**राधास्वामी!! 14-09-2020-
आज शाम के सतसंग में पढे गये पाठ-
(1) मन रे क्यों न धरे गुरु ध्याना। तज मान मोह अज्ञाना।। -(इस बिधि कार करो तुम निसदिन। पाओ राधास्वामी चरन ठिकाना।।) (प्रेमबानी-3-शब्द-25,पृ.सं.369)
(2) बिरह को मत छेडिये बुरी बिरह की छेड। छेडे पर छाँडे नहीं बहुत करेगी जेर।।-(बिरह सा साथी नहीं नहीं बिरह सम मीत।बिरह रीति सो जानिहै जो करे बिरह से प्रीत।।) (प्रेमबिलास-शब्द-52-दोहे, बिरह-पृ.सं.67) (
3) यथार्थ प्रकाश-भाग पहला-कल से आगे।। 🙏🏻राधास्वामी🙏🏻**
-आज शाम के सत्संग में पढ़ा गया बचन-
कल से आगे (109)-
इन पंक्तियों को लेखबद्ध करते समय एक भाई ने मैक्समूलर रचित 'रामकृष्ण ,हिज लाइफ एंड सेइंग्स' ('Ram Krishna,His Life and Sayings') नामक पुस्तक इस अभिप्राय से उपस्थित की कि उसके 20-23 पृष्ठों पर परम गुरु हुजूर महाराज , हमारे मत के द्वितीय आचार्य, का जो कुछ वर्णन हुआ उसका भावार्थ यहाँ अंकित कर दिया जाय। लिखा है:-" राय सालिग्राम साहब बहादुर ने, जिनकी अवस्था इस समय 70 वर्ष के लगभग है, डाक- विभाग में एक प्रधान अधिकारी के पद पर बड़ा उत्साही तथा उपयोगी जीवन व्यतीत किया है । उन्नति करते करते आपने संयुक्त प्रदेश के पोस्टमास्टर जनरल का पद प्राप्त कर लिया। मालूम होता है कि सन् 1857 ईस्वी के विद्रोह की भयानक घटनाओं का आपके हृदय पर प्रबल प्रभाव पड़ा। आपने सहस्त्रों पुरुष , स्त्रियों तथा बालकों की अपने आंखों के सामने हत्या होते, समृद्धिशालीयों को अंकिच्ञन तथा अंकिच्ञनों को समृद्धिशाली बनते देखा। इन घटनाओं का अवलोकन करके आपके हृदय पर संसार की अनित्यता का पूर्ण प्रभाव पड़ा और वे सब सांसारिक व्यापार, जिनमें आपकी पहले अभिरुची थी, एकदम चित्त से उतर गये। परंतु आपकी बाल्यावस्था ही से परमार्थ- चिंतन तथा तत्वज्ञानानुशीलन की ओर प्रवृति रही । आपने अपनी अवस्था का अधिक अंश शास्त्रों के अध्ययन में व्यतीत किया। इसलिए आश्चर्य नहीं कि विद्रोह के दिनों के भंयकर दृश्य देखकर के आपके हृदय में संसार से विराग और निर्मल तथा अविनाशी आनंद के पद की प्राप्ति के लिए अनुराग उत्पन्न हो गया। आप इस अभीष्ट की प्राप्ति की खोज में बहुत से संन्यासियों और योगियों की सेवा में उपस्थित हुए परंतु किसी से सहायता न मिली। अन्ततः आपके दफ्तर के एक सहयोगी ने आपका एक गुरु महाराज से साक्षात् कराया ( यह सहयोगी महाशय राधास्वामी-मत के प्रवर्तक स्वामीजी महाराज के भ्राता थे)। आपने 2 वर्ष तक स्वामीजी महाराज के उपदेश सुने और उनका उपनिषदों और अन्य शास्त्रों के सिद्धांतों से मिलान किया, और अंत में चरण शरण ग्रहण की। जब तक आपका आगरें में निवास रहा आप किसी अन्य को गुरु महाराज की कोई सेवा न करने देते थे( स्वयं ही करते थे ) आप गुरु महाराज के लिए अपने हाथों से आटा पीसते और रसोई बनाते थे और स्वयं ही अर्पण करते थे । आप प्रतिदिन प्रात: काल गुरु महाराज के स्नान के लिए दो मील की दूरी से स्वच्छ जल का घड़ा भरकर लाते थे। और अपना कुल वेतन गुरु महाराज के चरणों में समर्पण कर देते थे। गुरु महाराज उनके बाल बच्चों की आवश्यकता के लिए उचित प्रबंध करके जो कुछ शेष रहता था निर्धन जनों को दान कर देते थे। हुजूर महाराज की जाति के लोग उनके इस व्यवहार तथा गुरु- प्रसाद लेने से अत्यंत अप्रसन्न थे। कुछ काल के अनन्तर आपने नौकरी से अलग होने की इच्छा प्रकट की परंतु गुरु महाराज ने मना किया। जब आपके पास पोस्टमास्टरजनरली के पद पर नियुक्ति की आज्ञा आई तो गुरु महाराज के चरणो में मत्था टेक कर फिर प्रार्थी हुए कि नौकरी छोड़ने और सच्चा परमार्थी जीवन व्यतीत करने के लिए आज्ञा प्रदान हो । परंतु गुरु महाराज ने इस बार भी इनकार किया और फरमाया कि नौकरी के काम-काज करने से आध्यात्मिक उन्नति में कोई हानि न होगी । आप पोस्टमास्टर जनरल होकर इलाहाबाद पधारे और अत्यन्त सफलता के साथ अपने पदोचित्त कर्तव्यों का पालन करते रहे। सन्1878 ईस्वी में जब गुरु महाराज परमधाम को सिधारे तब आप नौकरी से अलग हो गये और आपने अपने गुरु महाराज का स्थापित किया हुआ आध्यात्मिक उन्नति का प्रबंध जारी रखा", इत्यादि।🙏🏻 राधास्वामी🙏🏻यथार्थ प्रकाश- भाग पहला धर्म गुरु साहब जी महाराज!**l
No comments:
Post a Comment