाराज
-रोजाना वाकिआत-
27, 28, 29 ,30 नवंबर, 1932-
रविवार से बुधवार तक-
27 की सुबह को मोटर की सवारी से दिल्ली जाना पड़ा। रास्ते में हवा लग गई। बड़ी तीव्रता का जुकाम हुआ, बुखार हुआ, और बदन टूटना शुरू हुआ। सोमवार कि सेहपहर को मोटर ही से दयालबाग वापसी हुई। तमाम जिस्म मारे हरारत के जल रहा था।
5:30 बजे घर पर पहुंचे मालिका का शुकराना अदा किया ओढ कपड़े ओढ कर लेटने की सोची। रात भर तेज बुखार रहा । एक मिनट के लिये नींद ना आई। मालूम होता था कि छठी का दूध भी भाप बन कर निकल रहा है। लेकिन तबीयत में पूरी सुकून था। और तमाम रात मन मालिक की इस नई दया का तमाशा देखता रहा। सुबह 4:00 बजे तंद्रा मालूम हुई।
लेकिन 5:00 बजे आंख खुल गई। तबीयत बिल्कुल साफ थी। दिल की धड़कनें कतई जाती रही । सांस जो महीने डेढ से दिक्कत से आता था साफ और हल्का आने लगा । जिस्म के कुल जहर बाहर निकल गया।
जिन कर्मों के एवज् यह सजा मिली खत्म हो गई। मालिक की दया ने दूसरा नक्शा अख्तियार किया।। सन 1920 के इन्हीं दिनों मैं बुखार का ऐसा तीव्र हमला हुआ था और जब अब 12 वर्ष बाद दूसरी मर्तबा हुआ । गरज 5:00 बजे उठकर मुँह हाथ धोये और घंटा भर नित्य नियम करके सुबह के सत्संग में शिरकत के लिए तैयारी शुरू की।
6:30 बजे सुबह का सत्संग शुरू होकर 7:30 बजे खत्म हुआ। जिस्म बिल्कुल कागज का लिफाफा मालूम होता था । लेकिन महसूस होता था कि वह दोबारा जिस्म पर अधिकार जमा रही है। और बुखार के हमले से जो दीवारें गिर गई हैं या जर्जर हो गई है सबकी जोर व शोर से मरम्मत हो रही है । शाम को 4:00 बजे तबीयत और भी साफ हो गई।।
मंगल की सुबह से सब काम बदस्तूर जारी हो गए। कपड़े उतार कर देखा तो टांगे बाजू की शक्ल और बाजू उंगलियों की सूरत हो गए है। उंगलियाँ बेचारी बालों के मुकाबले की ठान रही थीं। यह है उस मकान की हैसियत जिसके अंदर बैठ कर रूह दुनिया से ताल्लुक करती है और जिसको इंसान अपना स्थाई निवास स्थान बनाया चहता है।
कबीर साहब ने फरमाया है:- पानी बीच बताशा साधो जग का यही तमाशा है। गरज अब दया से तबीयत बिल्कुल दुरुस्त और जिस्म कुछ मुद्दत के लिए काम करने के लिए तत्पर है। रात के वक्त एक प्रेमी सत्यान्वेशी की रचना "ब्रह्मा यज्ञ" का अध्ययन किया।
मालूम होता है कि यह सब सच्चे आर्य हैं। शुभ नाम लाला कूडेमल आनंद है। दिल बहुत साफ है। मालिक के दर्शन के इच्छुक हैं।।
🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻**
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